समकालीन कथक पर प्रलाप बेवजह: पद्मश्री शोवना नारायण

Padma Shri Shovana Narayan

पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कथक नृत्यांगना शोवना नारायण जितनी लोकप्रिय परंपरागत कथक प्रेमियों के बीच हैं, उतनी ही लोकप्रिय समकालीन या कंटेंपररी कथक प्रेमियों के बीच भी। उनका मानना है कि कथक में दोनों ही धाराएं समानांतर रही हैं और समान रूप से पसंद भी की जाती रही हैं। एक धारणा यह भी है कि समकालीन कथक ने परंपरागत कथक को नुकसान पहुंचाया है। इसी संदर्भ में हमने उनसे विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत है यहां उसी बातचीत का एक अंश :-   

फोकार्टोपीडिया: कथक को लेकर इन दिनों एक और शब्द काफी प्रचलन में दिखता है, कंटेंपररी कथक। दोनों के बीच अंतर क्या है ?

शोवना नारायण: समकालीन कथक को इन शब्दों में बयान किया जा सकता है कि वह कथक जिस पर आज के माहौल, गीत, संगीत और अन्य कला विधाओं का असर प्रत्यक्ष दिखाई दे। परंपरागत कथक को लेकर अक्सर एक सोच होती है कि मंच पर कलाकार का वही परंपरागत प्रवेश होना चाहिए, भूमि प्रणाम होना चाहिए और पुराने समय से चली आ रही एक मार्गी प्रस्तुति का सिलसिला होना चाहिए। अंग की तैयारी पढ़ंत के जरिए होनी चाहिए, उसके बाद अभिनय क्रम की शुरुआत होनी चाहिए और तब उसे क्लाइमेक्स तक पहुंचना चाहिए जिसमें तराना है, पैरों की द्रुत थिरकन है या कलाकार अपनी प्रस्तुति को जिस भी रूप में अंत तक पहुंचाना चाहे। समकालीन कथक इस मायने में अलग हो जाता है कि वहां प्रस्तुति किसी खास विषय पर केंद्रित हो जाती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि समकालीन कथक में पढ़ंत का प्रचलन नहीं है। जहां पढ़ंत आता है वहां हम उसे परंपरागत कथक में ले लेते हैं। कथक के ये दोनों रूप हमेशा से हमारे यहां रहे हैं। इसलिए दोनों में बहुत अंतर नहीं है। कथक की ये दोनों धाराएं एक साथ चलती आ रही हैं। हर प्रस्तुति की, हर रचना की मांग अलग होती है और उसी हिसाब से कथक को अपना आकार लेना होता है। जो लोग समकालीन कथक को लेकर शोर मचा रहे हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि कथक हर दौर में समकालीन रहा है और उसमें समकालिकता के सभी तत्व मौजूद रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो थीमैटिक कथक पहले नहीं होता। यह समझना होगा कि राधा तब तक राधा नहीं होती जब तक जयदेव ने उन्हें राधा नहीं बनाया होता। तब वह एक थीमैटिक कंटेंट था, खोज थी, अब भले ही वह परंपरा बन गयी। 16वीं शताब्दी में ध्रुपद अंग तराना को ही ले लीजिए, वह तब समकालीन था और अब परंपरा है।

फ्यूजन कंटेंपररी में आ जाता है। इसमें नृत्य एवं मंचन के अलग अलग तत्वों का समावेश होता है, लेकिन फ्यूजन की आयु क्या होगी, यह अभी बता पाना संभव नहीं है। अगर फ्यूजन बहुत लंबे समय तक जीवित रहता है, तब वह परंपरा का अंग बन सकता है या बन जाएगा। अन्यथा चाहे वह नृत्य में हो या संगीत में, वह एक बुलबुले की तरह है।  

अक्सर कथक को लेकर समीक्षकों और आलोचकों के बीच एक शोर भी सुनाई पड़ता है कि कंटेंपररी कथक, कथक के मूल स्वरूप को नुकसान पहुंचा रहा है। आप क्या मानती हैं ?

नहीं। न तो समकालीन कथक परंपरागत कथक को हानि पहुंचा रहा है और न ही परंपरागत कथक समकालीन कथक को। दोनों चीजें साथ-साथ चलती हैं। हमारी 98 फीसदी प्रस्तुतियां परंपरागत कथक का हिस्सा होती हैं। दो फीसदी ही किसी थीम पर आधारित होती है। लोग थीम पर आधारित प्रस्तुतियों की चर्चा इस वजह से ज्यादा करते हैं क्योंकि वह अभी पूरी तरह से स्वीकार नहीं की जा सकी हैं। 98 फीसदी की चर्चा इसलिए नहीं होती है क्योंकि वह पूरी तरह से स्वीकृत हैं। इसी वजह से चर्चा दो फीसदी वाले कथक की ज्यादा होती है। परंपरागत पढ़ंत तरीके से किया जाने वाला कथक अभिनय क्रम के साथ समकालीन हो जाता है, इसलिए दोनों ही एक साथ चल रहे हैं। युवा भी खुद को परंपरागत कथक से ही खुद को सिद्द करना चाहते हैं, यह मजेदार है।

भारतनाट्यम, कथकली, ओडिसी अगर सबको एक साथ देंखे तब आधुनिक समय में समकालीनता के लक्षण कब प्रत्यक्ष होते हैं ?

