
सुनील कुमार
कला शोधार्थी, लोक कलाओं के अध्ययन में विशेष रुचि
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लोककला और साहित्य के आइने में लोकगाथा राजा सलहेस को देखने से पूर्व राष्ट्रीय स्तर पर दलितों की राजनीतिक-सामाजिक और साहित्यिक चेतना की उभार की पृष्ठभूमि में बिहार में दलितों की मन:स्थिति का परीक्षण आवश्यक है। इससे पूर्व कि बात आगे बढ़े, उस कविता की चर्चा यहां आवश्यक है जिसे दलित चेतना की पहली अभिव्यक्ति कहा जाता है और आधुनिक हिन्दी साहित्य में भी उस कविता को वही दर्जा हासिल है। ‘अछूत की शिकायत’ शीर्षक नाम से भदेस अंदाज में यह कविता हीरा डोम ने लिखी थी जो भोजपुरी में है। इस कविता को महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1910 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित किया था। उसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं:
खंभवा के फारी पहलाद के बंचवले / ग्राह के मुंह से गजराज के बंचवले। / धोती जुरजोधना कै भइया छोरत रहै, परगट होके तहां कपड़ा बढ़वले। / मरले रवनवां के पलले भभिखना के, कानी उंगुरी पै धैके पथरा उठले। / कहंवा सुतल बाटे सुनत न बाटे अब, डोम तानि हमनी क छुए से डेराले।
हीरा डोम अपनी इस कविता में दलितों की पीड़ाओं की उपेक्षाओं के लिए समाज को नहीं, भगवान तक को कोसते हैं और उनके सम्मुख खड़े हो उनसे सवाल पूछते हैं कि क्या तुम भी छुआने से डरे हुए हो ? वो कहते हैं कि तुमने खंभा फाड़ कर प्रह्लाद को बचाया, ग्राह के मुंह से गजराज को बचाया, अनंत चीर दान कर द्रौपदी को बचाया, रावण को मारकर विभीषण को पाला, कानी उंगली पर पहाड़ उठाया, अब तुम कहां सोये हुए हो, सुनते क्यों नहीं, डोम के छूने से डरते हो। समाज को अपने गंभीर सवालों से लहुलूहान कर कविता आगे बढ़ती है। इसकी जद में भगवान भी हैं, समाज, व्यवस्था और सरकार भी।
संदर्भों और भावार्थों पर जाइये तो लोकभाषा में लिखी यह कविता काल की सीमाओं को लांघती हुई सार्वकालिक हो जाती है। उसके भाव वर्तमान व्यवस्थाओं के बीच दलितों की दुर्दशा का चीत्कार करने लगते हैं। तब इसके भाव का विस्तार केवल भोजपुर क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहता अथवा मगध क्षेत्र, अंगिकांचल, वज्जिकांचल, मिथिलांचल तक ही सीमित नहीं रह जाता, यह स्थानीयता और प्रादेशिक सीमाओं को लांघता हुआ समस्त भारत के दलितों की अभिव्यक्ति का पर्याय बन जाता है।
बहरहाल, ‘अछूत की कविता’ ने सबसे महत्वपूर्ण काम यह किया कि इसने दलितों की पीड़ाओं को आधुनिक हिन्दी साहित्य की चर्चाओं के केंद्र में ला खड़ा किया। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के अपने अध्यक्षीय संबोधन में प्रेमचंद ने कहा, ‘जो दलित हैं, पीड़ित हैं, वंचित हैं, चाहे वह व्यक्ति हो या समूह, उसकी हिमायत करना लेखक का फर्ज है’। दलित स्वयं प्रेमचंद की रचनाओं के केंद्रीय पात्रों में शामिल थे और उनके पात्र सामाजिक-राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं के खिलाफ विद्रोह की सीमा तक जाते हैं, यह महत्वपूर्ण है। प्रेमचंद से पूर्व सुमित्रानंदन पंत ‘धोबियों’ और ‘कहारों’ के गीत (कविता) लिख रहे थे। पंत से पूर्व हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेंद्र हरिश्चंद्र ‘सबै जाति गोपाल की’ (व्यंगात्मक प्रहसन) लिख चुके थे।
