सुनील कुमार
कला शोधार्थी, लोक कलाओं के अध्ययन में विशेष रूची
संस्थापक-फोकार्टोपीडिया
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मिथिलांचल में लोक चित्र परंपराओं के विकास और उसकी निरंतरता का क्रम क्या है यह उतना ही अस्पष्ट है जितना की मिथिला की दो अगड़ी जातियों ब्राह्मण और कायस्थ जाति की चित्र परंपराओं का। लेकिन, 1970 के दशक में जब ब्राह्मण और कायस्थ जाति की परंपरागत चित्रकला अपनी लोकप्रियता की ओर बढ़ रही थी, तब उसे स्थानीय लोक कलाकारों ने स्पष्ट चुनौती दी। यह चुनौती उन्होंने कलात्मकता और बाजार, दोनों ही स्तरों पर प्रस्तुत की और सफल भी रहे। बावजूद इसके, कि विचारों, विश्वासों और बाजार पर अगड़ी जातियों का कब्जा था, लोक कलाकारों ने अपनी कला में नवीन प्रयोग किये, अपनी प्रतीकात्मकता विकसित की और उनके लिए अपना बाजार गढ़ लिया। यह उनके लिए दिवास्वप्न के साकार होने से कम नहीं था।
अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि दलित जाति के कलाकारों, जिन्हें मैं वास्तविक लोक कलाकारों की संज्ञा देता हूं, की अपनी कोई कला परंपरा नहीं थी। यह ब्राह्मण और कायस्थ जाति के कलाकारों के प्रभाव से पैदा हुई। इस संदर्भ में जनसामान्य के उस विश्वास की चर्चा यहां जरूरी है जिसके मुताबिक भगवान राम-जानकी विवाह के समय राजा जनक ने मिथिला की दीवारों को चित्रों से सजाने का आदेश दिया था। जनक जितने कृपालु थे, उसे देखते हुए यह कहना गलत होगा कि उनका आदेश सिर्फ ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज के लिए रहा होगा। तब दलितों ने भी अपने घर चित्रों से सजाएं होंगे और उनके चित्र सवर्ण समाज के विश्वासों पर आधारित होंगे, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है।
आशय यह कि दलित जातियों की भी अपनी चित्र परंपराएं रही होंगी। लेकिन, दलितों जातियों की चित्र परंपराओं की चर्चा न तो इतिहास में मिलती है और न ही रिसर्च स्कॉलर, लेखक या प्रबुद्धजन उनकी विस्तृत चर्चा करते हैं या करना चाहते हैं। ऐसा क्यों, यह भी अध्ययन का विषय है। लेकिन, दलित जाति के कलाकारों या लोक कलाकारों के चित्रों और ब्राह्मण एवं कायस्थ जाति के परंपरागत चित्रकारों द्वारा बनाये जा रहे चित्रों को देखने से यह बात स्पष्ट होती है कि लोककलाकारों के चित्रों में ही विषयों की विविधता और तकनीक में नवीन प्रयोग की जिजीविषा मिलती हैं। इसकी वजह उनका वंचितों का समाज होना भी है, जिन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए विविध और नवीन माध्यम गढ़े और उन माध्यमों में अनेकानेक प्रयोग किये। उनके प्रयोगों के भाव ब्राह्मणी परंपराओं के समानांतर और प्रतिरोध में प्रकट होते हैं।
मसलन, 70 के दशक में जब मिथिला के सवर्ण जातियों की चित्रकला पर देवी-देवताओं का प्रभुत्व था, अपवादस्वरूप कुछ चित्रकारों को छोड़कर, लोकचित्रकारों ने चित्र बनाने हुए अपने देवी-देवताओं को गढ़ा, अपने लोक-विश्वासों, अपनी लोक-परंपराओं पर चित्र बनाये और उनमें पारिस्थितिकी व पर्यावरण जैसे विषयों को प्रमुखता दी। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तो यह है कि उनके चित्रों में लोकविश्वासों से जुड़ी नायिकाएं प्रमुखता से स्थान पायीं, जिन्हें हम ब्राह्मणी सामाजिक-साहित्यिक और कला परंपराओं के बरक्स देख सकते हैं।
