Prof. Jai Krishna Agarwal
Former Principal I College of Arts and Crafts, University of Lucknow,
Lucknow, UP
Blog
Regarded as one of the major Indian printmakers of post independent era. Widely travelled, he has exhibited his creations globally, associated with numerous social, cultural and
academic institutions.
लखनऊ कला महाविद्यालय में प्रिंट-मेकिंग के प्रारंभिक दिनों में छात्रों के बीच इस माध्यम के प्रति जिज्ञासा उन्हें हतोत्साहित करने के उपरांत भी बढ़ती गई। अनेक छात्रों में तो इस माध्यम को लेकर एक प्रकार से जुनून ही सवार हो गया था। मनोहर लाल उन जुनूनी छात्रों के एक प्रकार से अग्रज रहे थे। सन् 1963 में प्रिंट-मेकिंग के आरंभ के साथ ही मनोहर ने महाविद्यालय में एक छात्र के रूप में प्रवेश लिया। अगले वर्ष ही प्रिंट-मेकिंग पाठ्यक्रम का एक हिस्सा बन गई। प्रिप्रेट्री के दो वर्ष सभी पाठ्यक्रमों में एक साथ प्रशिक्षण दिया जाता था। प्रिंट-मेकिंग और पॉट्री वैकल्पिक विषय थे। आरंभ में अधिकतर कमर्शियल आर्ट के छात्रों ने ही प्रिंट-मेकिंग का चयन किया। ललित कला के छात्रों में उनकी कार्य शैली पर प्रिंट-मेकिंग का प्रतिकूल प्रभाव पढ़ने की संभावना का प्रचारित किया जाना उन्हें हतोत्साहित कर रहा था। इसके उपरांत भी मनोहर और कुछ अन्य छात्रों ने प्रिंट-मेकिंग का विकल्प ही चुना। धीरे-धीरे जब उन छात्रों के प्रयासों के परिणाम सामने आने लगे, तब विरोध भी कम होता गया। परोक्ष रूप से ही सही, किन्तु इस माध्यम को स्वीकृति मिलना शुरू हो गई।
मनोहर कुछ समय तक लीनो और वुडकट तक ही सीमित रहे, किन्तु आगे बढ़ते हुए लीथोग्राफी कोलोग्राफ और मेटल प्लेट एचिंग में प्रयोगात्मक कार्य करने लगे। उन दिनों साधनों की सीमित उपलब्धता के कारण बहुत बड़े आकार के प्रिंट नहीं बनाए जाते थे। मनोहर ने स्पून रबिंग करके बड़े वुडकट बनाना शुरू किया। कोलोग्राफ और एचिंग प्रिंट का आकर प्रेस छोटा होने के कारण 12 इंच तक ही सीमित रखना पड़ता। वैसे भी उन दिनों अधिकतर आर्थिक सीमाओं के कारण छात्र कला सामग्री पर अधिक खर्च नहीं कर पाते थे। सन् 1971 में पोस्ट डिप्लोमा करते समय लीथोग्राफी और इटैग्लियो प्रोसेस में मनोहर ने अनेक प्रयोगात्मक कार्य किये जिससे उनका चयन ब्रिटिश काउंसिल स्कॉलरशिप पर लन्दन जाकर अध्ययन करने के लिए हुआ। साथ ही उच्चस्तरीय अध्ययन के लिए उन्हें नेशनल कल्चरल स्कॉलरशिप भी प्रदान की गई। मनोहर ने लन्दन न जाकर मेरे भी गुरू रहे श्री सोमनाथ होर के निर्देशन में शान्ति निकेतन जाने का विकल्प ही चुना। वास्तव में मनोहर के इस निर्णय से उन्हें बड़ा लाभ हुआ। शान्ति निकेतन में दो वर्षीय प्रवास के मध्य मेटल प्लेट एचिंग, इनग्रेविंग और लीथोग्राफी में उन्होंने जो प्रयोगात्मक कार्य किये, वह तकनीकी उत्कृष्टता के साथ उनकी अलग कार्यशैली और पहचान बनाने में भी सहायक सिद्ध हुए।
लखनऊ लौटने पर सन् 1976 में स्थानीय कला महाविद्यालय में प्रिंट-मेकिंग के अध्यापन कार्य के लिए उनकी नियुक्ति हो गई। तदोपरांत मनोहर ने बड़ी गर्मजोशी से काम शुरू कर दिया। उनके कार्य राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित होने लगे। मनोहर की प्रयोगत्मक प्रिंट-मेकिंग में सदैव ही बड़ी रुचि रही थी जो अध्यापन कार्य में बड़ी सहायक सिद्ध होती रही। प्रिंट मेकिंग की तकनीकी जटिलताओं से खेलने में मनोहर को बड़ा आनंद आता था। उनकी नियुक्ति हो जाने से प्रिंट-मेकिंग विभाग को विकसित करने में मुझे बड़ी सहायता मिलती रही। अपने कार्यकाल में अनेक उतार-चढ़ावों का हमने मिलकर सामना किया। किन्तु, कला महाविद्यालय की अंदरूनी उठक-पटक और प्रदेश के कलाजगत की स्थिति से निराश हो संवेदनशील कलाकार मनोहर अपने आप में सिमटते चले गये। यह वास्तव में दुखद रहा। अनेक अन्य उदयीमान कलाकार भी हतोत्साहित हुऐ जिसके लिए कहीं-न-कहीं उपयुक्ता वातावरण की कमी ही रही, जो कलाकर्म के लिये सृजनात्मक ऊर्जा बनाए रखने के लिए आवश्यक थी।
मनोहर आज अपनी ही बनाई दुनिया में खोए रहते हुए कभी-कभार रेखांकन करते रहते हैं। जब वह पूरी तरह से सक्रिय थे, उन्होंने अपना श्रेष्ठ देने का भरसक प्रयत्न किया था और अपने आप को सिद्ध भी किया था।