मदन मीणा । वरिष्ठ कलाकार एवं शोधार्थी, राजस्थान के शिल्पकारो एवं कलाकारों की बीच सक्रिय । मीणा जनजाति की कला विषय पर पीएचडी की उपाधि।
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गुरु गोरखनाथ के साढ़े चौदह सौ चेले थे। उनके सभी धूणों पर चेले तपते थे, लेकिन एक धूणा खाली पड़ा रहता था। एक दिन चेले गोरखनाथ से पूछते हैं, ‘‘महाराज यह एक धूणा खाली क्यों पड़ा रहता है?” गोरखनाथ जवाब देता है कि इस धूणे पर राजा भरतहरी आकर तपेगा। वह उसी के लिए खाली पड़ा है। चेले फिर से पूछते हैं, ‘‘राजा भरतहरी तो बावन गढ़ों का गढ़पति है, वह क्यों आकर धूणा तपेगा?” गोरखनाथ अपने दो महात्मा चेलों को आदेश देता है कि वे जाकर भरतहरी के द्वार अलख जगाएं और दान में हीरामृग की खाल मांगें। गोरखनाथ का आदेश पाकर महात्मा ऐसा ही करते हैं। भरतहरी उन्हें हीरामृग की खाल लाकर देने के लिए तीन दिन का समय मांगता है।
उधर सत्तर हिरणियों का स्वामी, उनका एक ही पति, हीरामृग होता है। एक दिन हिरणियों ने विचार किया कि वे धर्मावतारी राजा भरतहरी के राज में चली जाएं जहां वे काले माल में चरेंगी और शिप्रा नदी के घाट पर पानी पीएंगी। वहां उनके पतिदेव हीरामृग को कोई नहीं मारेगा। उन्हें नहीं मालूम होता कि राजा भरतहरी तो हीरामृग का दुश्मन बन गया है। इधर राजा भरतहरी शिकार में जाने के लिए अपने घुड़साल से नौलखा घोड़ा निकालता है। राजा भरतहरी की पत्नी पिंगला को आगे–पीछे छह महीने की सारी बातें मालूम होती हैं, वह शिकार पर जाने से भरतहरी को मना करती है। लेकिन राजा भरतहरी नहीं मानता, वह पिंगला से कहता है कि वह शिकार खेलने जाने के लिए तन के पांच कपड़े और उसका भाला दे दे। पिंगला कई बार भरतहरी से हाथ जोड़ कर निवेदन करती है कि वह अशुभ घड़ी को टाल दे। लेकिन भरतहरी जवाब देता है कि एक बार घोड़ी पर सवार होने के बाद वह वापस नीचे नहीं उतरेगा।
भरतहरी काले हिरण का शिकार करने के लिए अपने सैनिकों को लेकर तैयार हो जाता है। रास्ते में कई अपशकुन होते हैं—बायीं ओर उल्लू बोलता दिखाई देता है, दायीं तरफ सियार के रोने की आवाज आती है और पिंगला के हाथ का हाथी दांत का चूड़ा मुड़ जाता है। रानी पिंगला कहती है कि वह विधवा हो जाएगी लेकिन इस सब को नजरअंदाज करते हुए भरतहरी काले हीरामृग का शिकार करने के लिए वन में शिप्रा घाट पर पहुंच जाता है। दिन थोड़ा सा बाकी रह जाता है। राजा भरतहरी शिप्रा नदी के घाट पर तम्बू–डेरे डाल देता है। इतने में काला हिरण व सत्तर हिरणियां नदी के घाट पर पानी पीने आ जाती हैं। आधी हिरणियां पानी पीने लगती हैं, बाकी की आधी राजा भरतहरी की ओर झांकती हुई पूछती हैं कि हैं, ‘‘हे बावन गढ़ों के गढ़पति! आज तुम कैसे अपनी फौज लिए शिप्रा नदी के घाट पर खड़े हो? हमने तो तुम्हारा नाम बड़े धर्मावतारी राजा होने का सुना है, फिर इस फौज की जरूरत कैसे पड़ गई? कहीं तुम घर से नाराज होकर तो नहीं आए हो यहां? क्या तुम अपने मां–बाप या पत्नी से नाराज हो गए हो? ऐसा है तो तुम जिस तरह यहां आए हो, उसी तरह वापस उज्जैन शहर लौट जाओ।” हिरणियों का सवाल सुन कर राजा भरतहरी जवाब देता है, ‘‘हे हिरणियों, मैंने सुना है कि तुम सत्तर हिरणियों का स्वामी एक हीरामृग है। मैं उसका शिकार करने यहां आया हूं।”
