सुनील कुमार I कला शोधार्थी, लोक कलाओं के अध्ययन में विशेष रूची, संस्थापक-फोकार्टोपीडिया
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बिहार का पूर्णिया जिला वृहद मिथिलांचल का हिस्सा माना जाता है। पूर्णिया का औराही हिजना गांव देश के सुप्रसिद्ध कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की जन्मस्थली है। बपचन से ही रेणु अपने आसपास गांव-देहात की कलाओं के साक्षी रहे, इसलिए कलाओं के प्रति उनका अनुभव स्वाभाविक रूप से उनकी रचनाओं में स्थान पाता है। अपनी सुप्रसिद्ध कहानी ‘ठेस’ में उन्होंने लोककलाओं की दुर्दशा का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। ‘ठेस’ का नायक है ‘सिरचन’। ‘सिरचन’ के बहाने रेणु लोककलाकारों की दुर्दशा का चित्रण किस प्रकार करते हैं और उनके प्रति समाज की संकीर्ण दृष्टि पर किस प्रकार प्रहार करते हैं, उसकी एक बानगी देखिये:
“उस गांव ही नहीं, उस क्षेत्र में वह एकमात्र ऐसा कारीगर है, जो अपने क्षेत्र में महारत हासिल किये हुए है। मोथी घास और पटेर की रंगीन शीतलपाटी, बांस की तीलियों की झिलमिलाती चिक, सतरंगे डोर में मोढ़े, भूसी-चुनी रखने के लिए मूंज की रस्सी के बड़े-बड़े जाले, हलवाहों के लिए ताल से सूखे पत्तों की छतरी टोपी तथा इसी तरह के बहुत से काम हैं, जिन्हें सिरचन के आलावा गांव में कोई नहीं जानता। यह दूसरी बात है कि अब गांव में ऐसे कामों को बेकाम का काम समझते हैं। बेकाम का काम, जिसकी मजदूरी में अनाज या पैसे देने की कोई जरूरत नहीं। पेट भर खिला दो, काम पूरा होने पर पुराना-धुराना कपड़ा देकर विदा करो। वह कुछ नहीं बोलेगा ”।
कहानी के मुताबिक, कोठी की मालकिन की सबसे छोटी बेटी मानू के ससुराल से चिट्ठी आयी है, जिसमें दूल्हे ने बड़ी भाभी को चेतावनी दी है कि “मानू के साथ मिठाई की पतीली न आये, कोई बात नहीं। तीन जोड़ी फैशनेबल चिक और पटेर की दो शीतल पाटियों के बिना आयेगी मानू तो…”। कहानी विविध प्रसंगों से अपने रौ में आगे बढ़ती है, लेकिन मिथिलांचल की भूमि पर चिक, शीतलपाटी, डलिया, मूंज की रस्सी, सिक्की के मर्तबान और इन जैसे अनेक रोजाना उपयोग की वस्तुओं की महत्ता क्या थी और उससे जुड़े कलाकारों की दुर्दशा क्या है, इसका रेणु ने अद्भुद चित्रण किया हैं।
रेणु की कहानी ‘ठेस’ के रचनाकाल के समय से लेकर उन कलाकारों के प्रति ग्रामीण या शहरी समाज का दृष्टिकोण आज कितना बदला है, इसका अंदाजा लगाना हो तो मिथिलांचल के उन तमाम गांवों में से किसी एक का भी चक्कर लगा आइये, जहां के परिवेश में ये कलाएं अपने लिए संजीवनी पाती हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि गांव-देहात के कलाकारों की खुरदुरी उंगलियों का स्पर्श पाते ही ये कलाएं न केवल खिल उठती हैं, बल्कि मिथिला चित्रकला के विपरीत इस बात से बेपरवाह खिल उठती हैं कि उसका मोल मिलेगा भी या नहीं? लेकिन मोल का सवाल महत्वपूर्ण है। अक्सर हम यह बात कहकर कलाकारों की मूल समस्याओं और उन समस्याओं के परिणाम, गरीबी, तंगहाली, समाज की संकीर्ण मानसिकताओं और उससे जुड़ी विडंबनाओं को नजरंदाज कर देते हैं कि कला का मोल क्या होगा, वह तो अनमोल है।
