मंजूषा कला का वर्तमान एवं भविष्य: एक आत्मपरीक्षण

Manjusha painting by Kala Guru Shri Manoj Pandit, Bhagalpur, Bihar, 2015 © Folkartopedia library
Manjusha painting by Kala Guru Shri Manoj Pandit, Bhagalpur, Bihar, 2015 © Folkartopedia library

सुनील कुमार I कला शोधार्थी, लोक कलाओं के अध्ययन में विशेष रूची, संस्थापक-फोकार्टोपीडिया

दुनिया के महानतम चित्रकारों में शामिल स्विस-जर्मन चित्रकार पाउल क्ली ने कला पर एक बातचीत में कहा था कि ‘हम में अभी भी अन्तिम शक्ति की कमी है, क्योंकि हमें संपोषित करने वाली कोई संस्कृति नहीं है’। पाउल क्ली के वक्तव्य की पृष्ठभूमि अलग थी, उसका संदर्भ अलग था। बावजूद इसके, उनका वक्तव्य न केवल भारतीय आधुनिक कलाओं बल्कि लोक-कलाओं की वर्तमान स्थिति पर भी सटीक बैठता है। बिहार की मंजूषा कला भी उनमें से एक है।

इससे पहले कि मंजूषा कला के वर्तमान पर चर्चा की जाए, बात जगदीश स्वामीनाथन की, जिन्होंने भारतीय लोक-कलाओं को आधुनिक कलाओं के समकक्ष देखा और उन्हें समान रूप से प्रोत्साहन दिया। स्वामीनाथन ने भी पाउल क्ली के उपरोक्त वक्तव्य का उद्धरण देते हुए अपने लेख ‘अस्मिता और प्रासंगिकता’ में लिखा है कि ‘भारत का आधुनिकतावादी आन्दोलन पाश्चात्य आन्दोलन के ही पीछे-पीछे गया है…कभी-कभार भारतीय परंपरा को खोजने तथा उस पर बल देने की अंध-देशभक्तपूर्ण प्रतिक्रियाएं हुई हैं, किन्तु ऐसे प्रयास एक वास्तविक दृष्टि के खुलने के कार्य में पूरी तरह से नुकसानदेह और व्यर्थ ही रहे हैं’। स्वामीनाथन आगे लिखते हैं, ‘परंपरा की कर्मकाण्डी समझ ने हमारे चित्रकारों की नकली आधुनिकता को मजबूत ही किया है। बेशक इसमें बाजार की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। फिर विकास के दूसरे क्षेत्रों में भी समान बात देखी गई, जो विचारधारा आधुनिक तकनीकी सभ्यता को चला रही है, उसे कमोबेश सबके लिए जायज मान लिया गया’।

लगभग तीन दशक पूर्व स्वामीनाथन ने आधुनिक और लोक-कलाओं की तत्कालीन परिस्थितियों पर टिप्पणी की थी। उनकी टिप्पणी मंजूषा कला को लेकर नहीं थी। संभवत: उनकी टिप्पणी में छुपी चिंताओं की परिधि में आधुनिक कलाएं व मध्यप्रदेश की लोक-कलाएं रही हों। परंतु, क्या उनकी चिंताओं की परिधि से बिहार की लोक-कलाओं, विशेषकर लोक-चित्र-कलाओं का वर्तमान बाहर है? परंपरा की कर्मकाण्डी समझ ने लोक-कलाओं में जिस नकली आधुनिकता को मजबूत किया है, जिसमें बाजार की बड़ी भूमिका है, क्या उसकी छाया मंजूषा और मधुबनी कला पर नहीं दिखती है? स्वामीनाथन जिसे भारतीय आधुनिकतावादी आन्दोलन की प्रवृति कह रहे थे, क्या उस प्रवृति से बिहार की लोक-कलाएं अछूती हैं ?

