कला के वर्तमान पर चिंतन जरूरी: आनंदी प्रसाद बादल

Anandi Prasad Badal, Senior artist, Bihar. Image credit: Rawindra Das © Folkartopedia library
Anandi Prasad Badal, Senior artist, Bihar. Image credit: Rawindra Das © Folkartopedia library

भारतीय चित्रकला के इतिहास में तैल-चित्र बनाने की शुरुआत अठारहवीं शताब्दी में विदेशी चित्रकारों  द्वारा होती है और माना जाता है कि राज रवि वर्मा पहले भारतीय चित्रकार थे जिन्होंने तैल रंगों का प्रयोग किया। जल रंगों की तकनीकी वाश और  टेंपरा में भारतीय आधुनिक कला की शुरुआत बंगाल स्कूल से मानी जाती है। बंगाल स्कूल के कलाकारों ने भारतीय लोक एवं पारंपरिक कलाओं को गौरवान्वित करते हुए अपनी-अपनी शैलियां विकसित कीं। दूसरी तरफ प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के कलाकारों ने पश्चिमी कला आंदोलनों  जैसे प्रभाववाद, घनवाद और अभिव्यंजनावाद को अपनी कला शैलियों में शामिल किया। बंगाल के बाद बिहार राष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण कला केंद्र के रूप में उभरा। बिहार में आधुनिक कला का प्रभाव बंगाल के रास्ते आया।

पटना के वरिष्ठ कलाकार आनंदी प्रसाद बादल उस प्रभाव के साक्षी रहे हैं। उनकी अपनी कला-यात्रा भी अनेक प्रभावों से गुजरी है। ऐसे में उनकी कला-यात्रा को जानना-समझना आधुनिक-कला में बिहार की यात्रा से एक साक्षात्कार जैसा है। पिछले दिनों बादल जी से अपनी बातचीत के दौरान उनकी कला-यात्रा के बरक्स आधुनिक कला में बिहार की कला-यात्रा को जानने-समझने की कोशिश की राष्ट्रीय सहारा, नोएडा में बतौर कला संपादक कार्यकत रवींद्र दास ने। प्रस्तुत है उसी बातचीत के कुछ अंश:-

रवींद्र दास: बादल जी, नमस्कार। 93 वर्ष की उम्र में भी कला में आपकी सक्रियता सबको अचंभित करती है। आपने बिहार में आधुनिक कला के विकास के साक्षी रहे हैं, उसका अनुभव किया है। आज जब आप बिहार का कला परिदृश्य देखते हैं, तब उसके समानांतर अनुभवों को आप कैसे आंकते हैं?

आनंदी प्रसाद बादल: नमस्कार। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि अलग-अलग प्रदेशों में रह रहे बिहार के कलाकार आपना नाम खूब रौशन कर रहे हैं। राष्ट्रीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी। वो खूब कला सृजन कर रहे हैं। बिहार में ऐसे कितने कलाकार हैं? पूर्व में भी यहां जो कलाकार रहे, वे भी  जीवन भर पोर्ट्रेट बनाते रहे। आप गौर कीजिए, राधा मोहन बाबू अच्छा कलाकार होने के बावजूद भी सिर्फ पोर्ट्रेट बनाते थे। श्यामलानन्द भी बहुत आगे नहीं बढ़ पाए। जबकि, दूसरे प्रदेश से आये कलाकारों ने बिहार को अपनी कर्मभूमि बनाया और चमके भी। जैसे – उपेंद्र महारथी उड़ीसा से आये, बीरेश्वर बाबू, मिलन दास बंगाल से आये, श्याम सुन्दर, पांडेय सुरेंद्र और बटेश्वर नाथ श्रीवास्तव यूपी से आये, और भी अनेक नाम हैं। लेकिन, बिहार के मुंगेर में जन्मे नंदलाल बोस कहां चमकते हैं, बंगाल में। यह ध्यान देने वाली बात है कि पटना आर्ट कॉलेज के ज्यादातर प्रिंसिपल बाहर के प्रदेशों से रहे। वर्तमान प्रिंसिपल अजय पांडेय भी यूपी से हैं। बिहार के किसी भी कलाकार ने क्या यह साबित किया कि उनमें पिंसिपल बनने की क्षमता है?

ऐसा क्यों हुआ, यह विचारणीय प्रश्न है। मुझे लगता है, इन सबकी एक वजह यह भी रही है कि बिहार के कलाकारों को न तो सामाजिक स्तर पर प्रोत्साहन मिला और न ही सरकारी स्तर पर। ऐसा आर्ट स्कूल की स्थापना के समय से ही रहा। बिहार में वह कला प्रेमी समाज विकसित ही नहीं हुआ जिससे कला संपोषित होती है। आज भी उस समाज का अभाव है। अब पटना में लगने वाली कला प्रदर्शनियों को ही ले लीजिए, उनमें कलाकारों की तो उपस्थिति होती है, लेकिन कला प्रेमी समाज कहां रहता है? जब कला प्रेमी ही नहीं है तो कला के खरीदार कहां से आएंगे? अब बात सरकार के रुख की। ललित कला अकादमी का उदाहरण सामने है। उसकी कार्यकारिणी कब भंग हुई थी, आजतक गठित नहीं हुई है। आर्ट कालेज को अच्छे शिक्षक चाहिए, उनकी नियुक्तियां कहां हैं?