बहरहाल, सिक्की कला और उसके कलाकारों के वर्तमान पर चर्चा से पूर्व यह जान लेना आवश्यक होगा कि आखिर सिक्की कला अथवा शिल्प क्या है, वह किन रूपों में मिथिलांचल समाज का हिस्सा है। यह जानना भी आवश्यक है कि एक-एक सिक्की किस तरह से आपस में गुंथकर कला का, कलात्मक वस्तुओं का रूप धारण कर लेती है। लेकिन, सबसे पहले सिक्की कलाकारों के बसावट की बात।
बिहार में सिक्की कला के कलाकारों या शिल्पकारों की बसावट मुख्य रूप से सीतामढ़ी से लेकर मधुबनी और दरभंगा क्षेत्र तक है। सीतामढ़ी के सुरसंड, परिहार, रून्नीसैदपुर, मधुबनी के जितवारपुर, रांटी, लहेरियागंज, शाहपुर, उमरी बलिया, पंडौल, रैयाम, रशीदपुर, सरिसोपाही, सुरसंड, यदुपट्टी, करुणा-मल्लाह और दरभंगा के माधोपुर, झंझारपुर, लहरियासराय, मौलागंज, पंडासराय, बरहेता, खराजपुर आदि गांवों में सिक्की के परंपरागत कलाकार बसते हैं। ये सोन घास के कलाकार हैं। सोनघास यानी सिक्की। सोनघास आमतौर पर भारी वर्षा के क्षेत्र में उगती है, तालाब के आसपास या दलदली क्षेत्र में। सिक्की के साथ-साथ खर, मूंज और सरकंडे भी बहुतायत में उपजते हैं। इन सब की मदद से सिक्की कलात्मक वस्तुओं का रूप धारण करती है।
सिक्की कलात्मक शिल्प का रूपाकार हासिल करे, उसकी प्रक्रिया के कई चरण हैं। सबसे पहले सिक्की तैयार की जाती है। यह सावा घास से तैयार होती है जिसकी लंबाई तीन फीट से छह फीट तक की होती है। सावा घास की बाहरी कई परतों को हटाने के बाद अंदर से मुलायम सिक्की निकलती है, जिसकी लंबाई दो से तीन फीट होती है। इस सिक्की को कुछ प्रक्रियाओं के बाद मनचाहा रंग और आकार दिया जाता है।
पहली प्रक्रिया है, मुलायम सिक्की को बीचो-बीच चीर देना और धूप में सुखाना। सूखने के पश्चात् सिक्की को इस्तेमाल के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है। जब सिक्की को कोई रूपाकार देना होता है, तो उसे सादे पानी में दो बार उबाला जाता है। इससे सिक्की मुलायम हो जाती है। फिर सिक्की को रंगा जाता है।
रंगने के लिए सिक्की कलाकार पहले प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करते थे। रंग घर में बनाये जाते थे। अब सिंथेटिक रंगों का प्रयोग होता है। रंगों को उबलते पानी में बबूल या बेल का गोंद या लस्से को डालकर पक्का किया जाता है और फिर उसमें सिक्की के एक-एक मुट्ठे को बारी-बारी से डाला जाता था। जरूरत के हिसाब से इस प्रक्रिया को दुहराया जाता है। रंगने के बाद सिक्की को ठंडा कर उसे सर्फ के पानी से धोया जाता है। इसके दो फायदे होते हैं। एक, रंग स्थायी हो जाता है और दूसरा, सिक्की चमक उठती है।
इस चरण के बाद सिक्की कलात्मक वस्तुओं जैसे डौली, मौनी, पौती, गुलदान, कछुआ, सूरज, मछली, वृक्ष, शिव-पार्वती, नाग-नागिन और न जाने कितने अनगिनत पारंपरिक और आधुनिक रूपाकारों को धारण करने के लिए तैयार हो जाती है।
सिक्की को रूपाकार देने के उपकरण अत्यंत ही साधारण हैं और गांव-देहात में आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। मुख्य रूप से दो उपकरणों का प्रयोग होता है। पहला, टकुआ या सूआ और दूसरा, कटर या कैंची। टकुआ पांच-छह इंच लम्बी मोटी सुई या सुआ होता है, जिसके एक हिस्से पर लकड़ी का हत्था लगा होता है। टकुआ और कटर की मदद से ही सिक्की रूपाकृतियों में ढलती है। जैसे- घरों को सजाने का सामान, शीतलपाटी, आभूषण या अन्य छोटे-बड़े सामान रखने के डब्बे आदि। सिक्की के छोटे-बड़े डब्बे का प्रयोग ड्राई-फ्रूट्स, मसाले, फूल पत्ती आदि रखने के काम में होता है।