स्वामीनाथन के कथन में चार तत्वों की प्रधानता है। पहला, परंपरा की कर्मकाण्डी समझ, दूसरा चित्रकारों की नकली आधुनिकता जिसे भारत के आधुनिकतावादी आन्दोलनों की प्रकृति के नजरिए से देखने की जरूरत है, तीसरा बाजार की भूमिका और चौथा, वह विचारधारा जिससे आधुनिक तकनीकी सभ्यता संचालित होती है। मैं मंजूषा कला के वर्तमान को इन्हीं चार तत्वों को ध्यान में रखते हुए अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन उससे पहले कुछ अपनी बात।

किसी भी कला विधा के वर्तमान पर लिखना अत्यंत जोखिम भरा कार्य है। खासतौर पर तब, जब उसमें सरकार, गैर-सरकारी संस्थाओं, गैलरियों और पूंजीपतियों का निवेश लगातार बढ़ रहा हो। यह जोखिम तब और बढ़ जाता है, जब उसकी जिम्मेदारी एक युवा लेखक पर हो। इसलिए ‘मंजूषा कला के वर्तमान’ पर लिखने से पूर्व मैंने मंजूषा कला के वरिष्ठ कलाकारों, विशेषज्ञों, अंग क्षेत्र के विद्वानों और उसे प्रोत्साहन दे रहे समाजसेवियों से विस्तार से बातचीत की। उस बातचीत में उन्होंने मंजूषा कला के वर्तमान को लेकर अपनी चिंताएं स्पष्ट रूप से व्यक्त कीं। मैं स्वयं बिहार की लोक-कलाओं से लगातार साक्षात्कार कर रहा हूं और मेरा यह स्पष्ट मानना है कि हमें अपनी कलाओं की सार्थकता और अर्थहीनता का परीक्षण तटस्थ रूप से करना होगा। तभी हम उसके वर्तमान को भी ज्यादा स्पष्ट रूप से देख पाएंगे।

मंजूषा कला के वर्तमान की चर्चा से पूर्व उसके विषय वस्तु की चर्चा आवश्यक है। इससे परंपराओं की कर्मकाण्डी समझ का रहस्य भी खुल सकेगा। मंजूषा चित्रकला के मूल में बिहुला-विषहरी की लोक-गाथा है, जिसके मुताबिक शिव की पांच मानस पुत्रियां, जो नाग कन्याएं हैं, पृथ्वी पर पूजित होने के उद्देश्य से चंपानगर के शिवभक्त चांदो सौदागर के समक्ष उपस्थित होती हैं। चांदो उनकी पूजा से इनकार करता है और उन्हें अपमानित करता है। इससे गुस्साई नाग कन्याएं जिन्हें विषहरी कहा जाता है, वह चांदो को श्री-हीन, संतान-हीन कर देती हैं। इसी क्रम में चांदो की सबसे छोटी बहु बिहुला अपने कोहबर घर में ही विधवा हो जाती है। वह अपने पति बाला लखिंदर को जीवित करने का संकल्प लेती है और विषहरी की ही मदद से अपना संकल्प पूरा करती है। बिहुला के प्रण से विवश हो और महादेव की प्रेरणा से चांदो सौदागर बाएं हाथ से विषहरी की पूजा करता है। इस प्रकार विषहरी बहनें पृथ्वीलोक में पूजित होती हैं।