भरतहरी की बात सुन हिरणियां स्तब्ध रह जाती हैं और इसका कारण पूछती हैं। वे कहती हैं, ‘‘हे राजा हमारे पति को क्यों मारते हो? उसके बिना हम सत्तर हिरणियां वन में विधवा डोलेंगी। अरे राजा काले हिरण को फंसाने के लिए किसने घोड़े की हरी घास डाली है? तू चाहे तो हमारे में से दो की जगह चार मार ले लेकिन हमारे भरतार को छोड़ दे।” राजा भरतहरी कहता है कि वह काले हिरण को मारे बिना नही लौटेगा। वे आखरी बार उसके दर्शन कर अपने दिल की बातें उससे कर लें। सुबह होते ही वह हीरामृग का शिकार करेगा। यह सुन कर हिरणियां इधर–उधर भागने–दौड़ने लगती हैं। हिरणियों को भागते देख हीरामृग उन्हें रोकता है। कहता है कि वे डर कर अपनी माता का दूध न लजायें। हीरामृग भरतहरी से कहता है, ‘‘जिस प्रकार तुम पिंगला के पति हो उसी प्रकार मैं भी सत्तर हिरणियों का पति हूं। तेरे जैसे कोई साढ़े तीन सौ लोग मुझे मारने की पहले कोशिश कर चुके हैं। उनकी कोशिश व्यर्थ गई।” यह सुन कर राजा भरतहरी क्रोधित हो जाता है और घोड़े पर चढ़ हीरामृग को मारने के लिए अपना भाला फेंकता है। हीरामृग अपने को बचाते हुए लपक कर जमीन पर चिपक जाता है। भरतहरी घोड़े से गिर जाता है, उसके सभी अस्त्र–शस्त्र भी नीचे गिर जाते हैं। वह घोड़े को दोषी ठहराते हुए कहता है कि उसकी गलती की वजह से हीरामृग जिंदा बच गया।
घोड़ा भरतहरी को राय देता है कि वह धरती माता के तीन ढोक लगाकर फिर से उसकी पीठ पर सवार हो जाए। वह उसे आकाश में ले उड़ेगा। भरतहरी घोड़े की बात मानते हुए ऐसा ही करता है। वापस घोड़े की पीठ पर सवार हो एक और भाला हीरामृग पर छोड़ देता है। भाला हीरामृग का सीना चीरता हुआ उसके प्राण ले लेता है। मरते हुए काला मृग राजा भरतहरी से वचन लेता है। पहला यह कि उसके चारों पांव वह किसी कायर चोर को दे दे जो उसकी जान बचा लेंगे। दूसरा वचन यह मांगता है कि वह उसका कलेजा किसी बनिया सेठ को दे दे जो हमेशा उसे छांव में ही रखेगा। उसके सींग किसी नाथ–जोगी को दे दे जिससे उसकी आवाज घर–घर में गूंजेगी। उसकी आंखें किसी चंचल नारी को दे दे जो हमेशा उन्हें परदे में रखेगी और पांचवा वचन यह मांगता है कि उसकी खाल बाबा गुरू गोरखनाथ को दे दे जिससे उसको मोक्ष की प्राप्ति होगी। राजा भरतहरी से ये वचन लेकर हीरामृग शिप्रा नदी किनारे अपने प्राण त्याग देता है।
भरतहरी मृत हीरामृग को घोड़े की पीठ पर लाद कर उज्जैन शहर की ओर लौट जाता है। रास्ते में सत्तर हिरणियां उसे चारों ओर से घेर लेती हैं। जैसे सावन भादों में बादल गरजते हैं, उसी प्रकार हिरणियों की आखों से आंसू नही थमते। वे भरतहरी से कहने लगती हैं, ‘‘राजा! तुम हमारे दुश्मन निकले, हम सब को तुमने विधवा बना दिया है। हमारे जीवन में अंधेरा कर दिया है।” बदले में मृग भरतहरी को श्राप देता है कि वह भी अब अपनी पत्नी का साथ छोड़ जोगी बन जाएगा। उधर बाबा गुरू गोरखनाथ की धूणी भी थर्रा जाती है। हिरणियों को रोता छोड़ कर भरतहरी उज्जैन शहर की ओर चल देता है।