यहां सिक्की से जुड़ी परंपराओं की चर्चा भी आवश्यक है। सिक्की शुभ मानी जाती है, इसलिए उसका प्रयोग मांगलिक कार्यों में खूब होता है। मसलन, शादी-विवाह या संस्कारों में। मिथिलांचल में परंपरा है कि जब दूल्हा विवाह के लिए वधु के गांव घर पहुंचता है, तब वधु पक्ष के लोग विवाह का आमंत्रण देने जाते हैं। वहां दूल्हे को सिक्की के डब्बे में पान-सुपारी आदि भेंट दिया जाता है। विवाह पश्चात् वधू को पउती में गृहस्थी का साजो-सामान दिया जाता है।
अब चर्चा वर्तमान की। सिक्की कला का वर्तमान, भविष्य की संभावनाओं और मुख्य रूप से सरकारी मदद पर टिका दिखता है। सरकार के पास योजनाएं हैं। मसलन, सिक्की केंद्रों का विकास, ट्रेनिंग और स्किल डेवलपमेंट की योजनाएं, बाजार तैयार करने से लेकर कलात्मक वस्तुओं के विपणन और बिक्री तक की व्यवस्था से संबधित योजनाएं। हाल के समय में बिहार सरकार से सिक्की कलाकारों को काफी मदद मिली है, खासतौर पर सरकार की ‘जीविका योजना’ से कलाकारों के जुड़ने के बाद। जीविका ने उन्हें बाजार भी उपलब्ध कराया है। उसके माध्यम से कलाकार अपनी कलाकृतियों की प्रदर्शनी दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, गोवा आदि स्थानों पर लगा रहे हैं। राजीव सेठी जैसे कला प्रेमियों, उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान, पटना की मदद से आयोजित डिजाइन वर्क्स शॉप्स के बाद कलाकृतियों की गुणवत्ता और उनके डिजाइन्स में आधुनिकीकरण का प्रभाव देखने को मिलता है, लेकिन सिक्की कलाकारों की मूल समस्या दूसरी है।
झंझारपुर के रैयाम गांव की वरिष्ठ सिक्की कलाकार मुन्नी देवी कहती हैं कि “कलाकारों की सबसे बड़ी समस्या सिक्की का अभाव है। मिथिला में सिक्की की व्यापक पैदावार होती है। बरसात में यह बहुतायत में उगती है। तब प्रति किलो उसका भाव 200 से 300 होता है, लेकिन ऑफ सीजन में इसकी कीमत दोगुनी-तिगुनी हो जाती है क्योंकि तब मांग बढ़ जाती है। भंडारण की सुविधा है नहीं। समस्या यह भी है कि तैयार सामानों को कहां रखा जाये क्योंकि उन्हें घर में ज्यादा दिन रखने से उन पर धूल जम जाती है, तब उसे बाजार में बेचना संभव नहीं होता।”
रैयाम की ही युवा कलाकार नूतन कहती है कि हम जिस हिसाब से सिक्की की कलात्मक वस्तुओं बनाते हैं, उस हिसाब से हमें मोल नहीं मिलता। हमें बाजार की आवश्यकता है ताकि हम स्वयं को स्थापित तो कर पाएं ही, हमारे बनाये सामान को वाजिब मूल्य मिल सके। कई स्थानीय कलाकारों ने नाम नहीं लिखने की शर्त्त पर बताया कि बाजार से लेकर संसाधन उपलब्ध कराने तक में सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन सरकार ने अपना ज्यादातर काम गैर-सरकारी संगठनों के हवाले किया हुआ है जिनके अपने तौर-तरीके हैं, चिंताएं हैं। इससे कलाकारों को नुकसान उठाना पड़ता है।
