Prof. Jai Krishna Agarwal
Former Principal I College of Arts and Crafts, University of Lucknow,
Lucknow, UP
Blog
Regarded as one of the major Indian printmakers of post independent era. Widely travelled, he has exhibited his creations globally, associated with numerous social, cultural and
academic institutions.
पद्मश्री श्याम शर्मा विशेष । थोड़ा शर्मीला-सा और मितभाषी एक छात्र मेरे पास आता है और प्रिंट-मेकिंग में पोस्ट डिप्लोमा करने की इच्छा व्यक्त करता है। पहले तो मुझे कुछ अजीब-सा लगा कि कमर्शियल आर्ट का डिप्लोमा करनेवाला यह छात्र प्रिंट-मेकिंग में क्या काम कर पायेगा। मैंने कहा भी कि भाई प्रिंट-मेकिंग इलस्ट्रेशन नहीं है। किसी एडवरटाइजिंग एजेन्सी को ज्वाइन करना तुम्हारे लिये श्रेयकर होगा, पर उसने तो अपने मन में प्रिंट-मेकर बनने की ठान ली थी। आखिरकार उसने ग्राफिक कार्यशाला में अपना आसन जमा ही दिया।
उन दिनों लखनऊ के कला महाविद्यालय में लीथोग्राफी की सुविधा तो पहले ही से थी, किन्तु आचार्य सुधीर रंजन ख़ास्तगीर द्वारा प्रिंट-मेकिंग के सृजनात्मक पक्ष को महत्व देते हुऐ उसे चित्रकला के साथ जोड़ कर एक वैकल्पिक माध्यम की तरह अपनाया गया। साथ ही इस विषय के लिये एक अलग प्रवक्ता के पद का सृजन भी किया गया। वास्तव में यह एक अच्छी पहल थी, किन्तु चित्रकला के छायावाद, वाश पेटिंग की छत्रछाया में इसे पनपने में थोड़ी कठिनाई अवश्य हुई। सच कहा जाय तो एक प्रकार से प्रिंट-मेकिंग का विरोध ही हुआ।
सन् 1963 में इस विषय के पहले अध्यापक के रूप में मुझे नियुक्त किया गया था। उस समय तक खास्तगीर साहब शान्ति निकेतन जा चुके थे। विरोध के रहते इस पद को ललित कला से हटाकर क्राफ्ट विभाग के अधीनस्थ कर दिया गया। साथ ही मेरी अर्हताओं को ध्यान में रखते हुए मुझे स्टिल लाइफ और स्केचिंग आदि सिखाने का कार्य भार सौंपा गया। उस समय मुझे लगा कि प्रिंट-मेकिंग की भ्रूण में ही हत्या हो जायगी। किन्तु अगले वर्ष ही विद्यालय में नेशनल डिप्लोमा लागू हो जाने से सृजनात्मक प्रिंट-मेकिंग को अपना वांछित स्थान स्वतः मिल गया। नए ललित कला के पाठ्यक्रम में प्रिंट-मेकिंग का एक विषय के रूप में सम्मिलित हो जाने के उपरांत भी इसके विरोध में कमी नहीं आई और बहुत समय तक साधनों के अभाव में वुडकट और लीनोकट तक ही सीमित रहना पड़ा। यही समय था जब वह शर्मीला-सा छात्र प्रिंट-मेकिंग में पोस्ट डिप्लोमा करने आया।
मेरी समस्या यह थी कि मेटल प्लेट एचिंग जो एक महत्वपूर्ण माध्यम था, उसका प्रशिक्षण में नहीं दे पा रहा था और मैंने उसे आगाह भी किया। मुझे आश्चर्य तब हुआ जब उस छात्र ने कहा सृजन तो सृजन होता है, माध्यम कोई भी क्यों न हो। वह छात्र कोई और नहीं स्वयं श्याम शर्मा ही था जिसने वुडकट से अपने सृजन की यात्रा आरम्भ की और वर्षों से निरंतर इसी विधा में सृजनरत रहते हुऐ अपने को एक सफल प्रिट-मेकर के रूप में स्थापित कर लखनऊ के कला महाविद्यालय का मान बढाया। श्याम बहुत अधिक समय तक लखनऊ में नहीं रुक सका। किन्तु कला महाविद्यालय में प्रिंट-मेकिंग के शुरूआती दिनों में उनके और मनोहर लाल आदि जैसे कर्मठ छात्रों से इस विधा को अपनी जगह बनाने में बड़ी सहायता मिली।
सन् 1941 उत्तर प्रदेश में जन्मे श्याम शर्मा आज एक ख्यातिप्राप्त प्रिंट-मेकर हैं। उन्होंने राजकीय कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ से 1966 में प्रशिक्षण प्राप्त कर पटना को अपनी सृजनस्थली बनाया। आज भी वहीं रहते हुऐ वुडकट माध्यम में नित नये प्रयोग कर रहे है और इस विधा को विस्तार देने में संलग्न। उनके कार्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित होते रहे हैं और अनेक अवसरों पर उन्हें विभिन्न पुरस्कारों आदि से सम्मानित किया जा चुका है। पिछले वर्ष उन्हें भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री सम्मान से नवाज़ा गया जो हम सब के शेष रूप से लखनऊ के कला मंहाविद्यालय के लिये बड़े गर्व की बात है।