नैहर, न्यौछावर और नागराज: लोकगाथा बिहुला-विषहरी की उपकथा – दो
‘बिहुला-विषहरी’ का काल संस्कृतियों के विलयन का काल था। अंग क्षेत्र में वह कितना सहज था, उसकी अभिव्यक्ति इस लोककथा में है: मीरा झा, अंगिका साहित्यकार, भागलपुर।
‘बिहुला-विषहरी’ का काल संस्कृतियों के विलयन का काल था। अंग क्षेत्र में वह कितना सहज था, उसकी अभिव्यक्ति इस लोककथा में है: मीरा झा, अंगिका साहित्यकार, भागलपुर।
‘नाग से विवाह’ लोकगाथा बिहुला-विषहरी की अनेक उपकथाओं में से एक है। इसमें नागों का जनजातीय स्वरूप और उसका प्राकृतिक स्वभाव, दोनों साथ प्रत्यक्ष होता है।
मिथिला की चित्र परंपराओं में गोदना चित्रकला एक अस्वाभाविक घटना थी। चानो ने अपनी सूझ-बूझ से उसे न केवल ‘स्वाभाविक’ बनाया, बल्कि एक नयी कलाधारा की शुरुआत भी की।
हिरनी-बिरनी लोकगाथा में ऊंची जाति का पोसन सिंह नटिन बहनों से शादी करता है। विवाह का प्रसंग जनमना जाति व्यवस्था में विवाह पर लगे स्वजातीय सीमा बंधन को चुनौती देता है।
मंजूषा कला चक्रवर्ती देवी की वजह से चर्चा में आयी, लेकिन उसे ऊंचाई पर पहुंचाया निर्मला देवी ने। वह आज भी युवा कलाकारों को नि:शुल्क मंजूषा कला सिखाती हैं।
Upendra Maharathi Shilp Anusandhan Sansthan, Patna was established in 1956 by the Department of Industries, Government of Bihar.
पटना के दीदारगंज में मिली एक फीट साढ़े सात इंच की चौकी पर बैठी चुनार के बलुआ पत्थरों से बनी पांच फ़ीट दो इंच लंबी यक्षी की मूर्ति दर्पण की तरह अविश्वसनीय रूप से चमकदार है।
“हाथी ऐश्वर्य लाता है। मैं साक्षी हूं। वह मार्बल का ही क्यों न हो। अन्यथा किसने सोचा था कि जिसके पास खिलौने खरीदने भर के पैसे नहीं थे, वह देश-विदेश को अपनी कला दिखाएगा।”
Despite lack of essential infrastructure and govt. support and erratic power supply, brass smiths of Parev are keeping the traditional craft alive.
देश-विदेश में मशहूर वाराणसी की ताम्र-कला से जुड़े कलाकारों की लगभग 75 से 80 फीसदी आबादी काशीपुरा मुहल्ले की तंग गलियों में रहती है जिनकी रोजाना आय करीब 100 रु. है।
रेशमा चूहड़मल की लोकगाथा सामंती व्यवस्थाओं के खिलाफ प्रतिरोध की गाथा है जिसमें सामाजिक वर्जनाओं के खिलाफ विद्रोह की प्रवृत्ति अत्यंत मुखरता से मिलती है।
“जो गतिशीलता का विरोधी है, परिवर्त्तन का विरोधी है, वह मृत्यु का पक्षधर है, जड़ता का समर्थक है। परिवर्त्तन चाहे जितना हो, उसे देखते ही लगना चाहिए कि यह मंजूषा शैली ही है।”
टिकुली कला का मौजूदा चलन करीब चार दशक पुरानी घटना है जिसमें जगदंबा देवी की चित्र शैली टिकुली कला की प्रामाणिक शैली मान ली गयी और अब वह बाजार का हिस्सा है।
भारत में परंपरागत रूप से कला राज्याश्रय या मठों-मंदिरों के संरक्षण में सदियों से फली-फूली। लेकिन वह बाजार में आयी कालीघाट से। इसे कला बाजार की शुरुआत माना जाता है।
पटना आर्ट कॉलेज विशेष: सरकारी उदासीनता एवं कतिपय अन्य कारणों से यह कला महाविद्यालय उन ऊंचाइयों तक अभी भी नहीं पहुंच पाया, जो अपेक्षित था।