रैयाम के ज्यादातर कलाकार, जिनसे मेरी मुलाकात हुई, उपरोक्त परेशानियों के अलावा उनका कहना है कि सरकार को चाहिए कि वह हमें ज्यादा से ज्यादा नये डिजाइन्स उपलब्ध कराए और नियमित अंतराल पर डिजाइन वर्क शॉप कराए ताकि हम बाजार के लिहाज से उत्पाद बना सकें और बाजार भी बढ़े लेकिन, डिजाइन डेवलपमेंट का काम कागजों पर चल रहा है, बाजार बढ़ेगा कैसे? उनका ये भी कहना था कि उन्हें उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान, पटना से और राजीव सेठी जैसे लोगों से उन्हें मदद तो मिली है, लेकिन वे नाकाफी नहीं हैं।
रैयाम के स्थानीय कलाकारों की शिकायत में दम दिखता है। 1970 के दशक में जब मिथिला चित्रकला मधुबनी से बाहर निकलकर अपनी पहचान बना रही थी, बिहार की सिक्की कला भी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो रही थी, खासकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाथों रैयाम की बिंदेश्वरी देवी के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित के बाद। बिंदेश्वरी देवी के बाद सुरसंड की कुमुदनी देवी भी राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित हुई। बिंदेश्वरी देवी ने बिहार की सिक्की कला की धमक न केवल पूरे देश में महसूस करवायी, बल्कि अमेरिका और जर्मनी तक में उनकी कला की धमक महसूस की गयी। लेकिन, बिंदेश्वरी देवी और कुमुदनी देवी के बाद न तो केंद्र सरकार ने सिक्की कला की सुध ली और न ही राज्य सरकार ने।
1982 में व्यासजी मिश्र के झंझारपुर के अनुमंडलाधिकारी नियुक्त होने के बाद रैयाम के ही कामेश्वर ठाकुर के यहां सिक्की कला के प्रशिक्षण हेतु पहली बार प्रशिक्षण-सह-उत्पादन केंद्र बनाया गया। 1986 में मधुबनी के उप-विकास आयुक्त बनने के बाद व्यासजी ने सिक्की कला को काफी प्रोत्साहन दिया। 2008 का वर्ष सिक्की कलाकारों के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव है क्योंकि पहली बार किसी बाहरी व्यक्ति ने सिक्की कला की सुध ली। राजीव सेठी के सहयोग से वहां एक सिक्की सेंटर बना जिससे स्थानीय महिलाएं तेजी से उससे जुड़ीं। इसके बाद उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान ने वहां डिजाइन ट्रेनिंग सहित सामान्य सुविधा केंद्र के निर्माण की शुरुआत की।
विगत कुछ वर्षों में राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने सिक्की कला के विकास पर ध्यान दिया है और ‘जीविका’ के माध्यम से सिक्की शिल्प के लिए बाजार उपलब्ध हुआ हैं। साथ ही, निजी प्रयासों और उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान की कोशिशों से सिक्की कला की चमक एक बार फिर निखरने लगी है। उसमे कई कलाकार तेजी से उभरे हैं, जैसे मुन्नी देवी, सुधीरा देवी, नाजदा खातून, धीरेंद्र कुमार, और भी अनेक नाम। ये कलाकार अब राज्य और केंद्र सरकार की तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे हैं कि उनके लिए नये अनुसंधान केंद्रों की स्थापना की जाएगी, डिजाइन वर्क्स शॉप्स आयोजित किये जाएंगे, संसाधनों को आसानी से उपलब्ध कराने और उनके भंडारण की सुविधा होगी, ताकि सिक्की कला और शिल्प में नवीन प्रयोगों को बढ़ावा मिले और देश-विदेश में उसकी अपनी एक अलग पहचान बन सके।