इस लोक-गाथा के विविध प्रसंग यथा सोनदह तालाब और विषहरी, पार्वती से विषहरी का परिचय, विषहरी का महादेव के सम्मुख जाना और पृथ्वी पर पूजा पाने की लालसा व्यक्त करना, महादेव का उन्हें चांदो के पास भेजना, चांदो का विषहरी को अपने दंड से डराना, विषहरी द्वारा चांदो का श्री-संतान-हीन करना, बाला और बिहुला का विवाह, कोहबर घर में मनियार नाग द्वारा बाला का दंश, बाला की मृत्यु पर विलाप करती बिहुला, मंजूषा में बाला के शव के साथ बिहुला का इंद्रासन गमन, गोदा घटवार द्वारा बिहुला के संकल्प में खलल, बिहुला-टुन्डी राक्षसी का मिलना, टुन्डी राक्षसी के हाथ में बच्चा और हड्डी, मैना विषहरी का आना, विषहरी बहनों का अपने-अपने प्रतीकों के साथ दिखना, इंद्रासन में नृत्य करती बिहुला और चांदो द्वारा विषहरी की पूजा आदि की कथाएं और उसका कर्मकांड मंजूषा चित्रों पर उतरते हैं। अपने मिथकीय और कर्मकांडीय स्वरूप में मंजूषा कला सर्प पूजा और अनुष्ठानिक अभिव्यक्तियों से जुड़ा है। भारत में ज्यादातर लोक-कलाएं कभी मिथक के रूप में तो कभी अनुष्ठान के रूप में प्रकट होती हैं। इनका भारत की श्रमशील कृषक समाज से गहरा संबंध है और उसी संबंध की वजह से अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति के बावजूद उनकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों में अनेक समानताएं मिलती हैं। इनमें प्रधान है तीन मूल रंगों की उपस्थिति। मूल रंग यानी गुलाबी या लाल, पीला और हरा। मंजूषा में इन्ही का प्रयोग होता है। हालांकि, मंजूषा कला के वरिष्ठ साहित्यकार जे.सी. शर्मा लोक-कला में नीले रंग की उपस्थिति भी साबित करते हैं, जिस पर अंगिका के साहित्यकारों के मध्य विवाद है। 

मंजूषा कला में रंगों व आकृतियों की अपनी प्रतीकात्मकता है। यह आमतौर पर माना जाता है कि लाल या गुलाबी उत्सव का प्रतीक है। पीला रंग विवाह का प्रतीक है और हरा रंग विषदंश का प्रतीक है। इनके प्रतीकार्थ अनेक हैं। हरा रंग वंश वृद्धि का भी प्रतीक है। आकृतियों या पात्रों में बिहुला अक्सर खुले केश में दिखती है। उसके समक्ष एक सर्प होता है। विषहरी बहनें अपने नाम-रूप प्रतीकों के साथ चित्रों पर उतरती हैं। विषहरी के रूप में मन के पंच विकारों की प्रतीकात्मक भी सामने आती है। पंच विकार यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद। मंजूषा चित्रों के बॉर्डर लहरिया आकृतियों से बनाई जाती है, जो बहुदा सर्प की लड़ियां होती हैं। इन्हें उफनती गंगा या समुद्र माना जाता है। लोक-गाथा में प्रयुक्त इन प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों को पूरे मनोयोग से मंजूषा की सबसे चर्चित चित्रकार चक्रवर्ती देवी ने कागज पर उतारा और आज उनमें थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ उन चित्रों की असंख्य अनुकृतियां बनाई जा रही हैं। उन अनुकृतियों को देखकर मंजूषा चित्रकार और कला समाज इस कदर मंत्रमुग्ध है कि विषयों व पात्रों के संयोजन तथा प्रतीकों में जरा भी फेर बदल उन्हें उत्तेजित कर देता है। यथास्थितिवाद से इतर कुछ कलाकारों ने नए विषयों को भी अपने चित्रों पर जगह दी है या देने की कोशिश कर रहे हैं। उनमें से ज्यादातर प्रयोग बाहरी प्रभाव में है। यह उस प्रभाव ही असर है कि कलाकार अब ‘अंग राज कर्ण’ की गाथा पर आधारित चित्र बना रहे हैं, तो विष्णु का ‘विश्वरूप’ भी मंजूषा शैली में कागज पर उतर रहा है।