आधुनिक हिन्दी साहित्य का यह दलित विमर्श पंत (धोबियों का गीत, कहारों का गीत), प्रेमचंद (गोदान, पूस की रात), मुल्कराज आनन्द (अछूत), निराला (वह तोड़ती पत्थर, चतुरी चमार), नागार्जुन (हरिजन गाथा, बलचनमा), जगदीश चंद्र (धरती धन न आपना), सुदामा पाण्डेय धूमिल (मोची राम), ओम प्रकाश बाल्मिकी (जूठन), मोहन नैमिशराय (अपने-अपने पिंजर), मलखान सिंह (सुनो ब्राह्मण) की रचनाओं के माध्यम से आगे बढ़ता है। हिन्दी पट्टी के इस दलित विमर्श पर साठ के दशक में होने वाले भूमि आंदोलन, सत्तर के दशक में महाराष्ट्र में होने वाले दलित पेंथर आंदोलन और फिर नामांतर आंदोलन, उत्तर भारत में होने वाले डोला पालकी आंदोलन और बाद में मण्डल आंदोलनों का प्रभाव मिलता है और तब इसके अंतर्विरोध भी लक्षित होते हैं। यह सवाल भी सामने आता है कि कौन बेहतर दलित साहित्य लिख रहा है, दलित या गैर दलित। ‘अक्कर मासी की जन्मपत्री’ लिखने वाले मराठी साहित्यकार शरण कुमार लिम्बाले इस अंतर्विरोध पर अपनी स्पष्ट राय रखते हैं, ‘गैर दलितों के साहित्य को दलित साहित्य कहना, साहित्यिक-सांस्कृतिक छल और हेरा-फेरी है’। यह बात बहुधा सत्य इस वजह से भी प्रतीत होती है क्योंकि दलित समाज का अध्ययन निरपेक्ष नहीं रहा है और जब समाज का अध्ययन ही निरपेक्ष नहीं है तो साहित्य में उसकी छवि निरपेक्ष कैसे हो।
हिन्दी प्रदेशों में दलितों की सामाजिक दशा का 80 के दशक में अध्ययन करने वाली अमेरिकी एंथ्रोपॉलोजिस्ट जोअन मेंचर लिखती हैं, ‘दलित समाज का अध्ययन ऊपर से देखने पर आधारित रहा है, इसलिए जरूरत इस बात की है कि नीचे से दलित समाज को देखा जाये ताकि दलित समाज और उसकी समस्याओं पर एक नई समझ बन सके’। ‘दलित लोकगाथाओं में प्रतिरोध’ (पुस्तक) की भूमिका में प्रो. इम्तियाज अहमद लिखते हैं कि जोआन मेंचेर के इस महत्वपूर्ण कथन के बाद इस मुद्दे पर चर्चा तो बहुत हुई किंतु कोई ऐसा अनुसन्धान कार्य सामने नहीं आया जो दर्शाता कि किस तरह से नीचे से देखने पर आधारित अनुसंधान ऊपर से किये गये अनुसंधान से भिन्न हो सकता है। आगे वो लिखते हैं, ‘लगभग चालीस साल तक दलित समाज पर सामान्य अध्ययन प्रकाशित होते रहे, पर उनमे कोई ऐसी दृष्टि नहीं प्राप्त हो पाई जिनसे दलित समस्याओं की जटिलता को समझने में मदद मिल पाती’।इम्तियाज अहमद लिखते हैं कि जब आंतरिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है तो दलित प्रतिक्रियाएं और दलित चेतना केंद्र में रहती हैं। उनका यह विचार लिम्बाले के दलित-दर्शन के काफी करीब दिखता है जिसमें वो दलित साहित्य के लिए स्वानुभूतिपरक साहित्य रचना की बात करते हैं।