मिथिला चित्रकला का लोक: संक्षिप्त इतिहास
मिथिला चित्रकला का पहला स्पष्ट प्रमाण 1934 में सामने आता है जब भूकंप की विभीषिका से तबाह मधुबनी में रिलीफ प्रोग्राम के तहत बिटिश अधिकारी विलियम जी. आर्चर दौरा करते हैं। आर्चर एक ब्राह्मण परिवार के घर की ध्वस्त चहारदीवारी पर बनाये गए भित्ति चित्रों को देखते हैं, उसकी फोटोग्राफी करते हैं और फिर अनेक गांवों में प्रत्यक्ष हुए चित्रों की फोटोग्राफी करते हैं। 1994 में प्रकाशित अपनी पुस्तक आर्चर एंड आर्चर में उन्होंने लिखा कि उन चित्रों को देखने से पहले, उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं देखा जो सहज भाव से यूरोप की आधुनिक कला मान्यताओं के इतना समक्ष हो। उन्होंने इसे मैथिल चित्रकला का नाम दिया। 1949 में मार्ग पत्रिका में उन्होंने मैथिल पेटिंग पर लेख लिखा और कुछ चित्र प्रकाशित किये जिसने कला प्रेमियों और सरकार तक का ध्यान आकर्षित किया।
1966 में उत्तर भारत में आये अकाल के बाद ऑल इंडिया हैंडीक्राफ्ट बोर्ड की डायरेक्टर पुपुल जयकर ने इंदिरा गांधी की प्रेरणा से मधुबनी में राहत का काम शुरू किया। इसके तहत महिलाओं को कागज पर चित्र बनाने थे और बदले में उन्हें आर्थिक मदद दी जाती। इसकी जिम्मेदारी मुंबई के कलाकार भास्कर कुलकर्णी को सौंपी गयी और शुरुआती दिक्कतों के बाद भास्कर कुलकर्णी अपने कार्य में सफल रहे। भास्कर कुलकर्णी ब्राह्मण और कायस्थ जाति के कलाकारों के साथ-साथ दलितों की बस्तियों में भी गये। इससे मधुबनी कला अपनी चहारदीवारी से बाहर निकली जिसमें दलित जाति के लोक कलाकारों का भी प्रतिनिधित्व था।
इस बीच 1972 से 78 के बीच मधुबनी चित्रकला और जितवारपुर गांव के दुसाध परिवारों में बनाये जा रहे चित्रों के अध्ययन और उन पर फिल्म बनाने के उद्देश्य से सीता देवी के घर आयी जर्मन एंन्थ्रोपोलॉजिस्ट एरिका मोजर और दुसाध जाति की कलाकार चानो देवी की मुलाकात होती है। इस मुलाकात के बारे में स्वर्गीय चानो देवी के पति स्वर्गीय रौदी पासवान का कहना था कि एरिका मोजर से मिलने से पहले चानो और उनके समाज की कुछ महिलाएं राम-सीता, राधे-कृष्णा, दुर्गा, काली आदि देवी-देवताओं के चित्र बनती थीं। एरिका मोजर ने उन्हे समझाया कि उन्हें उनके समाज के देवी-देवताओं और रीति-रिवाज का चित्र बनाना चाहिए। एरिका ने चानो के देह पर गुदे गोदना को देखा और उसे कागज पर बनाने के लिए कहा। उसके बाद चानो ने गोदना को कागज पर उतारना शुरू किया, राजा सलहेस की कथा पर आधारित चित्र बनाए और उसके बनाये चित्र इतने लोकप्रिय हुए कि जल्दी ही आसपास की तमाम चित्रकारों ने उस विषय और उनकी तकनीक को अपना लिया।
चानो देवी की ही समकक्ष चमार समाज की यमुना देवी अपने चित्रों में दोहरी लाइनों का प्रयोग करती थी और उनके मध्य काले रंग के अनगढ़ बिंदुओं को आरोपित करती थीं। बाद में उन्होंने कृत्रिम रंगों का प्रयोग भी किया। जितवारपुर की लोक चित्रकार शांति देवी ने यमुना देवी की तकनीक को अपना और विषयों की विविधता की वजह से लोकप्रिय होती चली गयीं। 80 के दशक की शुरुआत में यमुना देवी ने एक नयी तकनीक विकसित की जिससे गोबर शैली की शरुआत मानी जाती है। 70-80 के दशक में दुसाध महिला चित्रकारों के बीच एक और तकनीक उपस्थित थी जिसे गेरू शैली कहा जाता है, हांलाकि इस शैली के चित्रों की बाजार में मांग नहीं होने से जल्दी ही यह मृतप्राय हो गयी।