Two paintings by Anandi Prasad Badal, Senior artist, Bihar. Image credit: Artist’s collection
© Folkartopedia library

लेकिन नीतीश सरकार तो कलाकारों को प्रमोट कर रही है। दूसरे प्रदेश के कलाकार बिहार आते हैं, खूब कला-सृजन कर रहे हैं। पूरे देश से कलाकार बिहार आना चाहते हैं। फिर अपने कलाकारों से ये बेरुखी?

इसलिए कि हमारे कलाकार कला सृजन नहीं करते। आप एकाध को छोड़ दीजिए, तो ज्यादातर कलाकारों की कला का स्तर क्या है, यह उनकी कला को देखते ही आपको पता चल जाएगा। बाहर के कलाकारों से उनकी तुलना कीजिए, तो हमारे कलाकारों के प्रति सरकार की बेरुखी का कारण आमतौर पर समझ में आ जाता है। यह पीछे से ही चला आ रहा है। तभी बिहार में जन्मे एक भी किसी को पद्मश्री सम्मान नहीं मिला। अभी तक आधुनिक कला में बिहार के दो कलाकारों को ही पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। पहला नाम उपेंद्र महारथी का है। वे उड़ीसा के थे, हालांकि यहीं के होकर रह गये। उन्होंने दरभंगा मधुबनी जिले में कला-शिल्प का जीर्णोद्धार किया। उनका दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण योगदान है उपेंद्र महारथी संस्थान। उनके बाद अभी-अभी श्याम शर्मा को पद्मश्री मिला है, वह मूलत: यूपी के हैं। हमारे अपने कलाकारों ने क्या किया, यह बहुत सवाल है जिसकी तरफ कोई झांकना नहीं चाहता है।  

आपकी कला-यात्रा की शुरुआत कब और कैसे होती है?

मेरे कला जीवन की शुरुआत आजादी के बाद हुई। मैंने 1954 में आर्ट कॉलेज में दाखिला लिया। उपेंद्र महारथी के पटना आने के बाद। मैं उनके साथ ही रहता था। आप मेरे चित्रों पर उनकी रंग योजना का प्रभाव देख सकते हैं। महारथी जिन रंगों से पोर्ट्रेट बनाते थे, वे रंग मुझे आज भी दिखते हैं। तब वाश पेंटिंग और टेम्परा का चलन था। मैं भी वही कर रहा था। हमारे गुरु बटेश्वर नाथ श्रीवास्तव थे। वे भी टेम्परा में काम करते थे। इसलिए हमलोगों ने भी टेम्परा में काम किया। फिर मैं बंबई गया। वहां मैं वरिष्ठ कलाकार कनु देसाई के संपर्क में आया जो वाश पेंटिंग करते थे। महारथी भी वाश पेंटिंग करते थे। इसलिए उन दोनों कलाकारों से प्रभावित हो मैंने भी वाश पेटिंग में काम करना शुरू किया और फिर खूब काम किया। दुर्भाग्य की बात यह है कि जब मेरे घर में लगी थी, तब उसमें मेरी करीब दो हजार पेंटिंग्स जल गयीं। उससे पहले आयी बाढ़ ने करीब आठ हजार पेटिंग्स को नष्ट कर दिया था। लेकिन, मैंने कभी हिम्मत नहीं हारी। मेरी कला-यात्रा अभी भी जारी है।

आपकी कला में अमूर्तन कब से आना शुरू हुआ?  

जापान और फिलीपींस की यात्रा के बाद। अमूर्त कला का प्रयोग वहां से लौटने के बाद शुरू हुआ। उन दिनों गांधी मैदान में कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगती थी। जिन दर्शकों को मॉडर्न आर्ट पसंद नहीं आता था, उनके लिए हम रियलिस्टिक चित्र बना देते थे। लेकिन, उससे मुझे संतुष्टि नहीं मिलती थी। वह तो मॉडर्न आर्ट में मिलती थी, जिसमें मेरा अपना स्टाइल है। मेरी पेंटिंग्स जब आप दो-चार बार देख लेंगे तो फिर कभी-भी आपकी आंखें मेरी पेंटिंग्स को पहचान लेंगी। रंग, रंगों के प्रभाव, रेखाएं सभी आपको बता देंगी कि ये बादल का काम है। खैर, दिल्ली में मैंने तीन प्रदर्शनी लगायी। वहां भी ज्यादातर लोग तब रियलिस्टिक पसंद करते थे। मेरी एक प्रदर्शनी रवींद्र भवन में लगी। रामसुतार उद्घाटन में आये थे। उन्होंने भी कहा, ‘बादल, साहब, मॉडर्न मत बनाइये।’ लेकिन, मैंने अमूर्तन में काम जारी रखा।