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आधुनिक हिन्दी साहित्य में दलित अभिव्यक्ति और विमर्श का यह संक्षिप्त साक्षात्कार हिन्दी पट्टी की लोकगाथाओं के वर्तमान स्वरूप को समझने और उसे वर्तमान सामाजिक-साहित्यक संबंधों की कसौटी पर कसने के लिए आवश्यक है, खासतौर पर जब हम लोकगाथा राजा सलहेस का परीक्षण करते हैं। हिन्दी साहित्य में दलित विमर्श इसके उदभव काल या कहें कि उससे भी पहले अपभ्रंश काल से ही मिलता है। इस लिहाज से सिद्द-नाथों की परंपराओं का अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता है। हिन्दी साहित्य में भक्ति काल का समय सन 1375 ई. से माना गया है और लगभग इसी काल में राज सलहेस पहली बार किसी साहित्यिक रचना में उभरते हैं। ज्योतिरिश्वर की रचना ‘वर्णरत्नाकर’ में लोरिक नाच के साथ-साथ सलहेस नाच की चर्चा मिलती है और वर्णरत्नाकर का रचनाकाल 1344 ई. माना गया है यानी भक्ति काल की शुरुआत से ठीक पहले।
भक्ति काल सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों के काल के रूप में भी जाना जाता है। इस दौर में कई संत काव्यधाराएं सामने आती हैं। कबीर, रैदास, रविदास की संतवाणियां आदि। इन वाणियों में ब्राह्मणी व्यवस्थाओं के खिलाफ चुनौती मिलती है, जाति व्यवस्था पर प्रहार मिलता है और इसका आवेग सलहेस नाच में स्पष्ट दिखाई देता है। कबीर कहते हैं, ‘जो तू बाभन बाभनी जाया, आन बाट काहे नहि आया’ तो लोकगाथा सलहेस में कहते हैं, ‘बल से लड़तै बल से लड़बै, छल से लड़ते छल से लड़बै’। दोनों ही कर्म आधारित जाति व्यवस्था की सर्वोच्चता को चुनौती देते हैं। दूसरी तरफ रविदास जिस तरह से अपनी जाति को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं जब वो कहते हैं कि ‘कह रैदास चमारा’ तो सलहेस भी सहज भाव से निर्भीक कहते हैं ‘सलहेस राज महिसौथा गादीघर हमर लगैआ, जाति दुसाध कुलके बालक हम लगैछी’। कबीर अगर ब्राह्मणी व्यवस्थाओं को चुनौती देते हैं तो कबीर की ही तरह सलहेस भी ब्राह्मणी व्यवस्थाओं को चुनौती देते हैं। व्यवस्थाओं के खिलाफ यह विद्रोह स्वाभाविक ही था क्योंकि हिन्दी पट्टी का अपना राजनीतिक इतिहास भी व्यवस्थाओं के खिलाफ विद्रोहों के इतिहास की थाति संभाले हुए हैं।
लोकगाथा राजा सलहेस का पहला मुद्रित रूप ग्रियर्सन के जरिए 1881 में सामने आता है। ग्रियर्सन के बाद 1959 में हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार नलिन विलोचन शर्मा ने बिहार की लोकगाथाओं पर केंद्रित अपनी पुस्तक ‘लोकगाथा परिचय’ लिखी। 1971 में इंडियन पब्लिकेशन, कलकत्ता ने ‘बिहार इन फोकलोर स्टडी’ का प्रकाशन किया जो बिहार की लोकगाथाओं के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध कराता है। मिथिलांचल के कई साहित्यकारों ने बिहार की लोकगाथाओं और लोकगाथा सलहेस का अध्ययन किया। उनमें पहला महत्वपूर्ण नाम है डॉ. पूर्णानंद का। 1962 में डॉ. पूर्णानंद दास ने बिहार की पंद्रह लोकगाथाओं का संकलन तैयार किया जिनमें एक पाठ राजा सलहेस का भी है। 1981 में डॉ. मोतीलाल यादव ने भी लोकगाथा राजा सलहेस के पाठ का संकलन किया और उनके पश्चात् डॉ. महेंद्र नारायण राम और डॉ. फूलो पासवान ने ‘सलहेस लोकगाथा’ पुस्तक लिखी।