मंजूषा कला में आ रहे इन बदलावों पर अंगिका के साहित्यकार डॉ. अमरेंद्र कहते हैं, ‘जो गतिशीलता का विरोधी है, परिवर्तन का विरोधी है, वह मृत्यु का पक्षधर है, जड़ता का समर्थक है…लहसन माली ने जब पहली बार मंजूषा पर चित्रों को उभारा होगा, तब बेशक विषय वे ही होंगे जो आज भी हैं, लेकिन चित्र हू-ब-हू ऐसे ही रहे होंगे, मुझे ऐसा मानने में संकोच है…हमारे नए कलाकरों को उन संदर्भों के बारे में ज्ञान नहीं है, जो उन्हें नया गढ़ने के लिए प्रेरित करे’। यह चिंता मंजूषा गुरु मनोज पंडित के इन शब्दों में स्पष्ट झलकती है कि ‘वरिष्ठ एवं युवा कलाकार बिहुला-विषहरी लोक-गाथा के कथानक पर नवीन अण्वेषण करें, आकृतियां गढ़ें, नए बिम्ब व प्रतीकों का निर्माण करें, आज जरूरत इस बात की है। उपरोक्त दोनों ही कथनों के आलोक में लोक-कलाओं के जानकार और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रदर्श कलाओं के प्राध्यापक रहे ओमप्रकाश भारती कहते हैं, ‘इसका दायित्व किसका है, इसकी जवाबदेही किसकी है? आखिर क्या वजह है कि मंजूषा कला के विद्वत्वजनअपनी चित्रकला की दुर्दशा देखने पर विवश हैं? क्या यह बेहतर नहीं होता कि वे मंजूषा कला और परंपराओं पर विमर्श करते, जिसका लाभ युवा कलाकारों को मिलता। इससे वे मंजूषा कला में नवीन प्रतीकों-बिम्बों की रचना करते।

वर्तमान में रचे जा रहे मंजूषा चित्रों के संदर्भ में मुझे मंजूषा कला के वर्तमान का सत्य वही दिखता है जिसकी तरफ ओमप्रकाश भारती इशारा कर रहे हैं और वह इस रूप में भी है मंजूषा चित्रों में प्रतीकात्मकता ठहरी दिखती है, बिम्ब ठहरे दिखते हैं। इन सबके बीच नकली समकालीनता उभार पर हैं। भागलपुर की अपनी कला-यात्राओं के दौरान ऐसे अनेक युवा चित्रकारों से मुलाकात हुई, जिनका मानना है कि मंजूषा कला, मिथिला कला की तरह समकालीन हो रही है। मसलन चित्रों में मोटी लाइनों की जगह बारीक लाइनों का प्रयोग और सपाट चटकीले रंगों का प्रयोग, आकृतियों की सघनता आदि। उनके लिए समकालीन होने का एक अर्थ वैसे चित्रों का भी उत्पादन भी है, जिनमें सरकारी योजनाएं झिलमिलाती हुई दिखती हैं। सरकार की साइकिल योजना या बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसे विषयों में वे समकालीनता के मायने खोज रहे हैं, इस बात से बेपरवाह कि जिसे वे समकालीन कह रहे हैं, उसकी समकालीनता बाजार की देन है।

मिथिला कला की वर्तमान प्रवृतियां आज मंजूषा कला को अपना ग्रास बनाने पर आतुर हैं। यही वजह है बाजार उनके बीच भेद नहीं करता है और मंजूषा चित्रकला का मिथिला चित्रकला के छायाचित्रों में रूपांतरण हो जाता है। यह किसी को विचलित नहीं करता है। वरिष्ठ कलाकारों और कला मर्मज्ञों के बीच यह वाद-विवाद का विषय नहीं बनता कि किसी कला का समकालीन हो जाना और बाजार के बनाए मानदंडों पर रची जा रही कला, एक ही विषय है या अलग-अलग और क्या किसी लोक-कला के समकालीन हो जाने का अर्थ समकालिक नवीन प्रतीकों, बिम्बों की रचना व उनका प्रयोग नहीं है, जिनके जरिए एक लोक-कलाकार अपने-अपने समय और समाज से ज्वलंत प्रश्न करता है, उनके समक्ष नवीन चुनौतियां प्रस्तुत करता है, वे प्रश्न चाहे आर्थिक विषमताओं से उपजते हों या जातीय व धार्मिक अस्मिता से।

