राजा भरतहरी की कथा: भाग-2

पुंगी बजाता एक लोककलाकार, क्रेडिट: 
डॉ. मदन मीणा
पुंगी बजाता एक लोककलाकार, क्रेडिट: डॉ. मदन मीणा

मदन मीणा । वरिष्ठ कलाकार एवं शोधार्थी, राजस्थान के शिल्पकारो एवं कलाकारों की बीच सक्रिय । मीणा जनजाति की कला विषय पर पीएचडी की उपाधि।

भरतहरी की कथा I भाग – एक I तीन

एक बार राजा भरतहरी चूचक शहर में गायों को डकैतों से छुड़ाने के गये। वहां उसने शंकर को बारह बरस की भक्ति करने के लिए वचन दिया था। इसलिए वह धारा नगरी का राजपाट अपने छोटे भाई विक्रमादीत को सौंप बारह बरस के लिए धारा नगरी छोड़ देता है। राजा भरतहरी का राज-पाट इतना शांतूपर्ण और खुशहाल रहता है कि वहां नाहर और बकरी एक ही कुण्ड से पानी पीते थे। ऐसा ही राज करने के लिए वह विक्रमादीत को सीख देता है और फिर भरतहरी घने जंगल की ओर प्रस्थान कर जाता है।

भरतहरी के जाने के पश्चात श्यामदे अपनी दासी को नौकर को बुलाने के लिए भेजती है। वह दासी को सिखाती है कि वह नौकर के पास जाकर यह बहाना बनाए कि महल में काला सांप आ गया है। नौकर के महल में आने के बाद रानी उसे अपने साथ प्रेम संबंध बनाने के लिए उकसाती है। एक दिन विक्रमादीत दोनों को महल में साथ–साथ देख लेता है। नौकर घबरा जाता है। नौकर को घबराते देख रानी कहती है कि उसे घबराने की ज़रूरत नहीं है। वह कहती है, ‘‘मैं ऐसा खेल रचूंगी कि अपने देवर को देश निकाला दिलवाऊंगी, उस पर काला दाग लगाऊंगी। थोड़े ही दिन में भरतहरी के बारह बरस पूरे होने वाले है। तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है।”

कुछ समय पश्चात् भरतहरी की भक्ति के बारह बरस पूरे हो जाते हैं। भरतहरी की भक्ति से खुश हो भगवान शंकर उसे अमर फल देकर भेजते हैं। भरतहरी धारा नगरी में प्रवेश कर घोड़े को अस्तबल में बांध कर महल में प्रवेश करता है। रानी नाराज दिखाई देती है। गुस्से में वह भरतहरी का हाथी दांत का चुड़ला मोड़ देती है। भरतहरी उसकी नाराजगी का कारण पूछता है। वह रानी से कहता है, ‘‘हे रानी! अगर तम्हें ठोकर लगी हो तो पहाड़ों को इस नगर से दूर करवा दूं। अगर पैरों में कांटा लगा हो तो बबूलों को डूंडा करवा दूं और अगर किसी ने तुम्हारे ऊपर उंगली उठाई हो तो मैं उसकी उंगली कटवा दूं। तेरे दिल में जो भी बात है वह तू मुझे बता।” रानी जवाब देती है, ‘‘हे मेरे राजन! मुझे तुम्हारे भाई विक्रमादीत का राज पंसद नहीं आया। तुम चाहो तो अपने नौकर व दासियों से पूछ लो।”

भरतहरी रानी की बात सुनकर विक्रमादीत को बुलाने के लिए भेज देता है। विक्रमादीत बड़े भाई के बारह बरस बाद घर लौटने की खबर सुन कर खुश होता हुआ महल में आता है। विक्रमादीत के महल में प्रवेश करते ही भरतहरी क्रोध में उसके जोर से सोटा लगा देता है और कहता है, ‘‘तुमने कैसा राज किया? मैं ऐसा राज संभला कर गया था क्या तुम्हें?” भाई के क्रोध को देख विक्रमादीत रोने लगता है। क्रोधित भरतहरी अपने भाई को छत के कड़े से उल्टा लटका देता है। नौकर भरतहरी को सलाह देता है कि वो विक्रमादीत को देश निकाला दे दे। भरतहरी उसकी बात मानते हुए अपने भाई को महल छोड़कर जाने का आदेश दे देता है। विक्रमादीत नगर को छोड़कर वहां से चला जाता है।

भरतहरी अपनी रानी पानदे को अमर फल खाने के लिए देता है। कहता है, ‘‘इसको खाने से तुम्हारी काया अमर हो जाएगी। यह भगवान शिव का दिया हुआ अमर फल है।” रानी विचार करती है कि अगर वह अमर फल खाएगी, तो जीवन भर उसे भरतहरी के बोल सुनने पड़ेंगे। रानी अमर फल को अपने नौकर को दे देती है। अमर फल लेकर नौकर सोचता है कि वह उसे खाकर कब तक राजा के घोड़े की लीद झाड़ता रहेगा। नौकर अमर फल राजा के चरवरदार को दे देता है। चरवरदार भी उसे यह सोचकर नहीं खाता कि वह हमेशा के लिए राजा के घोड़ों को घास खिलाता रहेगा। वह दासी को दे देता है। दासी अमर फल लेकर सोचती है कि अगर वह उसे खा लेगी तो जन्म तक वह रानी के कपड़े ही धोती रहेगी। वह भी उसे नहीं खाती और गांव के पुजारी को जाकर दे देती है। वह पुजारी से कहती है कि मंदिर को दान स्वरूप बावन गढ़ों का गढ़पति राजा भरतहरी उसे आधा राज देगा। पुजारी भी उसे यही सोचकर नहीं खाता कि उसे मंदिर में हमेशा के लिए सुबह–शाम आरती ही करते रहनी पड़ेगी। वह कब तक लोहे की झालर बजाता रहेगा। पुजारी अमर फल को राजा भरतहरी को देने का विचार करता है, जिसके बदले में वह सोचता है कि भरतहरी उसे अच्छा दान और इनाम देगा।