लोकगाथा राजा सलहेस पर सबसे चर्चित उपन्यास लिखा ब्रजकिशोर वर्मा ‘मणिपद्म’ ने। उन्होंने 1973 में ‘राजा सलहेस’ उपन्यास लिखा और उसी को आधार बनाकर उन्होंने 1999 में ‘अनंग कुसमा’ महाकाव्य लिखा। कालांतर में मणिपद्म का उपन्यास और उनका महाकाव्य सलहेस साहित्य की कई रचनाओं का आधार बना। 1978 में मतिनाथ मिश्र ने मणिपद्म की रचना को ही आधार बनाकर ‘जय राजा सलहेस’ महाकाव्य लिखा। राजा सलहेस पर दो पुस्तक महनार के साहित्यकार और लोक साहित्य के अध्येता डॉ. प्रफुल्ल कुमार सिंह ‘मौन’ ने लिखी। कई अन्य पुस्तकों और नाटक का प्रकाशन हुआ। मौन, डॉ. नरेंद्र, रोहिणी रमण झा, कुणाल और संजय झा ने इस लोकगाथा पर आधारित नाटक लिखे। नाटकों में गिरबल दास राजगीरी और लक्ष्मीनारायण के नाटक महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने सलहेस पर सबसे पहले नाटक लिखे और ये दलितों की मन:स्थिति के अध्ययन के लिहाज से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य लेखन को लेकर जिस द्वंद्व की चर्चा इस आलेख के प्रथम खंड में की गयी है, वह लोकगाथा सलहेस आधारित लोक साहित्य का भी सच है। इसकी सबसे चर्चित रचना मणिपद्म का मैथिली उपन्यास ‘राजा सलहेस’ है। हिन्दी में ‘राजा सलहेस’ नाम से पुस्तक लिखने वाले दरभंगा के अविनाश चंद्र मिश्र मणिपद्म के उपन्यास पर अपनी पुस्तक में टिप्पणी लिखते है। उसमें वह लिखते हैं कि एक उपन्यास ने राजा सलहेस के इतिहास, उनके व्यक्तित्व, उनके संघर्षों को जिस अतिकल्पनाशीलता से तार्किक बनाकर परोसा, वह न सिर्फ पाठकों को चमत्कारी और आह्लादकारी लगा बल्कि उसने कई स्तरों पर सलहेस की गाथा-कथा में घटाव तो कम ही, जोड़-जाड़ के लिए अधिक अवसर दिये और प्राय: जो कमी रह गयी थी, वह 1999 ई. में प्रकाशित उनके महाकाव्य ‘अनंग कुसमा’ से पूरी होने लगी। मणिपद्म के उपन्यास ‘राजा सलहेस’, महाकाव्य ‘अनंग कुसमा’ और उन पर आधारित रचनाओं पर मैथिली के प्रख्यात आलोचक डॉ रामदेव झा की टिप्पणी यहां महत्वपूर्ण हो जाती है। वह लिखते हैं, ‘…एहि सबमें लोकगाथाक यथार्थ स्वरूपक परिचय प्राप्त करवाक अवधारणा निरर्थक होयत’।
मणिपद्म की रचनाओं के पश्चात राजा सलहेस अपने चमत्कारों की बदौलत मिथिलांचल में एक दलित देवता के रूप में स्थापित हो चुके थे। मणिपद्म के बाद की ज्यादातर रचनाओं में सलहेस को ग्राम्य देवता के रूप में स्थापित करने की प्रवृत्ति किसी-न-किसी रूप में मिलती है। यह नाटकों में भी दिखाई पड़ती है। तब आधुनिक हिन्दी साहित्य में दलित विमर्श का वह यक्ष प्रश्न लोक साहित्य में भी उभर कर सामने आता है कि लोक साहित्य में बेहतर दलित साहित्य कौन लिख रहा था और क्या उस साहित्य का आधार उस तरह का अध्ययन था जिसकी चर्चा इम्तियाज अहमद ऊपर कर रहे थे ? और अगर नहीं, तब लोकगाथा राजा सलहेस की अपनी साहित्यिक-सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक अभिव्यक्ति के संदर्भ में रचे जा रहे नवीन सलहेस साहित्य का चरित्र क्या था और उसके मायने क्या थे?