रास्ते में बाबा गोरखनाथ धूणा लगाए बैठा मिलता है। गोरखनाथ को देख भरतहरी सोचता है कि वह काले हिरण की इच्छानुसार उसकी खाल गोरखनाथ को भेंट करने से उसके पापों का बोझ कम हो जाएगा। भरतहरी के घोड़े पर मृत हिरण देख गोरखनाथ उसे डांटते हुए कहता है, ‘‘ओ पापी! तू जंगल से यह क्या पाप कमा लाया? सत्तर हिरणियों के पति को मार कर तूने घोर पाप किया है!” भरतहरी जवाब देता है, ‘‘मैंने तो सिर्फ एक हिरण को ही मारा है लेकिन तुम ने तो जंगल के सैंकड़ों हरे पेड़ों को धूणी के हवाले कर दिया है। क्या उसका पाप नहीं लगता? मैं तुम्हें असली जोगी तब मानूं जब तुम मेरे द्वारा मारे गए हीरामृग को जिंदा कर दो।” भरतहरी की बात सुन गोरखनाथ उससे पूछता है कि अगर वह हीरामृग को जिंदा कर दें तो बदले में वह उसे क्या देगा। भरतहरी कहता है कि गोरखनाथ ने अगर ऐसा चमत्कार कर दिया तो वह उसका चेला बन जाएगा व जिंदगी भर उस घने जंगल में उसकी सेवा करेगा।
भरतहरी काले हिरण को घोड़े से उतार लेता है। गोरखनाथ ने जैसे ही नाद बजाया और अमृत जल के छींटे दिये वैसे ही हिरण जिंदा हो गया। बाबा गोरखनाथ का यह चमत्कार देख भरतहरी विचार करता है कि यह ज्ञान तो उसे भी सीखना है जिससे कि उज्जैन शहर में किसी को ऐसा ही कुछ हो जाए तो वह भी उसे जिंदा कर सके। भरतहरी गोरखनाथ के समक्ष अपनी इच्छा जाहिर कर देता है और निवेदन करता है कि वह उसे जल्दी से अपना चेला बना लें। गोरखनाथ भरतहरी की पहली परीक्षा लेते हुए कहता है कि अगर वह अपनी रानी पिंगला को बहन कह कर भिक्षा ले आए तो वह उसे अपना चेला स्वीकार कर लेगा।
भरतहरी अपने नौलखे घोड़े और अस्त्र–शस्त्रों को जंगल में त्याग, भगवा कपड़े धारण कर लेता है। गले में माला पहने, नाद बजाते हुए वह भिक्षा मांगने के लिए निकल जाता है और पिंगला के पास आकर कहता है कि वह अब जोगी हो गया है। पिंगला को माता–बहन संबोधित करते हुए कहता है कि वह उसे भिक्षा दे दे, उसे तो अब बाबा गोरखनाथ के पास भगती करनी है। भरतहरी की ऐसी बात सुन कर पिंगला का दिल टूट जाता है और वह फूट–फूट कर रोने लगती है। पूछती है कि ऐसा उल्टा ज्ञान उसे किसने दे दिया है। अगर उसे ऐसा पहले से पता होता तो वह भरतहरी से कभी विवाह नहीं करती। वह कोसते हुए कहती है कि जिस नाई ने उसकी विवाह रस्म करवाई थी उसको काला नाग डसे और जिस ब्राह्मण ने कांकड़–डोरे बांधे थे उस पर तेज बिजली गिरे। यह सोचते हुए कि अब आगे भविष्य में क्या होगा पिंगला जोर–जोर से विलाप करती है।
राजा भरतहरी कहता है कि वह तो अब धूणी पर तपने के लिए घने जंगल में जाकर अपना धूणा लगाएगा और जोगी बनेगा। वह पिंगला से कहता है कि वह विक्रमादीत को राज संभला देगा जो उसका ख्याल रखेगा, लेकिन रानी इसके लिए राजी नहीं होती। कहती है कि वह उसे गलत बोल बोलेगा। भरतहरी कहता है कि ऐसा है तो वह अपनी बहन के पांच पुत्रों में से किसी एक को राजा बना ले। पिंगला कहती है कि वह कब तक लोगों के बोल झेलेगी कि खुद का कोई पुत्र ना होने की वजह से पराए पुत्र को राजगद्दी पर बिठा दिया। पिंगला भरतहरी से निवेदन करती है कि वह उसे भी अपने साथ जोगनिया बना कर ले चले। उसके तो अभी दूध के दांत भी नही गिरे हैं वह अपना बचा हुआ जीवन कैसे काटेगी। भरतहरी कहता है कि लोग उसके जोगी