बोहुरा गोढ़नी शर्त रखती है कि वह बेटी अमरौती की शादी विश्वंभर के बेटे नेटुआ दयाल सिंह से तभी करेगी जब भीमल सिंह कमला नदी की धार को बखरी बाजार तक आने देंगे।
राधामोहन प्रसाद को बिहार में समकालीन कला का पुरोधा माना जा सकता है। वे बिहार के लिए टर्निंग प्वाइंट थे। न केवल कला सजृन में बल्कि कला शिक्षण में भी।
मंजूषा कला की खोज 1941 में आई.सी.एस. अधिकारी डब्ल्यू. जी. आर्चर ने की थी। उन्होंने अंग के माली परिवारों द्वारा बनाये मंजूषा चित्रों को लंदन के इंडिया हाउस में प्रस्तुत किया था।
बिहार के प्रत्येक सांस्कृतिक क्षेत्र में टिकुली (बिन्दी) लगाने का महिलाओं में प्रचलन है। टिकुली प्राय: सधवा महिलाएं ही अधिक प्रयोग करती हैं। सोलह श्रृंगार में बिन्दी लगाना सर्वोपरि है।
ईश्वरी प्रसाद वर्मा हांथी दांत, अबरक की परतों, सिल्क और कागज पर चित्राकंन में माहिर कलाकार थे। उन्होंने यूरोपीय कला के आधार पर बड़े तैल चित्रों का भी निर्माण किया था।
Tattooing is an age-old tradition of India in general and tribal societies in particular. In Northern and Central India, it is popularly known as ‘Godna.’
यशोदा देवी एक ऐसी जीवट मिथिला कलाकार थीं जिन्होंने अपने अंतिम दिनों में चित्र बनाने के लिए माध्यमों का असीमित विस्तार कर लिया। वह अपने सम्मुख हर वस्तु पर रेखांकन करती थीं।
परंपरागत मिथिला चित्रकला की पुरोधा कलाकारों में बिमला दत्त का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। वह मुख्यत: लाइन शैली में चित्रण करती हैं और चित्रों में परंपरागत विषयों को महत्व देती हैं।
दीना-भद्री लोकगाथा मुसहर समाज के जीवन की गुत्थम-गुत्थी, जय-पराजय एवं उससे संचित अनुभवों की आवाजाही के बीच पनपते सपनों एवं आकांक्षाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति है।
दीना-भद्री लोकगाथा में दलित समुदाय के शोषण और उत्पीड़न की घटनाओं का केन्द्रीकरण है, उनके जीवन के अन्तर्विरोधों और संघर्षों का मानवीकरण है – हसन इमाम, संस्कृतिकर्मी, बिहार
भारत सांस्कृतिक विरासतों के साथ-साथ सांस्कृतिक बहुलताओं का भी देश है, जिनके बीच सहअस्तित्व की भावना सदियों से विद्यमान रही है। लोककलाएं उसका प्रमाण हैं।
बिहार के चर्चित मूर्तिकार रजत घोष अपनी कलाकृतियों के माध्यम से एक अलग ही पहचान रखते हैं। उनकी कलाकृतियों पर लोककला का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।
कोबर लिखिया या चित्रण वस्तुत: अनेक प्रतीक-चिन्हों का अदभुत संयोजन है। उनके अपने उद्देश्य हैं, अपनी विशेषताएं हैं, अपने सिद्धांत हैं जो विज्ञान की अवधारणाओं पर आधारित हैं।
हमारे समय में मूर्तिकला का अर्थ था सिर्फ ‘पोर्ट्रेचर’। उससे आमदनी भी हो जाती थी। इसलिए मैंने भी पोट्रेट्स बनाने की शुरुआत की, 1965 में : पाण्डेय सुरेंद्र
In an email interview with folkartopedia, she shared her experiences of folk art and crafts of Bihar against the contemporary folk world.
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