कलाओं का समकालीन हो जाना कलाओं का अपने आप में क्रांतिकारी हो जाना भी है, जो अपने समय की परिस्थितियों और चुनौतियों का सामना भी करती हैं, जिनके उच्च आदर्श व प्रतिमान सरकार की जन-विरोधी नीतियों और बाजार के बनाये नियमें, मानदण्डों पर हल्ला बोलते हैं। इस लिहाज से बिहुला और लहसन माली के समकालिक रही मंजूषा कला वर्तमान संदर्भों में कितनी समकालीन है, इस पर मंजूषा कलाकारों और विद्वानों को विचार करना होगा, बाजार के प्रभाव और सरकार की नीतियों की चिंता किए बगैर, क्योंकि ज्यों ही हम उनकी चिंता करते हैं, उसी समय हम लोक-कलाओं के व्यवस्था-प्रतिरोधी चरित्र की हत्या कर देते हैं। बाजार और सरकार दोनों यही चाहती है। इसी उद्देश्य से वे लोक-कलाकारों को उनके चित्रों की पारंपरिकता, धार्मिक विषयों और उनकी पुरातन परिभाषाओं तक सीमित रखने का प्रयास करती है। फिर भी अगर लोक-कलाएं समकालीन होना चाहती हैं, तो उनकी कोशिश होती है कि वह तकनीकी तौर पर और बाजार के मानदण्डों के अनुरूप हों और उनके मानदण्ड हमारी लोक-कलाओं के बचे रहने और उनके फलिभूत होने की प्रक्रियाओं के बहुदा खिलाफ हैं। बाजार का एक ही मानदण्ड है, मांग और आपूर्ति। उस पर खरे उतरने का अर्थ है, हम अपनी कलाओं के लोकतांत्रिक चरित्र और उनकी प्रयोगधर्मिता पर प्रतिबंध लगा दें, क्योंकि बाजार के बनाये मानदण्डों में उन दोनों के लिए कोई स्थान नहीं है। इसी वजह से लोक-कलाओं में समकालीनता का प्रश्न अत्यंत मौजूं हो जाता है कि कहीं उसके नाम पर मंजूषा कला में सन्निहित लोकतांत्रिक समाज, उसकी गतिशीलता और उसके व्यवस्था विरोधी चरित्र पर विराम लगाने की कोशिश तो नहीं की जा रही है।

यहां हमें उस प्रश्न की तरफ लौटना होगा कि उन मानदण्डों के मूल्यांकन की जिम्मेदारी किसकी है और जिनसे लोक-कलाओं की उत्तरजीविता का मार्ग भी प्रशस्त होता है, जो इस बात निर्भर करती है कि वर्तमान परिवेश और संदर्भों में हम लोक-कलाओं पर कितने रचनात्मक विमर्शों को अंजाम दे पाते हैं। इनके अभाव में मंजूषा चित्रकला में पुराने पड़ चुके प्रतीकों व बिम्बों की आवृतियां और तीव्र होंगी। हालांकि उनकी आवृतियों के जरिए भी परंपरागत कलाओं को नया आयाम दिया जा सकता है, जैसा कि स्वामीनाथन ने किया था। स्वामीनाथन के प्रयोगों को लेकर ख्यातिलब्ध कला लेखिका गीता कपूर ने लिखा कि उन्होंने ‘ऐसे बिम्बों, प्रतीकों की अवतारणा की जिसके जादुई प्रभाव थे, यह प्रभाव उन्होंने ओSम, स्वास्तिक-चिन्ह, कमल, लिंगम, सर्प व हथेली के छापे जैसे पुरा प्रतीकों के प्रयोग से पैदा किया था। यह जानते हुए भी कि वे बहुत हद तक अपना अर्थ खो चुके हैं’। यह प्रवृति मंजूषा कला में नहीं दिखती है। तब प्रश्न उठता है कि रचनात्मक विमर्शों के अभाव और बाजार के दबाव में मंजूषा कला, शिल्प में परिणत नहीं हो जाएगी?  और इन प्रश्नों से आंखें फेर लीजिए, तो मंजूषा कला चमक रही है।