सलहेस को लेकर रचे जा रहे लोक साहित्य में शायद ही किसी रचनाकार ने जाति व्यवस्था, जातीय दंभता, गरीबी, स्त्री मुक्ति के प्रश्न, सामाजिक-आर्थिक-कुव्यवस्थाओं और ब्राह्मणी व्यवस्थाओं के बीच दलितों की आवाज उठायी हो। सलहेस लोक साहित्य में लोकगाथा की तरह ही सलहेस के संघर्ष उभरते हैं, लेकिन उसका चरित्र राजनीतिक ज्यादा है और सामाजिक नजर से नगण्य। मैथिली लोकनाटकों के अध्येता और चर्चित रंगकर्मी महेंद्र मलंगिया स्पष्ट रूप से कहते हैं कि राजा सलहेस लोकगाथा न केवल दलितों के सामाजार्थिक विकास के अध्ययन के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है बल्कि इसमें ब्राह्मणी व्यवस्थाओं के खिलाफ विद्रोह अत्यंत मुखर है, दलितों के प्रति कर्म आधारित सामाजिक व्यवस्था की कुसोच सामने आती है और इन सबके बीच दलितों की अभिव्यक्ति मुखर और तीक्ष्ण होती है। महेंद्र कहते हैं, ‘सलहेस कर्मठ हैं, जुझारू हैं और जरूरत पड़ने पर नवीन दलित राजनीति का प्रणेता बन सकते है’। भागलपुर के साहित्यकार डॉ. अमरेंद्र कहते हैं कि सलहेस में जो लोककल्याणाकारी भाव है और उसे हासिल करने की जो जद्दोजहद है, वह विस्मयकारी है और गरीब गुरबों को नेतृत्व देने वाला है जबकि यह बात किसी-न-किसी रूप में उन साहित्यों में भी उपस्थित मिलता है जिनमें दलितों की मन:स्थिति और अभिव्यक्ति कमजोर मिलती है। तो यहां अहम सवाल उभरता है कि क्या ऐसा जानबूझकर किया गया ताकि दलितों की अभिव्यक्ति की धार को कुंद किया जा सके, और इसी वजह से एक लोकगाथा का जननायक, दलितों के प्रतिरोध की मुखर अभिव्यक्ति करने वाला सलहेस देवत्व का आरोहण पा जाता है ?
इन संदर्भों में 1997 में प्रकाशित विश्वनाथ झा की पुस्तक ‘चौपाल जाति का सच’ की चर्चा उल्लेखनीय है जो दलितों के लोकनायकों या नायिकाओं को लेकर कुछ महत्वपूर्ण स्थापनाएं प्रस्तुत करता है। यथा – लोक देवी-देवताओं का उदय ब्राह्मणवाद के खिलाफ हुआ है और इनकी पूजोपासना में कर्मकांडीय आडंबरों का अभाव है, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में इनका आधार जातीय है, इन्होंने जातीय सोच, कलात्मक संचेतना, सामाजिक आचार आदि को बढ़ावा दिया है, आदि। इन स्थापनाओं की चर्चा करते हुए हसन इमाम और जोसकलापुरा लिखते हैं कि ‘चौपाल जाति का सच’ के प्रकाशन के बाद लोकगाथाओं की कथावस्तु या उनके नायकों के विश्लेषण को लेकर दो किस्म की धाराएं चल पड़ीं। पहली धारा ने चौपाल जाति का सच में आई स्थापनाओं के विपरीत इन कथाओं को कर्मकांडीय कथा, प्रणय कथा या धार्मिक कथा के रूप में प्रस्तुत करने तथा इनके नायकों में ब्राह्मणवादी देवत्व का आरोपण करने का काम किया। दूसरी धारा के विद्वान इन गाथाओं के नायकों एवं चरित्रों की संघर्षशील चतना महिमामंडित करने के क्रम में या तो इनकी ऐतिहासिकता प्रमाणित करने में लगे रहे या फिर ब्राह्मणवाद के अपवर्जक राजनीति को चुनौती देने के जोश में इन दलित लोकगाथाओं के नायकों को भी ब्राह्मणवादी देवसमूह का हिस्सा साबित करते रहे’। हसन इमाम कहते हैं कि दलित लोकगाथाओं के जुझाक और लड़ाकू नायको को ब्राह्मणवादी देवसमूह का हिस्सा बनाकर उनके प्रतिरोधी स्वरूप को विमर्श के केंद्र से हटा देने की कोशिश की गयी और उन जननायकों की ऐतिहासिकता प्रमाणित करने की कोशिश को भी इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए।
