जनवरी 2019 में पटना के कला समाज ने पहली बार लोक-कलाओं को लेकर उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय परिचर्चा और कार्यशाला का साक्षात्कार किया था जिसमें कई अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने अपने विचार रखें। मैंम्फिस, अमेरिका की सी.ए. ट्रेएन उनमें से एक थी। एक कलाकार के लिए कला शिक्षा की आवश्यकता, कला के उच्च मानकों की जरूरत, बाजार की खोज और वैचारिक साझेदारी समेत कला जगत से जुड़े अनेक मसले पर दिल्ली की वरिष्ठ पत्रकार अशुंमाला ने विस्तार से उनका ई-मेल इंटरव्यू किया है। यहां पेश है उसी इंटरव्यू के कुछ अंश:-
अंशुमाला: सबसे पहले आपको धन्यवाद कि आपने ई-मेल इंटरव्यू के लिए अपना वक्त निकाला। बिहार के लोक कलाकारों और कला जगत के लिए आपका नाम अपरिचित है। आप अपना किस रूप में देना चाहेंगी?
सी.ए. ट्रेएन: मेरा नाम सी.ए ट्रेएन है। मुझे अक्सर मेरे नाम के पहले अक्षरों से बने शब्द ‘कैट’ कहकर संबोधित किया जाता है। मैं एक सिरामिक कलकार हूं और टेनेसी, अमरीका के मैंम्फिस यूनिवर्सिटी में सिरामिक कला की शिक्षा से भी जुड़ी हुई हूं। मेरा जन्म 1980 में नॉर्थ डकोटा के फ्रागो के पास हुआ और मैं वही पली-बढ़ी हूं।
आपने 2001 में क्ले मीडियम में काम करना शुरू किया, मार्क बर्न्स की देख-रेख में जो एक ख्यातिलब्ध सिरामिक कलाकार हैं। आपको यह कब महसूस हुआ कि कला में सौंदर्यशास्त्र के प्रति आपके दृष्टिकोण और अपनी कलात्मक क्षमता को और समृद्ध करने के लिए आपको एक मार्गदर्शक की जरूरत है?
रेखांकन के जरिये अपनी कला में कुछ नया, रचनात्मक करने के प्रति मेरा झुकाव हमेशा से रहा है। इसलिए यह स्वभाविक ही था कि अपनी कला से संबंधित तकनीकी समझ को विकसित करने और उसे और परिष्कृत करने के लिए मैं यूनिवर्सिटी जाती। अमेरिका में यह सामान्य बात है अगर आप कला के क्षेत्र में अपना करियर विकसित करना चाहते हैं। आपसे यह अपेक्षा भी की जाती है कि आप यूनिवर्सिटी की डिग्री लें। इससे आपके संपर्क भी विकसित होते हैं। इसलिए मैं 2011 में कला की विधिवत शिक्षा के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ नेवाडा चली आयी। तब मेरी रूचि रेखांकन में थी, लेकिन जल्दी ही वहां मैंने महसूस किया कि मैं जो करना चाहती हूं उसे त्री-आयामी कलाकृतियों में ज्यादा बेहतर तरीके से व्यक्त सकती हूं। इसके लिए जरूरी प्रक्रिया, माध्यम और तकनीक की समझ चाहिए थी। इसके लिए वहां मार्क बर्न्स से बेहतर कौन हो सकते थे, जो यूनिवर्सिटी में बतौर प्राध्यापक मौजूद थे।
यानी आप यह कह रही हैं कि रचनात्मक समझ विकसित करने में और उस समझ को कलाकृतियों में परिलक्षित कराने में कला शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है?