वैसे मंजूषा कला की वर्तमान चमक के पार जिनकी दृष्टि पहुंच पा रही है, वे देख रहे हैं कि बाजार ने उनके प्रतीकों-बिम्बों में नवीनता की संभावनाओं का भक्षण कर लिया है। हम कला के शिल्प में परिणत हो जाने के समय के साक्षी हैं। आज भागलपुर चले जाइए, मंजूषा चित्रों का उत्पादन स्पष्ट दिख जाएगा। तीन सौ रुपये से पांच सौ रुपये की दिहाड़ी में मशीन की तरह उत्पादन कर रहे उन कला-मजदूरों की चिंताओं में मंजूषा कला का भविष्य नहीं है, उनकी तत्कालिक आश्यकताएं हैं। भविष्य की चिंता वे करें, इसकी अपेक्षा भी क्यों, जबकि उसकी जवाबदेही सरकार और फिर कला समाज की बनती है। वे कला और शिल्प के मध्य की रेखा के अंतर को समझें, ताकि दोनोंकाअस्तित्व बना रहे। इसके लिए स्पष्ट कला नीति चाहिए और ऐसे लोग चाहिए, जिनके पास लोक-कलाओं को लेकर स्पष्ट दृष्टि भी हो। ओम प्रकाश भारती कहते हैं, ‘यह दोनों ही सरकार के पास नहीं है। उसके पास विभाग है, अफसरशाही है और कला प्रबंधक हैं, जो बाजार के कायदे कानून से संचालित हैं। सरकारी विभागों और अफसरशाही के बीच कलाकार कहां है या कला की समझ रखने वाले लोग कहां हैं? इसलिए कला नीति और कला-दृष्टि के अभाव में कला का शिल्प में परिवर्त्तन अवश्यंभावी है और कलाकारों की नजर से देखिए, तो इसमें गलत क्या है? संभव है, इसी से लोक-कलाओं का कुछ भला हो? सरकार पहले कला नीति बनाए, तब इस प्रश्न पर विचार हो कि लोक-कलाएं कला-कर्म के रूप में आगे बढ़े या शिल्प के रूप में’।

सरकार की नीति भले ही अस्पष्ट हो, बाजार की नीति बहुत स्पष्ट है। कला का शिल्प में परिवर्तन और कलाकार का कला-मजदूर में, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके। इस स्थिति में पाउल क्ली के कथन का मर्म स्पष्ट हो जाता है कि ‘हमें संपोषित करने वाली कोई संस्कृति नहीं है’। संस्कृति यानी सामाजिक दायित्वबोध। कलाओं की उत्तरजीविता इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसका वर्तमान सामाजिक दायित्वबोध का कितना अवलंब पाता है। बिहार में वह सामाजिक दायित्वबोध कहां है, जिसके आधार पर हम यह विचार करें कि लोक-कलाओं को कलाकर्म के रूप में आगे बढ़ाए जाए या शिल्प के रूप में। भागलपुर में इस दायित्वबोध का भार थोड़ा बहुत मंजूषा कलाकार मनोज पंडित उठाते हैं, जिनकी अपनी सीमाएं हैं। मनोज पंडित के अतिरिक्त बिहार में कई वरिष्ठ लोक-कलाकार हैं, जिन्हें समकालीन लोक-कलाकर कहा जाता है, लेकिन उनमें स्वामीनाथन या गिरीश कर्नाड का कला के प्रति सामाजिक दायित्वबोध कहां है? वे सिर्फ कलाकार, नाटककार या नाट्य लेखक नहीं हैं। कला के प्रति उन्होंने अपने सामाजिक दायित्वबोध को स्वीकार किया है, जिससे उनके प्रदेशों में लोक-कलाएं आगे बढ़ी हैं। राजस्थान में देवीलाल सामर, कोमल कोठारी, महेंद्र भानावत, विजयदान देथा जैसे चंद लोगों की पहल पर राजस्थान की लोक-कलाओं को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिल जाती है। वैसे लोगों का स्थान हमारे यहां रिक्त है। 