इस विमर्शों के बीच लोकगाथा राजा सलहेस की थाति संभालने वाले गाथागायकों और लोककलाकारों की संख्या तेजी से सिमटती जा रही है। समूचे मिथिलांचल (बिहार वाले हिस्से) में अब दो प्रमुख गाथागायक हैं। मधुबनी के बिसुनदेव पासवान और दरभंगा के विजय पासवान। विजय पासवान आल्हा के अंदाज में गायन करते हैं जबकि बिसुनदेव पासवान मिथिलांचल की लोकशैली में। एक अन्य गाथागायक गंगाराम दिवंगत हो चुके हैं। गंगाराम की खासियत उनके गायन की परंपरागत शैली थी जिसमें सलहेस जननायक और जातीय नायक के तौर पर दिखते हैं। हालांकि बाद में वह कबीरपंथी हो गये, उन्होंने सलहेस गायन नहीं छोड़ा था। बिसुनदेव पासवान और विजय पासवान के गायन में सलहेस लोकदेवता के रूप में अवतरित होते हैं जो लोकगाथा की मूल आत्मा का विद्रुपीकरण है, लेकिन लोक का चरित्र भी यही होता है। वह अपने आसपास के परिवेश और समाज से नवीन तत्वों को ग्रहण करता है और विकसित होता चलता है। लोकगाथा सलहेस इसका अपवाद नहीं है। लेकिन, इस लोकगाथा का दुर्भाग्य यह है कि इसकी थाति संभालने वाला कोई नया लोककलाकार सामने नहीं है।
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लोककलाओं में राजा सलहेस का अवतरण कब हुआ इसकी कोई ईसवी या तारीख का अंदाजा लगाना कठिन है। लेकिन, 1344 ई. में रचित ‘वर्णरत्नाकर’ में लोरिक नाच के साथ सलहेस नाच की चर्चा से यह स्थापना तो होती है कि सलहेस नाच का आयोजन तब होता होगा, भले ही उसका वृहद स्वरूप हमारे सामने नहीं है। उसके पश्चात् ग्रियर्सन ने सन् 1881 में एक डोम गाथागायक से सुनकर इसका संग्रह और प्रकाशन किया। अर्थात् लोकगाथा सलहेस के नाच और गायन की परंपरा मिथिलांचल में सदियों से विद्यमान है, यह कहा जा सकता है।
मिथिलांचल की नाच परंपराओं का अध्ययन करने वाले महेंद्र मलंगिया सलहेस नाच के संदर्भ में कुछ मजेदार तथ्य की तरफ इशारा करते हैं। उनके मुताबिक सलहेस नाच कई मायनों में अदभुत कहा जा सकता है, लेकिन व्यंगात्मक प्रहसन कई सर्वप्रमुख विशेषता है। यह अपने समय के मन:स्थिति और अपने समय के सत्य को संवादों और संवादों में छुपे व्यंगों के माध्यम से इतनी खूबसूरती से निरूपित करता है कि व्यंग बाण का शिकार भी आह्लादित होता है और व्यंग बाण चलाने वाला समाज भी आहलादित होता है। सलहेस कलाकारों में कटु सत्य को मधु सत्य में परिवर्तित करने की देवप्रदत्त क्षमता थी, तमाम तरह के कष्ट को झेलते हुए भी। यह क्षमता उनमें कैसे विकसित होती थी या होती है, इसका अध्ययन का विषय है। यही बात इम्तिजाय अहमद भी ‘दलित लोकगाथाओं में प्रतिरोध’ की भूमिका में लिखते हैं। बकौल इत्मियाज अहमद आक्रोश, प्रतिरोध और उत्पीड़न का एहसास और ऐसी बहुत-सी भावनाएं मानव प्रवृत्ति का स्वभाविक अंग हैं। