बिहार के ग्राम्य व शहरी जीवन का माली कला और शिल्प से पुराना नाता है। माली समुदाय की इस कला का न केवल सामाजिक महत्व है बल्कि धार्मिक उत्सवों में भी इसका बड़ा मान है। किसी भी शुभ अवसर पर इनके द्वारा बनाये झांप की उपस्थिति आवश्यक मानी जाती है। शादी ब्याह के लिए मौड़ हो, लड़की की शादी में मड़वा की सजावट या पूजा पाठ हेतु झांप हो, यह कला सर्वत्र अपना रंग बिखेरती है।
बिहार की लोककलाओं में कटिहार और पूर्णिया की माली कला का विशिष्ट स्थान है। जिस तरह से मधुबनी की मिथिला चित्रकला क्षेत्रवाद को दर्शाता है, भागलपुर की मंजूषा कला अंग प्रदेश को दर्शाता है उसी तरह से पूर्णिया और कटिहार की पहचान वहां की माली कला की वजह से है जो सांस्कृतिक धार्मिक संदर्भों में अत्यधिक महत्व रखता है। आधुनिकता की दौड़ में भी स्थानीय मालाकार परिवारों ने इस कला को जीवित रखा है।
मालाकार सनई की लकड़ी और शोला से मंदिरनुमा ढांचे पर सफेद कागज का आवरण चढ़ाते हैं। उस कागज पर जो चित्र बनाये जाते हैं, उसे मंजूषा कहा जाता है। इस कागज पर कई तरह के चित्र बनाये जाते हैं जिसका अपना प्रतीकात्मक महत्व है। इनकी कलाकृतियों में आधुनिकता और पौराणिकता का कुशल संतुलन दिखता है जिसमें लोक संस्कृति प्रमुखता से उभरती है और यही लोकसंस्कृति बिहार की पहचान है।