लोक चित्रकला की प्रमुख शैलियां
मिथिला चित्रकला की छह शैलियां ज्ञात हैं। उनमें तीन शैलियां परंपरागत शैलियां है जबकि तीन लोक शैलियां। परंपरागत शैलियां में कचनी, भरनी और तांत्रिक चित्र शैली हैं, जबकी लोक शैलियों में गोदना, गोबर और गेरू शैली शामिल हैं। मिथिला चित्रों का इस शैलीगत विभाजन पर भी गंभीर अध्ययन की जरूरत है क्योंकि इससे जुड़े अनेक मत है और उन मतों की पुष्टि हेतु अनेक तर्क। प्रश्न यह भी है कि क्या किसी अन्य विधि से भी मिथिला चित्रकला में शैलियों पारिभाषित की जा सकती हैं? यहां चर्चा लोकप्रचिलत लोक शैलियों की:-
गोदना शैली
मिथिला लोकचित्रकला की सबसे प्रमुख शैली गोदना की शुरुआत जर्मन एंथ्रोपोलॉजिस्ट एरिका मोजर की प्रेरणा से हुई, ऐसा कहा जाता है। चानो एरिका के संपर्क में आयीं और एरिका ने ही चानो को अपने देह पर गुदे गोदना के साथ-साथ अपनी देवी-देवताओं एवं परंपराओं के चित्र बनाने के लिए प्ररित किया, ताकि उनके परिवारों को सरकार द्वारा चलायी जा रही योजना का लाभ मिल सके। चानो ने उनकी बात मानते हुए कई गोदना चित्र बनाए और उनमें राजा सलहेस को स्थापित किया। जितवारपुर के तमाम वरिष्ठ कलाकारों के मुताबिक चानो के चित्रों को हैंडीक्राफ्ट बोर्ड ने हाथों-हाथ खरीद लिया था जिससे प्रेरित हो अन्य महिलाओं ने उनके जैसे चित्र बनाने शुरु किये और इस तरह गोदना शैली शुरू हुई और फिर लोकप्रिय होती चली गयी।
गोदना शैली की विशेषता विशिष्ट शैली में चित्रांकण है जिसमें केंद्रीय विषय के तौर पर दुसाधों-पासवानों के देवता राजा सलहेस हैं और उनके चित्रों को वृक्षों, फूल-पत्तियों की क्यारियों, हाथी-घोड़े और आदि से अलंकृति किया जाता है। चानों ने जिन गोदना चित्रों को बनाया, उसके केंद्र में राजा सलहेस, मोतीराम, बुधेसर, चंद्रावती, मालिन बहनों के चित्र थे। फूल-पत्तियों की क्यारियों और हाथी-घोड़े के चित्रों से उसे अलंकृत किया जाता था। आकृतियां एक रेखीय और ज्यामीतीय आकारों पर आधारित होती थीं।
गोबर शैली
गोबर शैली की शुरुआत का श्रेय यमुना देवी को जाता है। यमुना देवी चमार समुदाय से थी। उन्होंने मुख्य रूप से अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों पर आधारित चित्र बनाये जिनमें पशुओं की छाल निकालने से लेकर दाह संस्कार जैसे विषय शामिल थे। बाद में उन्होंने गोदना शैली को अपनाते हुए राजा सलहेस और उनसे जुड़े लोक-विश्वासों पर भी चित्र बनाएं। यमुना देवी ने अपनी चित्रकला में कई प्रयोग किये। जैसे, काली मोटी लाइनों का प्रयोग। यमुना देवी द्वारा बनाये गये शुरुआती चित्रों में काली मोटी लाइनों का प्रयोग खूब मिलता है और उनके चित्रों की यह विशेषता किसी का भी ध्यान आकर्षित करती है। इसके अलावा लोक चित्रकारों में सबसे पहले बांस की तूलिका का प्रयोग, चित्रांकण में दोहरी रेखाओं का प्रयोग, दोहरी रेखाओं के बीच कालिख से बने काले रंग का ठोपा लगाने जैसे अनेक प्रयोग यमुना देवी ने किये। बाद में उन्होंने भरनी शैली में भी चित्र बनाए, लेकिन उनमें भी उन्होंने दोहरी लाइनों और काले रंग का ठोपा लगाना जारी रखा।