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति के तरीके व्यक्ति के स्वभाव के अलावा जाति, वर्ग, आर्थिक परिस्थिति और सामाजिक हैसियत पर निर्भर होते हैं। जिस प्रकार एक ब्राह्मण या जमींदार इन भावनाओं को व्यक्त करता है, उस प्रकार एक दलित नहीं कर पाता। इसका मतलब यह नहीं है कि उसके अंदर इन भावनाओं का एहसास नहीं है, केवल उसके द्वारा इन भावनाओं को व्यक्त करने का तरीका अलग होता है। ब्राह्मण या जमींदार को यदि गुस्सा आता है तो डांट लेता है या पीट देता है। दलित ऐसा नहीं कर सकता, लेकिन अपने तरीके से आनाकानी करके, या काम में देरी करके या हुक्मउदूली करके वह अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है । दलित की एक अलग जिस्मानी भाषा शैली है जिसके द्वारा वह अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है।
अभिव्यक्ति के इन तरीकों पर बाहरी समाज का, समय का और तात्कालिक कारणों का प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि सलहेस लोकगाथा गायन परंपरा के साथ तत्कालिकता का भाव समान रूप से मिलता है। यथा, मंच पर एक कलाकार अपने मालिक से छुट्टी मांगने के लिए जब यह कहता है कि ‘सुनियो-सुनियो ऐ सरकार, घर से अलकै तार, हम्मर जोरू छै बीमार’। तब सन 1851 से पहले ‘तार’ कहां था ? लोकगाथा का ननमहरी मंदिर प्रसंग कहां से आया, क्या इसे दक्षिण के मंदिर प्रवेश आंदोलनों के प्रभाव स्वरूप आयातित नहीं माना जाना चाहिए या फिर डोला-पालकी प्रथा का विरोध उत्तराखंड में इसके आंदोलन के प्रभाव के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। लोकगाथा में दलितों की अपनी अभिव्यक्ति भी देख लीजिए। जब नाट्य मंच से समाजी यह संवाद अदायगी करता है:
चलैए मलिनिया बेटी धरती दलकबैए
आ बड़का-बड़का मालिकसभक जीह ललचबैए यो।
यहां धरती का तत्पर्य मालिन के स्तन से है, यानी जब मालिन चलती है तब उसके स्तन हिलते हैं। उसके स्तनों की उभार को देखकर बड़े-बड़े मालिक सबन का जीभ ललचाता है।
नाच या गायन की परंपरा से अलहदा, चित्रकला में राजा सलहेस की उपस्थिति सत्तर के दशक के आसपास मधुबनी के दो गावों में दर्ज होती है। जितवारपुर और लहरियागंज। चित्रकला में यह जितवारपुर और लहरियागंज में से पहले कहां उभरी, यह बता पाना मुश्किल है। इस पर लहरियागंज के शिवन पासवान का अपना दावा है और जितवारपुर के रौदी पासवान का अपना दावा था। इन दोनों गांवों में तब मधुबनी चित्रकला कागज पर परवान चढ़ने लगी थी, जिनके विषय ब्राह्मणी थे और लगभग उसी समय वहां के पासवान टोल में कागज पर चित्रकारी शुरू हुई, जिसे दलित पेटिंग कहकर संबोधित किया गया। इनके विषय बहुलांश गैर-ब्राह्मणी थे और जल्दी ही राजा सलहेस उनके केंद्रीय विषय वस्तु के रूप स्थापित हो गये।
सलहेस ही क्यों, इस पर जितवारपुर के पासवान टोल के रहने वाले रौदी पासवान (अब स्वर्गीय) ने 2015 में सुनील कुमार के साथ अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि तब मधुबनी के दलित राजनीतिक रूप से जागृत हो रहे थे और मधुबनी की स्थानीय राजनीति में महत्व पाने लगे थे। उन्होंने जब राम- कृष्ण के चित्र बनाए तब अगड़ी जाति के लोगों ने उनके साथ मारपीट की और उनके चित्रों को फाड़ दिया। ऐसा कई बार हुआ। जितवारपुर के शिवन पासवान भी रौदी पासवान की बातों की पुष्टि करते हैं। तब वहां के स्थानीय चित्रकारों ने दुसाधों के परंपरागत पेशे यथा मृत जानवरों के खाल उतारने और श्मशान में उन्हें जलाने की प्रक्रियाओं के