मनोज कुमार झा I चर्चित युवा कवि। कविता के लिए “भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (2002)”। विचारपरक कृतियों के अनुवाद कार्य में रूचि है। ग्रामीण जीवन और लोकजीवन के अध्ययन, विश्लेषण की ओर रुझान है। दरभंगा में रहते हैं।
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कला का भी अपना दंश होता है। जहां एक तरफ यह कलाकार की मानसिक बनावट की नजाकत एवं अन्य जटिलताओं से पैदा होता है, वहीं दूसरी तरफ जब एक पूरा समुदाय अपनी आजीविका के लिए कला (नाचना, गाना कवित्त रचना) पर निर्भर रहता है, पर कला सम्मान तो दूर, सामान्य मनुष्योचित सम्मान भी नहीं दिला पाती और आर्थिक सहूलियत भी नहीं, तो ऐसे में अपनी कला के कांटे कलाकार को ही घायल करते हैं। ऐसा ही जाति समूह पमरिया है जो मुस्लिम धर्म के अनुगामी हैं, मगर नाचने गाने के बदले में उपहार पाने के लिए हिन्दुओं के आंगन को लोककला से रोशन करते हैं। यहां सांप्रदायिक सदभाव जैसे किसी तयशुदा खांचे में इस गतिविधि को रखना इस गतिविधि की जटिलताओं को नजरंदाज करना होगा। बल्कि यह सांप्रदायिक सहजीवन की आड़ी-तिड़छी रेखाओं से लिखी गई गूढ़ अभिव्यंजनाओं वाली इबारत है।
ये बच्चों के जन्म पर (खासकर बेटों के) नाचते गाते हैं एवं जजमानों से जो कुछ मिल जाता है उसपर निर्भर रहते हैं। अन्य पेशा वाली जातियों की प्राप्तियां जहां तय हुआ करती हैं, वहीं पमरिया आदि जातियों की आमदनी पूर्णत: जजमान के मूड पर निर्भर करती हैं। पुराने जाति संबंध अपनी बहुविध जटिलताओं के साथ बदल रहे हैं। घर-घर जाकर डाढ़ी-बाल बनाने वाले नाइयों ने गांव के चौक पर सैलून खोल लिये हैं जो कि जजमानों के दरवाजे पर जाने के बजाये अपने द्वारा संरचित क्षेत्र (सैलून) में आने की दावत देते हैं। मगर इन बदलावों के क्रम में पुरानी व्यवस्थाओं के दुर्गुणों और नई व्यवस्थाओं की मुश्किलों के बनाये गये घेरे के बीच वे लोग फंस गये हैं जिनकी आर्थिक स्थिति कमजोर है। पमरिया एक ऐसा ही समुदाय है जो पुराने संबंधों की चोट भी खा रहा है और नये समय में कुछ ऐसा नहीं कर पा रहा है जो इसे बेहतर जीवन की तरफ ले जाये।
कल्पना कीजिए किसी उत्तर भारतीय ग्रामीण हिन्दू के आंगन में तीन मुसलमान आते हैं, आने के बाद बगल के घरों से स्त्रियां जमा होने लगती हैं, एक स्त्रियों का संसार बस जाता है जिसके भीतर तीन मर्द हैं। एक अगुवा यानी कि लीडर है, जिसे मिलने वाले उपहार के आधे हिस्से पर हक है। अगुवा अपने पुरुषोचित माने जाने वाले वस्त्रों को बदलकर घाघरा चूनर पहन लेते हैं। ये ढोलकी और झालर संभाल लेते हैं और आहे दुर्गा जी के नामे”, “आहे भोला बाबा के नामे” दुहराते-दुहराते नाचना गाना शुरू करते हैं, स्त्रियों से मजाक करते रहते हैं, बच्चों को गोद में लेकर दुलारते हैं, इस्लाम को मानने वाले ये तीनों नचारी, महेशवाणी गाने लगते हैं और स्थानीय भाषा मैथिली में कुछ दास्तान भी सुनाते हैं जिसमें हिन्दू और मुस्लिम संप्रदाय के चिन्हों, प्रतीकों की दिलचस्प आवजाही होती रहती है। फिर बच्चों की तेल से मालिश करते हैं और आशीर्वाद देते हैं।
इन कलाकारों का सम्मान हो, ये आर्थिक मुश्किलों में न रहें, कभी तो हम ये सोचे। ये भी कि सिर्फ खबर का आइटम नहीं बने रहे ये और न ही इन्हें ये कहना पड़े कि खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक।
यह कितना अच्छा दृश्य हो सकता था, मगर अफसोस कि ऐसा नहीं हो पाता है। अपनी भूख मिटाने के लिए नाचना अपनी कलात्मक तृप्ति के लिए नाचना नहीं है, मगर भूख के नाचे या रसूख के लिए, कला थोड़ी देर के लिए सही, एक ऐसे तात्कालिक वृत का निर्माण कर देती है जिसके भीतर रहकर हम संसार के जंजालों से थोड़ी देर के लिए मुक्त महसूस करते हैं। मगर इस मुक्ति की अपनी पेचिदगियां हैं। इस संसार के भीतर रहकर इस संसार से मुक्त होना मुश्किल है। यहां स्त्री वस्त्र पहनने के लिए कारण मर्दों को फब्तियां कसी जाती हैं। महंगाई और घट रही अभिरुची के कारण जजमान का अनुदार मन है जिसके रेशों के साथ पुरानी सामंती ऐंठन वाले रेशों का “रिमिक्स” है, “नाच पमरिया नाच” जैसी कहावते हैं। इस्लामी तौर तरीकों की सीख देने के लिए आने वाले लोगों को हिदायते हैं और जासूसी करने की तोहमते हैं। स्त्री के कपड़ों में नटुआ भी नाचता है मगर जहां वह मर्दों को दिखन-क्षेत्र के भीतर रखता है वहीं पमरिया जो कि नटुओं की तुलना में कुछ कम स्त्री-सदृश्य कपड़े पहनते हैं, स्त्रियों के कौटुंबिक क्षेत्र में जाकर अवस्थित हो जाते हैं।