सत्तर के दशक के अंत में यमुना देवी ने एक सफल प्रयोग किया। उन्होंने गोबर के पानी का प्रयोग कागज पर किया। जब कागज सूखकर कड़क हो जाती, तब वह कच्ची भित्ती जैसा दिखती थी। यमुना देवी ने उस पर चित्रांकण की शुरुआत की। आकृतियों में रंग भरने के लिए यमुना देवी ने कृत्रिम रंगों के साथ-साथ होली के रंगों एवं गुलाल का प्रयोग किया जिससे उनके चित्रों में एक तरह का चटकीलापन भी आया। यमुना देवी के कई चित्रों को उनकी ब्लॉकनुमा आकृतियों की वजह से भी पहचाना जा सकता है और उसे भी उनका एक प्रयोग कहा जा सकता है। हालांकि उन्होंने ब्लॉकनुमा आकृतियों वाले चित्रों को कम बनाये। बहरहाल, यमुना देवी की चित्रशैली लोकप्रियता इतनी तेजी से बढ़ी कि दुसाध और चमार जाति के कलाकारों के बीच अस्सी के दशक के मध्य तक उनका प्रयोग सामान्य हो गया। ऐसा इस वजह से भी हुआ कि गोबर शैली में बने यमुना देवी के चित्रों की प्रदर्शनी जापान तक में लगी और उन चित्रों को काफी सराहना मिली।
यमुना देवी की शैली को लहरियागंज के लोक चित्रकार शिवन पासवान की पत्नी शांति देवी ने और अधिक ऊंचाई दी। शांति देवी दुसाध चित्रकारों में सबसे ज्यादा प्रयोगधर्मी मानी जाती थीं। जल्दी ही उन्होंने भी चित्र बनाने की अपनी शैली विकसित की जिसमें वो कागज को गोबर के पानी में भिंगोती नहीं थी, उससे सिर्फ बॉर्डर बनाती थी और उसी बॉर्डर के भीतर चित्र बनाती थीं। अपने चित्रों में उन्होंने गेरू, प्राकृतिक और सिंथेटिक सभी तरह के रंगों का प्रयोग किया। मिथिला की लोक चित्रकारों में चित्रांकण के लिए ब्रश का प्रयोग करने वाली वह पहली महिला चित्रकार के रूप में जानी जाती हैं। विषयों की विविधता को लेकर जिस तरह से महापात्र ब्राह्मणों सीता देवी और कर्ण कायस्थ परिवारों में गंगा देवी के समक्ष कोई नहीं टिकता है, उसी तरह से लोक चित्रकारों में शांति देवी के समक्ष कोई नहीं दिखता है।
गेरू शैली
यह दुसाध जाति के महिलाओं के द्वारा विकसित की गई चित्र शैली थी, जिसमे चित्रकारी के लिए गोबर शैली में ही कागज को तैयार किया जाता था। उस पर काले रंग की मोटी रेखाओं से आकृतियों को गढ़ा जाता था और प्राकृतिक रंगों के संयोजन से उन्हें खूबसूरत बनाया जाता था, जिसमें गेरू या भूरे रंग की बहुलता होती थी। उसी को हल्का या गाढ़ा कर चित्रों में रंगों का प्रभाव भी पैदा किया जाता था, जो उसे अन्य चित्रों से अलग करता है। गेरू शैली की प्रमुख चित्रकारों में भगवती देवी का नाम प्रमुख है जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने मिथिला की लोक-चित्रकला में हुरार जैसे काल्पनिक जीव को उतारा और जिसे तमाम चित्रकारों ने अपना लिया। अब यह शैली लुप्तप्राय दिखती है।
लोक-चित्रकला में आकृतियों का स्वरूप
मिथिला की लोक चित्रों के आधार, परंपरागत चित्रों के समान ही ज्यामितीय आकार में होते हैं, यानी वर्गाकार, आयताकार या वृताकार। आधार तैयार होने के बाद चित्र लिखने का क्रम केंद्र से ऊपर की तरफ या या ऊपर से नीचे शुरू होता है, जिसमें आकृतियों को श्रंखलाबद्ध गढ़ा जाता है। आकृतियां भी ज्यामितीय आकार लिये होती हैं। चंद्र, अर्धचंद्र, वृत, अर्धवृत एवं बेलनाकार आदि। जैसे-
