टेराकोटा में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित बिहार के पहले कलाकार गुप्ता ईश्वरचंद प्रसाद का जन्म 1 जून 1941 को मधुबनी में हुआ था। उन्होंने स्थानीय सूड़ी स्कूल से दसवीं तक की शिक्षा पूरी की। बचपन से ही उन्हें टेराकोटा की मूर्तियां बनाना पसंद था। वह दुर्गा-पूजा, सरस्वती पूजा आदि के लिए मूर्तियां गढ़ा करते थे। स्थानीय आर.के. कॉलेज में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान उन्होंने ड्राइंग और पेंटिंग शुरू कर दी थी।
1958 में इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पटना कला एवं शिल्प महाविद्यालय में दाखिला लिया, जहां उन्होंने पेटिंग और टेराकोटा दोनों में ही काम जारी रखा। इसी दौरान लखनऊ कला विद्यालय में प्राध्यापक और जाने-माने शिल्पकार श्रीधर महापात्र एक वर्कशॉप के लिए पटना आर्ट कॉलेज आए हुए थे। उन्होंने ईश्वरचंद को लखनऊ में मूर्तिकला की शिक्षा ग्रहण करने की सलाह दी।
1961 में पेंटिंग में डिप्लोमा लेने के बाद ईश्वरचंद गुप्ता लखनऊ आर्ट कॉलेज पहुंचे, जहां उन्हें श्रीधर महापात्र और अवतार सिंह पवार का सानिध्य एवं संरक्षण मिला। वहां उन्होंने मिथिला की लोककथाओं के पात्रों को टेराकोटा का विषय बनाकर मूर्तियां गढ़ना शुरू किया। लोककला पर आधारित मूर्तियों के उनके प्रयोग ने जल्दी ही उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा के केंद्र में ला खड़ा किया। वहीं रहते हुए उन्होंने मूर्तिशिल्प की एक सीरीज बनायी थी, जिसका शीर्षक ‘सीता की खोज’ था। इस सीरीज के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश कला अकादमी ने 1965 में कला पुरस्कार से सम्मानित किया।
1966 में इंडियन एकेडमी ऑफ आर्ट, अमृतसर और 1968 में ललित कला अकादमी, दिल्ली ने उन्हें सम्मानित किया। लखनऊ कला महाविद्यालय से मूर्तिकला में स्नातक होने के बाद वहीं उन्होंने प्राध्यापन का कार्य शुरू किया। अगले ही वर्ष उन्हें नेशनल स्कॉलरशिप मिला और मूर्तिकला पर शोध के लिए लिए वो कला भवन, शांतिनिकेतन चले गये। कला भवन में उन्हें तत्कालीन प्राचार्य दिनकर कौशिक, प्रो. रामकिंकर बैज और धनराज भगत का सानिध्य प्राप्त हुआ जिनके मार्गदर्शन में उनका मूर्तिशिल्प और निखरकर सामने आया। उन्होंने मूर्तिकला के साथ-साथ पटसन, पुआल, रंग, बांस की रस्सी आदि माध्यमों में विविध प्रयोग किये और माध्यमों की सीमाओं को तोड़ा।

दो वर्ष के शोध कार्य के उपरांत ईश्वरचंद वापस लखनऊ लौटे। इस बीच 1970 में उन्हें ब्रिटिश काउंसिल की तरफ से स्कॉलरशिप मिला, जिसके तहत उन्होंने लंदन जाकर शोधकार्य करना था। कहा जाता है कि कॉलेज प्रशासन की तरफ से अनुमति नहीं मिलने के बाद वो अनशन पर बैठ गये, जिसके बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। तब कुछ कलाकारों और तत्कालीन राज्यपाल अकबर अली खान की मदद से उनकी रिहाई हुई और 1974 में उन्हें लंदन जाकर शोधकार्य करने की अनुमति मिली।
लंदन के संत मार्टिन स्कूल ऑफ आर्ट्स में उन्होंने एक वर्ष तक मूर्तिकला में शोधकार्य किया और एडवांस प्रशिक्षण प्राप्त किया। तत्पश्चात् उन्होने रॉयल कॉलेज ऑफ आर्ट्स सेस कांसा मूर्ति ढलाई की पढ़ाई की। उन्होंने 1976 से 78 तक सिरेमिक यूज इन स्कल्पचर पर सर जॉन कैस सिटी पोलीटेकनिक में शोध कार्य किया। इस दौरान ईश्वरचंद की एक कलाकृति को रॉयल एकेडमी की एक प्रदर्शनी में भी शामिल किया गया।
शोधकार्य के बाद ईश्वरचंद को वापस लखनऊ लौटना था, लेकिन वे तय सीमा के बाद वापस नहीं लौटे। उनके वीजा की अवधि भी समाप्त हो गयी। तब लंदन में अजीत सिंह हामरा ने अपने घर में शरण दी। इसी बीच लंदन में एशियाई लोगों के खिलाफ एक आंदोलन चला और उसी आंदोलन के दौरान भारतीय उच्चायोग ने उन्हें 1981 में जबरन दिल्ली वापस भेज दिया।
ईश्वरचंद लंदन से ढेर सारी कलाकृतियों, पुस्तकों और शोध-पत्रों के साथ दिल्ली लौटे जिसे उनके किसी मित्र ने चुरा लिया। दिल्ली से वो लखनऊ आर्ट कॉलेज लौटे, जहां उनकी कार्य-सेवा समाप्त की जा चुकी थी। एक के बाद एक आघातों से परेशान हो ईश्वरचंद मधुबनी लौटे और कहा जाता है कि फिर उनकी हालत आर्धविक्षिप्त जैसी हो गयी।
1993 तक ईश्वरचंद गुमनामी में रहे। स्थानीय कलाकारों का ध्यान उनकी तरफ तब गया जब ख्यातिलब्ध गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह अर्धविक्षिप्त हालत में मिले और यह खबर पूरे देश में फैल गयी। स्थानीय कलाकारों ने ईश्वरचंद की मदद के लिए पटना में धरना-प्रदर्शन किया, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं मिला।
2014 में बिहार सरकार ने गुप्ता ईश्वरचंद प्रसाद को राज्य के सर्वोच्च कला पुरस्कारों में एक ‘लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड’ से अलंकृत किया। ईश्वरचंद आज भी मधुबनी में रहते हैं।
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