Anandi Prasad Badal in his studio. Image credit: Rawindra Das © Folkartopedia library

लेकिन, आपकी कलाकृतियों को देखकर यह कह पाना आसान नहीं है कि आपकी कला-यात्रा किस दिशा में बढ़ रही थी या है…

मुझे लगता है कि ऐसा हर कलाकार की कला-यात्रा में होता है। कलाकार अपनी विधा में काम करता है, वह दूसरों की कलाकृतियों को कभी देखता है। जाहिर है, वह कई बार प्रभाव ग्रहण भी करता है। यह स्वाभाविक है। मैं जब आर्ट कालेज से निकला, तब भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री थे। उन्हीं दिनों नेहरू जी की पहल पर भारत सरकार की एक योजना आयी, जिसके तहत हर राज्य से एक कलाकार को विदेश जाना था। उसमें मेरा नाम भी था। मैं नहीं जाना चाहता था। तब डांट पड़ी। उसके पश्चात् मैं जापान और फिलीपींस गया। वहीं मैंने देखा कि मॉडर्न आर्ट क्या है। उसके बाद मैंने कुछ मॉडर्न पेटिंग बनायी। उन्हें आप मेरी पुस्तक “मूर्त रंग अमूर्त रेखाएं” में देख सकते हैं। मेरी कला में आए बदलाओं को भी आप मेरी पुस्तकों के जरिए देख सकते हैं। वैसे, आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैंने चित्रकला, संगीत नृत्य, नाटक पर अबतक नौ पुस्तकें लिखी हैं। सितार भी सीखा है और दो नाटक सोमनाथ और ताजमहल लिखकर उनका मंचन भी किया है।

आपकी पहली पेंटिंग कौन-सी बिकी?

एक वॉश पेटिंग, जिसे पटना हाईकोर्ट के एक वकील ने खरीदी थी। तब आर्ट कॉलेज में एक प्रदर्शनी आयोजित की गयी थी जिसका उदघाटन आर्यावर्त के संपादक ने किया था। उसमे वह पेंटिंग चार सौ रुपये में बिकी। फिर गोवा में प्रदर्शनी लगी, जहां मेरी पेटिंग बिकी। दो साल पूर्व मेरी दस-बारह पेंटिंग्स बिकी जो अब विदेश में हैं। पटना में पेंटिंग ज्यादा नहीं बिकती हैं, लेकिन पोट्रेट बनाने से मेरा खर्च चल जाता है।

अन्य प्रदेश के किन कलाकारों के साथ आप ज्यादा संपर्क में रहे, किन्हें सबसे ज्यादा याद करते हैं?

वैसे तो अनेक कलाकार हैं, लेकिन यहां मैं तीन कलाकारों का नाम लेना चाहूंगा। पहला, मद्रास आर्ट कॉलेज के प्रिंसिपल रहे डी.पी.राय चौधरी का। एक बार जब वह एक मूर्ति के सिलसिले में पटना आए, तब मैं उनके करीब आया। मुझे उनका आशीर्वाद चाहिए था। वो बड़े थे और उनके आशीर्वाद के बदले मुझे रोज उनका पैर दबाना पड़ता था। वो गुरु थे, बहुत बड़े कलाकार। खूब स्केच भी करते थे और अक्सर मेरा स्केच बुक अपने स्केच से भर देते थे। फिर पैसा भी देते थे। कहते थे, जाओ दूसरा स्केच बुक ले आओ। सब जल गया, नहीं तो दिखाते आपको। मैं उनके अलावा कनु देसाई और महारथी जी के भी काफी करीब रहा। तीनों को मैं खूब याद करता हूं।

हमसे बात करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

आपको भी बहुत-बहुत धन्यवाद।

SUPPORT THE FOLKARTOPEDIA

Folkartopedia Archive is an online open resource of folk, traditional and tribal arts and expressions. We are constantly documenting artists, artworks, art villages, their artistic expressions, cultural heritage and other aspects of their life, to develop and enrich the archive that deserves you. We usually ask, what is the necessity of documentation and archives of arts? The answer is simple, what cultural heritage will we leave behind for our future generations in absence of documented work?

This effort cannot be a success, without your support. We need you and your support. If you think, the role of Folkartopedia is important, please support us.

You can help us by Instant Giving here.

Disclaimer:

The opinions expressed within this article or in any link are the personal opinions of the author. The facts and opinions appearing in the article do not reflect the views of Folkartopedia and Folkartopedia does not assume any responsibility or liability for the same.

Folkartopedia welcomes your support, suggestions and feedback.
If you find any factual mistake, please report to us with a genuine correction. Thank you.

 

Receive the latest updates

GET IN TOUCH

Folkartopedia is the leading resource of knowledge on folk art and expression in India. Stay connected.