फूल बनाने के लिए बड़े-छोटे वृतों का प्रयोग, पुरुष या महिला का सिर, पैर और धड़ बनाने के लिए वृत या बेलनाकार में रेखाओं का प्रयोग, जानवरों की आकृतियां भी उसी पैटर्न में बनती हैं। पूरी कलाकृतियों में आकृतियों का दुहराव सामान्य तौर पर दिखता है।
आकृतियां मुख्य रूप से काले रंग से बनायी जाती हैं और पूरा चित्र तैयार हो जाने के बाद उन आकृतियों में रंग भरा जाता है। चित्रों में आज रंगों को लेकर विविध प्रयोग देखने को मिलते हैं। पहले मुख्य रूप से प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता था। कलाकार स्वयं रंग बनाते थे। जैसे- हरे रंग को गुलमोहर की पत्तियों या सीम पत्तियों को पीसकर या उबालकर बनाया जाता था, पीले रंग को लिए हरसिंगार के डंठल से या हल्दी पीस कर, लाल रंग को खैर के पेंड़ से, गुलाबी रंग को गुलाब की पंखुड़ियों को उबालकर और जिस भी तरह की स्थानीय उपलब्धता हो। नीला रंग सिक्कट से, काला रंग ढिबरी की लौ से निकलने वाली कालिख से बनाया जाता था। हलका भूरा रंग गोबर के पानी में गोंद को मिलाकर तैयार किया जाता था। कागज पर रंगों के पैटर्न के जरिए अतिरिक्त प्रभाव उत्पन्न किया जाता था। इसके लिए रंगों का आच्छादन भी किया जाता था यानी एक के बाद एक रंगों पर उसकी अनेक परत चढ़ायी जाती थी।
मिथिला की लोक चित्रकला का वर्तमान
मिथिला की लोक चित्रकला पर आज यमुना देवी, चानो देवी और शांति देवी द्वारा विकसित शैलियों का स्पष्ट प्रभाव दिखता है, हालांकि अब विषय के स्तर पर लोक चित्रकला और परंपरागत चित्रकला का भेद भी मिटता हुआ दिखता है। शांति देवी के मुताबिक “एक समय था जब उन्हें या दलित चित्रकारों को सीता-राम, राधे-कृष्ण, रामायण, रास और अन्य देवी-देवताओं के चित्र बनाने से रोक दिया जाता था, रोकने वालों में शासन-प्रशासन के अफसर तक शामिल थे लेकिन अब यह कहां संभव है। आज कलाकारों के समक्ष वृहद बाजार उपलब्ध है और बाजार की कसौटी पर जो खरा उतरेगा, उसी की मांग होगी”। लेकिन, उर्मिला देवी पासवान, उत्तम पासवान और शांति देवी समेत तमाम वरिष्ठ लोकचित्रकार, आज लोकचित्रकारों की उस प्रवृति से चिंतित भी दिखते हैं जिसमें चित्रों का उत्पादन किया जा रहा है और वह धीरे-धीरे परंपरागत कला का रूप धारण करती दिख रही है। उर्मिला देवी पासवान कहती हैं कि दलितों की चित्रकला में नवीन शैलियों का प्रयोग और विषयों की विविधता की प्रवृति अगर चली गयी तब उनकी कला की विशिष्टता भी चली जाएगी। वैसे भी जितवारपुर गांव अब लोक चित्रकला और परंपरागत चित्रकला की फैक्ट्री में तब्दील होता दिख रहा है।
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संदर्भ
http://www.open.ac.uk/researchprojects/makingbritain/content/william-archer
http://www.mithilapaintings-eaf.org/history.html
David L. Szanton, Mithila Painting: The Dalit Intervention
W.G. Archer, ‘Maithil Painting’, Marg, 3:3, 1949, 24-33.
Neel Rekha (2011), “Salhesa Iconography in Madhubani Paintings: a case of Harijan Assertion”, Folklore and Folkloristics; Vol. 4, No. 2 (December 2011)
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