अमर फल घूमता फिरता राजा भरतहरी के पास आ जाता है। भरतहरी अमर फल को देखकर रानी से पूछता है कि उसका दिया हुआ अमर फल कहां है। रानी कहती है कि उसने तो उसे तभी खा लिया था। भरतहरी पुजारी को महल में बुलाता है और पूछता है कि उसके पास अमर फल कहां से आया। घबरा कर पुजारी बताता है कि उसे वह अमर फल दासी ने दिया था। राजा दासी से पूछता है तो दासी कहती है कि उसे अमर फल चरवरदार ने दिया था। इसी प्रकार चरवरदार बताता है कि उसे नौकर ने दिया था। नौकर भी सारा राज खोलते हुए रानी का नाम बता देता है। यह अब सच्चाई जानकर भरतहरी महल में दुखी होता है कि रानी ने उसे धोखा दिया और उसकी गलत बातों में आकर भाई विक्रमादीत को दंडित कर महल से निकाल दिया। उसे अपनी गलती का पश्चाताप होता है।

उधर विक्रमादीत देश निकाला मिलने के बाद एक बनिये के यहां नौकरी कर लेता है। बनिये का एक ही बेटा होता है, जो एक आंख से लाचार होता है। उसका रिश्ता एक बनिये की लड़की से तय कर दिया जाता है। लड़की का पिता लड़के वालों को संदेशा भिजवा देता है कि बारात में आंख से लाचार एक भी जना ना आये। इस समस्या का हल निकालने के लिए सेठ तरकीब निकालता है कि वह अपने बेटे की जगह विक्रमादीत के साथ लड़की के फेरे लगवा देगा और बाद में दुल्हन को अपने लड़के के साथ रख लेगा। विक्रमादीत को दूल्हा बना दिया जाता है और सेठ की लड़की के साथ उसके फेरे हो जाते हैं। सेठ की लड़की का नाम पिंगला होता है। विवाह के समय विक्रमादीत उसकी ओढ़नी के पल्ले पर लिख देता है कि वह फेरे तो राजा के कंवर विक्रमादीत के साथ खा रही है लेकिन बाद में उसे सेठ के एक आंख से लाचार लड़के के साथ रहना पड़ेगा।

सेठ शादी कर पिंगला को अपने घर ले आता है। वह नई दुल्हन को तो अपने लड़के के पास रख देता है और विक्रमादीत से पूर्व की भांति काम करवाने लग जाता है। सेठ–सेठानी नई दुल्हन को देवी–देवता ढुकाने के लिए ले जाते हैं। विक्रमादीत के लिखे शब्दों को पिंगला पढ़ लेती है और सेठ के लड़के के साथ देवी–देवता ढोकने से मना कर देती है। वह हठ पकड़ लेती है कि वह तो विक्रमादीत के साथ ही रहेगी जिसके साथ उसने फेरे खाए हैं। सेठ–सेठानी राजा के पास जाकर विक्रमादीत की शिकायत करते हैं। राजा के सैनिक विक्रमादीत को पकड़ने के लिए आते हैं और कैद कर राजा भरतहरी के सामने पेश करते हैं। भाई को देख भरतहरी रोने लगता है और अपने गले लगा लेता है। सैनिकों को आदेश देता है कि उसे कैद से आजाद कर दें। दोनों भाई महल में मिलते हैं। भरतहरी अपनी गलती की माफी मांगता है। भरतहरी अपनी गलती का पश्चताप करते हुए रानी श्यामदे को कड़े से उल्टा लटकवा देता है और देश निकाला दे देता है। विक्रमादीत मना करता है, लेकिन वह उसकी एक नहीं मानता।

भरतहरी विक्रमादीत की कुशलक्षेम पूछता है कि वह देश निकाला देने के बाद कैसे रहा,  बारह साल कहां व्यतीत किये? विक्रमादीत बताता है कि वह एक बनिये के यहां रहा था व सेठ की लड़की पिंगला से उसने ब्याह किया था। दोनों भाई गले लगते हैं। कुछ समय बाद भरतहरी भी सींगल शहर के राजा प्रक्षित की बेटी पिंगला से शादी कर लेता है। धारा नगरी का नाम बदल कर उज्जैन शहर रख देता है। राजा भरतहरी धर्मावतारी राजा के रूप में प्रसिद्धि पाता है।

भरतहरी की कथा I भाग – एक I तीन

SUPPORT THE FOLKARTOPEDIA

Folkartopedia Archive is an online open resource of folk, traditional and tribal arts and expressions. We are constantly documenting artists, artworks, art villages, their artistic expressions, cultural heritage and other aspects of their life, to develop and enrich the archive that deserves you. We usually ask, what is the necessity of documentation and archives of arts? The answer is simple, what cultural heritage will we leave behind for our future generations in absence of documented work?

This effort cannot be a success, without your support. We need you and your support. If you think, the role of Folkartopedia is important, please support us.

You can help us by Instant Giving here.

Disclaimer:

The opinions expressed within this article or in any link are the personal opinions of the author. The facts and opinions appearing in the article do not reflect the views of Folkartopedia and Folkartopedia does not assume any responsibility or liability for the same.

Folkartopedia welcomes your support, suggestions and feedback.
If you find any factual mistake, please report to us with a genuine correction. Thank you.

 

Receive the latest updates

GET IN TOUCH

Folkartopedia is the leading resource of knowledge on folk art and expression in India. Stay connected.