इसकी सबसे बड़ी वजह है कि सरकारों के समक्ष कला नीति का अभाव और उसके साथ-साथ शिक्षा नीति में भी कला का अभाव। शिक्षा नीति में कलाओं की जो उपस्थिति है, उससे कलाओं के प्रति सामाजिक दायित्वबोध का आ पाना असंभव है। मिथिला कला में अगर ललित नारायण मिश्र, पुपुल जयकर और भाष्कर कुलकर्णी जैसे लोग उसे आगे ले जाने का दायित्व उठाते हैं, तो वहां भाव सामासिक और सामाजिक नहीं दिखता है। उसका आधार जातीय ज्यादा है। दिशा ग्रामीण मंच, भागलपुर के मनोज पांण्डेय कहते हैं, ‘ब्राह्मणों और कायस्थों की चित्रकला अगर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान पाती है, तो वह इस वजह से भी कि शासन-प्रशासन में उनका वर्चस्व रहा’। उन्हें रेमण्ड ओएंस, एरिका मोजर, हासिगावा और डेविन जेंटन जैसे कला संरक्षकों का साथ भी मिला, जिन्होंने मिथिला कला के वैश्विक विस्तार का आधार तैयार किया। मंजूषा अभी ऐसे लोगों से वंचित है। मनोज पंडित कहते हैं, ‘इन सबके बावजूद मिथिला कला का शिल्पीकरण हो चुका है। मंजूषा कला भी उसी लीक पर है। मंजूषा के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि उसके शिल्पीकरण की प्रक्रिया कितनी सहज, सुगठित और परिष्कृत होगी? आज तो यह अनगढ़ दिखती है?

ऐसे में यक्ष प्रश्न यह भी है कि मिथिला कला के लोक ने तो उसे कला और शिल्प रूप में स्वीकार कर लिया है, अंग क्षेत्र का लोक मंजूषा को बतौर कला कितना स्वीकार करता है और जो लोक इसे कला के रूप में स्वीकार करता है, उसका ‘स्वीकार’ कहीं जातीय व वर्गीय मानसिकता और क्षेत्रीयता की खोल में तो लिपटा नहीं है? यह प्रश्न करना जरूरी है, क्योंकि लोक-कलाओं का वर्तमान इसकी गवाही देता है कि जब तक लोक-कलाओं ने क्षेत्रीयता के दायरे से बाहर झांकने की कोशिश नहीं की है, उनका दृष्टिकोण व्यापक नहीं हुआ है, उन्हें पहचान नहीं मिली है।

संदर्भ:

ज.स्वामीनाथन. ‘आधुनिक कला कोश’. अस्मिता और प्रासंगिकता, संपादक: विनोद भारद्वाज, पृ 110. नई दिल्ली: 1989.

जे.सी. शर्मा. ‘मंजूषा लोक–कला’. बिहुला विषहरी गाथा कथा-सार. पृ. 33.

चंद्रप्रकाश जगप्रिय. ‘अंग्रप्रदेश की लोक-कला: मंजूषा.’ मंजूषा बचेगी तो पर्यावरण भी बच जाएगा, पृ 36
नई दिल्ली: 2011.

मनोज पंडित, मंजूषा कला का वर्तमान, निजी साक्षात्कार, द्वारा: सुनील कुमार. भागलपुर: 2018.

ओमप्रकाश भारती, मंजूषा चित्रकला: कला या शिल्प ?, निजी साक्षात्कार, द्वारा: सुनील कुमार. भागलपुर: 2018.

गीता कपूर. ‘आधुनिक कला कोश’. ‘स्वामीनाथन’. संपादक: विनोद भारद्वाज, पृ 222. नई दिल्ली: 1989.

मनोज पांडेय. मंजूषा कला और समाज, निजी साक्षात्कार, द्वारा: सुनील कुमार. भागलपुर: 2018.

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