कथक में समकालीनता शुरू से थी, लेकिन यह दिखा 1930 के आसपास, न केवल कथक में बल्कि अन्य नृत्य विधाओं में भी। मसलन दासीअट्टम से भरतनाट्यम हुआ या अन्य विधा में। पहले संगीतकार नृत्य करने वाले के पीछे-पीछे अपने वाद्ययंत्रों को लेकर चलते थे, उनके बैठने की जगह तय की गयी, यह सब समकालिक होने और प्रस्तुतिकरण के तत्व थे। यह सभी नृत्य विधाओं में दिखा। कथक में मैंने सुंदर प्रसाद जी का नृत्य देखा, शंभू महाराज जी, लच्छो महाराज जी नृत्य देखा और बिरजू महाराज जी से तो मैंने नृत्य सीखा ही। इनलोगों की नृत्य शैली और महाराजा जी की नृत्य शैली में काफी अंतर है। दोनों एक ही घराने से हैं, चाचा-भतीजा हैं, लेकिन दोनों की शैली अलग है, मंच पर प्रस्तुति का अंदाज जुदा है। इस लिहाज से यह भी उस जमाने का कंटेंपराइजेशन हुआ। यानी आत्म वही है, लेकिन उसे प्रस्तुत करने का अंदाज जुदा है। कथक का ग्रामर वही रहता है लेकिन अपनी सोच के साथ उसमें नयी-नयी परतें खुलती चली जाती हैं। जाहिर है कथक में तभी नए-नए अंकुर भी फूटेंगे।   

कथक से कंटेंपररी कथक की तरफ आपका रूझान कैसे हुआ ? वो भी इस हद तक कि चालीस साल से भी ज्यादा लंबी अपनी साधना के दौरान आप न केवल स्वयं कथक की पर्याय बनती गयी, बल्कि आपने समकालीन कथक को परंपरागत कथक के समानांतर ला खड़ा किया।

जहां तक मेरा सवाल है और मेरी प्रस्तुतियों का है, उस पर मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि का काफी असर रहा है। हमारे घर पर भारतीय दर्शन, संस्कृत एवं हिन्दी साहित्य एवं धार्मिक विचारों का बड़ा प्रभाव रहा है और इसका असर मुझ पर भी पड़ा। घर में समाज सेवा की भी भावना थी। इन सबको देखा है। मैंने बचपन से ही कृष्ण राधा का छोड़छाड़ देखा है जो मेरे हिसाब से दर्शन का विषय है। बहरहाल, मेरी पहली गुरु साधना बोस के चले जाने के बाद जब पहली बार मुझसे उनकी एक प्रस्तुति को करने को कहा गया तब, मैंने पहली बार उमर खैयाम किया। उमर खैयाम की प्रस्तुति में महज छेड़छाड़ नहीं थी, बल्कि उसमें आत्मा और परमात्म के बीच के सास्वत संबंध की बात थी। इस संबंध की शुरुआत हुई 1973 से। उसके बाद मैंने मैथलीशरण गुप्त की यशोधरा पढ़ी और उस पर तो मैं मंत्रमुग्ध हो गयी। मैंने 78-79 के आसपास यशोधरा किया। तात्पर्य यह कि मेरी प्रस्तुतियों में छेड़छाड़ वाली ठुमरी तो थी, लेकिन उससे इतर मैं यशोधरा, उमर खैयाम भी कर रही थी। 1979 में मैंने बांसुरी और सूफी संगीत पर आधारित प्रस्तुती दी। महादेवी वर्मा की मैं नीर भली दुख की बदली भी की। यानी एक तरफ पढ़ंत पर आधारित प्रस्तुतियां मैं कर रही थी तो दूसरी तरफ अभिनय आधारित नृत्य भी। शायद इसी वजह से मेरी छवि कंटेंपररी कथक डांसर की बनी। हिन्दी और संस्कृत साहित्य पर आधारित नृत्य पर मेरा ज्यादा जोर था जो तेजी से उभरा।

कंटेंपररी कथक की बढ़ती लोकप्रियता की वजहें क्या रहीं? सिनेमा भी उसका एक कारण रहा ?

नहीं ऐसा नहीं है। बॉलीवुड में नृत्य को लेकर पूरी सोच ही अलग है जबकि कथक की अपनी अलग यात्रा है। हर समय कंटेंपररी कथक था। जब बिंदादीन महाराज ठुमरियां लिखते थे, तब भी तो कंटेंपररी कथक था। उससे पहले कथक ध्रुपद धमार पर होता था। जाहिर है, चाहे नृत्य हो संगीत हो या कोई और विधा, अगर उसमें परिवर्तन नहीं होगा तो दम तोड़ देगा। अगर ऐसा नहीं होता तो करीब ढ़ाई हजार वर्षों से चली आ रही हमारी परंपरा कैसे जीवित रहती। कोई मौर्यकालीन साहित्य को उठाकर देख ले, वहां भी कथक है और उसमें अभिनय का पुट भी है। तो क्या वह तब के लिए कंटेंपररी नहीं था। तब के लोग किस तरह से श्रंगार नृत्य कर रहे थे। बाणभट्ट के हर्षचरित और बाद में वर्ण रत्नाकर में भी कथक मिलता है। इसमे तो यहां तक कहा गया है कि कथक के जरिए राजा की प्रशंसा तक की जा सकती थी, यानी कंटेंपररी हमेशा रहा है। यही स्थिति रागों को लेकर भी है। लोग कहते हैं कि आज 360 राग है, आज ज्यादा भी हो गये होंगे। इतने राग पूर्व में तो नहीं थी। यह अदलोबदल तो चलता रहता है।

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