नटुआ के साथ एक सहूलियत है कि वे किसी खास जाति के नहीं होते, इसलिए भारतीय समाज की एक विचित्रता, जातिमूलक अवमानना से बच जाते हैं और इन्हें काम के लिए लड़कों के जन्म की प्रतीक्षा नहीं करनी होती, हालांकि ये भी ‘आउट ऑफ फैशन’ होते जा रहे हैं जिनकी जगह छोटी-छोटी बैंड पार्टियां ले रही हैं। इतना ही नहीं, कुछ लोग पमरिया के गाने को अशुभ मानते हैं और बच्चों को छुपा लेते हैं। ज्यादातर मुस्लिम परिवार में ही पमरिया के आने को अशुभ माना जाता है। जो मानते हैं पमरिया के आने से बच्चा बीमार पर जाएगा या मर जाएगा। ये स्त्री वस्त्र पहनकर नाचते हैं मगर इस काम में अपनी स्त्रियों को नहीं लगाते, इसके दिलचस्प और पेंचदार स्त्री-विमर्शमूलक निहीतार्थ हो सकते हैं।
जहां कहीं भी इस जाति के लोग रहते हैं और पुश्तैनी काम करते हैं वहां इन लोगों का अपना-अपना क्षेत्र बंटा हुआ होता है और इस बात की कड़ी चेतावनी होती है कि कोई दूसरा व्यक्ति किसी और के क्षेत्र में जाकर पुत्र जन्मोत्सव की बधाई नहीं दे सकता है। ऐसा करने पर बिरादरी के लोगों की बैठकें कर उस व्यक्ति को दंड दिया जाता है। यह दंड आमतौर पर पांच सौ रुपये तक का होता है। इन लोगों के क्षेत्र बंटवारे में एक और विशेष बात होती है, वह यह कि उस क्षेत्र का उनके नाम का रजिस्ट्री-पत्र रजिस्ट्री कार्यालय से मिलना होता है। कभी-कभी कोई आर्थिक तंगी यथा बीमारी अथवा बेटी या बहन की शादी के इंतजाम की खातिर अपने क्षेत्र को दूसरे पमरिया को बेच देता है और इसके लिए भी रजिस्ट्री अनिवार्य होती है। कभी-कभी पिता, जिनके पास कई-कई होते हैं, अपनी पुत्री की शादी में वह इसे दहेज में भी देता है। मजिस्ट्रेट के आदेश से वर्ष 2003 से इस तरह की रजिस्ट्री पर रोक लगा दी गयी है। अब रजिस्ट्री की जगह स्टांप्ड पेपर से काम चलाते हैं जो गांव के सरदार या बुजुर्गों की उपस्थिति में तैयार किये जाते हैं। प्रसंगवश यहां यह भी याद कर सकते हैं कि बच्चे को थोड़ा बड़े होने पर एक समुदाय टीकाकरण के लिए भी आता था और टीका वह गाते हुए लगाता था कि बच्चा रोए नहीं, उसका मन बहले।
मैं मधुबनी जिले के लखनौर प्रखंड के मिथिलादीप में कुछ दिन रहा हूं जहां कि इनके चार सौ घर हैं, तमाम तरह की मुश्किलों के बावजूद ये लोग खुशमिजाज और लतीफ ढंग से बात करने वाले होते हैं। इनके सामने की मुश्किलें बड़ी कठिन है। आबादी कम है, सरकार पर किसी विशेष सुविधा के लिए दबाव नहीं बना सकते, अपने पेशे को लेकर ग्लानी बढ़ती जा रही है, ओबीसी में हैं मगर सरकारी नौकरी में बहुत कम लोग हैं, अपने पेशे को लेकर दोचित्तापन है जिसके कारण ये समझ नहीं पाते कि यह कला पुश्तैनी गुण है पुश्तैनी गुनाह। शहरों की तरफ पलायन बढ़ा है जहां ये अकुशल मजदूर की तरह काम करते हैं। नई तरह की आजीविका-रणनीतियां ये बना रहे हैं जिसमें किसी बैंड पार्टी में जाकर गाने के साथ-साथ किन्नरों के साथ मिलकर अपने काम के तरीकों को बदलने की कोशिश तक शामिल है। दरभंगा शहर के रहमगंज मोहल्ले में इनकी आबादी के साथ किन्नर भी बस गये हैं। इन कलाकारों का सम्मान हो, ये आर्थिक मुश्किलों में न रहें, कभी तो हम ये सोचें और ये न तो सिर्फ खबर का आइटम बने रहें और न ही इन्हें ये कहना पड़े कि खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक।
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यह आलेख संगीत नाटक अकादमी के त्रैमासिक वृत्त संगना से साभार लिया गया है। इसे आप अक्टूबर-दिसंबर 2014 / जनवरी-मार्च 2015 के अंक में शीर्षक मिथिला के पमरिया नाम से पढ़ सकते हैं।