चित्र कागज पर उकेरे। हुरार जैसे काल्पनिक जानवर भी कागज पर उभरे। एक दिन जर्मन एंथ्रोपॉलोजिस्ट एरिका मोजर पासवान टोल में आयी जो सीता देवी के घर मेहमान थी। उन्होंने रौदी पासवान की पत्नी चानो देवी को उनके घरों की दीवारों पर बने देवी-देवताओं (सूर्य, चंद्रमा, सलहेस) और गोदना जिसे दुसाध जाति की महिलाएं अपने शरीर पर गोदवाती थी, के चित्रों को कागज पर उतारने की सलाह दी और इसके बाद जल्दी ही राजा सलहेस उनके चित्रों के केंद्रीय विषय के रूप में स्थापित हो गये।
रोदी पासवान ने अपने इंटरव्यू में कई महत्वपूर्ण बातें कहीं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण यह था कि सत्तर के दशक में मिथिलांचल में दलित राजनीति भी परवान चढ़ रही थी और मधुबनी की राजनीति में दलितों की भूमिका भी स्पष्ट हो रही थी। तब उनके सामने उनके देवता सलहेस महाराज को आगे रखकर राजनीति करने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं था। सलहेस देवता के नाम पर राजनीति और चित्र लिखने पर अगड़ी जाति के लोगों को कोई आपत्ति नहीं थी। इसके दो परिणाम हुए। एक, मधुबनी की राजनीति में दलितों की साख बढ़ी और दूसरा, सलहेस चित्रों के अभिन्न अंग बन गये। रौदी पासवान की बातों से एक दृश्य और स्पष्ट होता है कि सत्तर के दशक में या उसके थोड़ा पूर्व सलहेस दुसाधों के देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे और इसकी एक बड़ी वजह नाच मंडलियां थीं जो विविध अवसरों पर नाच खेला करती थी।
मधुबनी के रहिका प्रखंड के प्रमुख रहे जटाधर पासवान के मुताबिक सत्तर के दशक के आसपास मधुबनी शहर और उसके आसपास करीब साठ से सत्तर सलहेस नाच मंडलियां थी जो सलहेस महाराज की वीरगाथा और उनके चमत्कारों पर आधारित नाच करती थीं। जटाधर पासवान एक महत्वपूर्ण तथ्य की तरफ इशारा करते हैं कि ज्यादातर नाच मंडलियों के मालिक अगड़ी जाति के लोग थे जिनके पास साधन था और पैसा था। वो कलाकारों से मनमाने तरीके से नाच में संशोधन करवाते थे, जिनमें चमत्कार, जादू टोना सब शामिल होता था। इसका दर्शकों पर प्रभाव पड़ता था और ज्यादा-से-ज्यादा दर्शक जुटते थे। इससे सलहेस धीरे-धीरे चमत्कारी होते चले गये और उन चमत्कारों की बदौलत सलहेस साहित्य और चित्रकला दोनों में ही अल्पकाल में ही देवत्व प्राप्त कर गये। फिलस्वरूप, लोकगाथा सलहेस में दलित समाज की मुखर अभिव्यक्ति तिरोहित होती चली गयी और इसका परिणाम यह हुआ कि सलहेस चित्रों के विषय अलंकार और प्रेम प्रसंगों के बीच उलझकर रह गये हैं।
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References
‘अछूत की शिकायत’, ‘सरस्वती’ पत्रिका, सितंबर 1914, भाग 15, खंड 2, पृष्ठ संख्या 512-513)
हंस, दिसम्बर 1995, शरण कुमार लिम्बाले से ओम प्रकाश बाल्मीकि की बातचीत, पृ. 33
दलित लोकगाथाओं में प्रतिरोध, हसन इमाम, जोस कलापुरा, ‘भूमिका’ (प्रो. इम्तियाज अहमद) पृ. XVII
वही, पृ. XVII
वही, पृ. XVIII
राजा सलहेस, अविनाश चंद्र मिश्र, प. 16,17
वही प. 16,17
दलित लोकगाथाओं में प्रतिरोध, हसन इमाम, जोस कलापुरा, ‘भूमिका’ (प्रो. इम्तियाज अहमद) पृ. 3
निजी साक्षात्कार
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