होने पर वहम करेंगे और उसे कभी जोगी नहीं मानेंगे। भरतहरी पिंगला से अंतिम विदा लेते हुए जब आगे बढ़ने लगता है तो पिंगला पूछती है कि आज का गया वह कब वापस लौटेगा। भरतहरी कहता है, ‘‘जवानी और माया मेहमान की तरह है, इसे जाते देर नहीं लगती और जो विधाता ने लेख लिख दिए हैं, उसे कोई नहीं टाल सकता।” पिंगला कहती है कि उसके बिना महल सूना हो जाएगा, उज्जैन नगर फीका लगने लगेगा, उस पर कौवै बैठेंगे। उसका श्रृगाल उसे ही खाने दौड़ेगा। रानी पिंगला भरतहरी को बहुत समझाती है, कई निवेदन करती है, लेकिन भरतहरी जोगी बनने के अपने निर्णय पर अडिग रहता है। आखिर में वह भरतहरी को भिक्षा दे देती है। भरतहरी वहां से चल देता है। पीछे से पिंगला विलाप करती हुई रह जाती है।
राजा भरतहरी कानों में मंदरा पहने, गले में सेली और हाथ में सुमरण नाद ले गुरु गोरखनाथ के पास जंगल में आ जाता है। गुरु के चरणों में सिर झुका वह आशीर्वाद पाता है कि उसका नाम हमेशा के लिए अमर हो जाएगा। संसार उसका नाम लेकर गाता रहेगा, बजाता रहेगा और उसकी कथा सुनाता रहेगा। राजा भरतहरी जोगी बन छह महीने तक कुछ नहीं खाता। उसके सत की वजह से एक दिन गोरखनाथ का सिंहासन कांप उठता है। गोरखनाथ उसकी तपस्या से खुश होकर उसे वरदान देता है कि वह अब जोगी बन खूब तपस्या करे, दुनिया में घूमे, सद्मार्ग पर चले व माता–बहन कह कर भिक्षा मांगे।
राजा भरतहरी रमते–रमते अलवर नगर के बाजार में आ जाता है। वहां बारह साल तक एक प्रजापत के घर रहता है। बारह साल में जब एक दिन बाकी रह जाता है तो रमते–रमते वह एक गूजरी के यहां आकर अलख जगाता है और अपना नाद बजाता है। भिक्षा में एक कटोरा दूध पिलाने के लिए कहता है। गूजरी जवाब देती है कि उसका घर चलते रास्ते के पास है, वहां लाखों लोग आते–जाते रहते हैं। इस तरह वह किस–किस को दूध पिलाएगी। उसके पास दूध तो नहीं है लेकिन दो दिन पहले की छाछ जरूर पड़ी है जिसे वह जितना चाहे पी सकता है। दूध तो वह अपने हाली को ही देगी जो दिन रात उसके खेतों पर काम करता है। भरतहरी गूजरी से नाराज होकर आगे चल देता है और गूलर के पेड़ के नीचे आकर धूणी लगा लेता है। अपने झोली–झंडे पेड़ पर टांग देता है। नाराज भरतहरी भैरू को बुला कर गूजरी की गायों को चमका देता है जो खूंटे तोड़ कर पहाड़ी में चली जाती है। गूजरी की गायें–भैसों के थनों में कीलें पड़ जाते हैं। वे खल–कांकड़े खाना छोड़ देती हैं। उसके बैल भी खाना खाना छोड़ देते हैं।
गूजरी को अपनी गलती का एहसास होता है और वह भरतहरी को ढूंढने जंगल की ओर निकल जाती है। तेज बारिश में भीजती गूजरी भरतहरी को चारों तरफ ढूंढती फिरती है। रास्ते में उसे ग्वाले मिलते हैं, जिनसे वह भरतहरी का ठिकाना पूछती है। आखिर में गूजरी भरतहरी को ढूंढ लेती है और उसके चरणों में ढोक लगाती हुई अपनी गलती के लिये क्षमा मांगती है और वचन देती है कि वह हर भादवा की छठ–साते को उसका मेला भरवाएगी व अष्टमी के दिन रसोई कर भोग लगाएगी। यह परम्परा आज भी जारी है। अलवर में गूजरी के परिवार के लोग ही भरतहरी का जागरण करवाते हैं और उन्हीं का सबसे पहले भोग लगता है।
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