निश्चित तौर पर। इतना ही नहीं, उसमें कला शिक्षा के साथ-साथ कला शिक्षण की भी भूमिका होती है। यह बात मैं अपने अनुभव से कह सकती हूं कि अपनी सोच को मूर्त आकार देने के लिए हम जितने ज्यादा स्किल्ड होंगे, उतना ही बेहतर होगा। कलाकृति और बाजार, दोनों ही लिहाज से। इसके जरिये अपनी आमदनी में इजाफा संभव होगा, जो किसी भी कलाकार की मूलभूत आवश्यकता है। मैं कला शिक्षण की बात इसलिए कर रही हूं कि जब हम दूसरों को कला शिक्षा देते हैं और उनके समक्ष कला के उच्च प्रतिमान स्थापित करते हैं, तब हमें अपनी कला को भी उन प्रतिमानों के बरक्स देखने का मौका मिलता है। यह जोखिम उठाने जैसा है, लेकिन इससे अपनी कला को विकसित करने में मदद मिलती है, चाहे वह आधुनिक कला हो या लोक और परंपरागत कला। इसका एक फायदा यह भी होता है कि प्रशिक्षु कलाकारों के साथ-साथ हमारी कला भी निखरती जाती है। इसका एक अच्छा उदाहरण मुझे बिहार म्यूजियम में उपेंद्र महारथी संस्थान द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार और कार्यशाला में दिखा, जहां लोक कला गुरु युवा कलाकारों के साथ अपनी तकनीक और कौशल साझा कर रहे थे।
मैं अभी उसी कार्यशाला का जिक्र करने जा रही थी। आप वहां बतौर वक्ता और कला विशेषज्ञ आमंत्रित थी। आपको वहां बिहार के कला समाज, कलाकारों, लोक-शिल्पकारों-कलाकारों को नजदीक से जानने का मौका भी मिला। आपका अनुभव कैसा रहा?
मैं वहां बिहार की कला और शिल्प से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को जोड़ने की पहल के तहत की कई एक कोशिश का हिस्सा थी। बिहार और पटना का यह मेरा पहला अनुभव था जिसने मुझे कई स्तरों पर प्रभावित किया। अपने शिक्षकों और कला गुरुओं के प्रति वहां के कलाकारों एवं कला-प्रशिक्षुओं और वहां के समाज का सम्मान गजब का है। दूसरा अपनी लोक कलाओं एवं शिल्प को वृहद बाजार कैसे मिले, यह उनकी चर्चाओं के केंद्र में था। लेकिन, जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह यह था कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद लोक कला-शिल्प समाज की चिंताएं वास्तव में एक ही हैं। मोटे तौर पर मुझे लगता है कि हमारे कलाकारों के बीच सफलता की असमानता का मूल कला और शिल्प का भेद ही है, चाहे वह सामाजिक स्तर पर हो या व्यावसायिक स्तर पर। लेकिन, अगर एक कलाकार अपने अनुभवों के साथ पोर्सिलीन में, उच्च ताप पर क्ले में या किसी अन्य माध्यम में उच्च गुणवत्ता के साथ काम करता है, तब कला और शिल्प के बीच की रेखा मलीन पड़ जाती है। ऐसे में यह मैं अनुभवों के आधार पर मैं कह सकती हूं कि कला बाजार में दोनों ही तरह की कलाओं के लिए अवसर समान रूप से बढ़ते हैं।
हांलाकि यह आम सवाल है, फिर भी, आप परंपरागत कला और समकालीन कला में क्या अंतर पाती हैं? क्या इसका कोई व्याकरण है?
कोई कलाकृति परंपरागत है या समकालीन, मेरी राय में वह इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी रचना प्रक्रिया में तकनीकी और अभिव्यक्ति में विषय क्या है। परंपरागत कला या शिल्प के विषय अक्सर कथा-कहानी पर आधारित, कल्पनाजन्य होते हैं। इसके अलावा उनमें प्रयोग की जाने वाली तकनीक मौलिक और अमूमन थकाने वाली होती है। इस बात का खास खयाल रखा जाता है कि उसकी गुणवत्ता उच्च कोटि की हो। इसके उलट, समकालीन लोक कला या शिल्प अभिव्यक्ति के माध्यमों, तकनीक और उसके प्रभावों के स्तर पर तो परंपरागत होते हैं, लेकिन उनके विषय आधुनिक या समकालीन होते हैं। यह संभव है कि वो माध्यमों, तकनीक और प्रभाव को अद्यतन भी कर लें, जो उनके विषय के अनुकूल हों और तब उनकी कला पर अमूर्तन का प्रभाव भी आ जाये। तब हम उसे समकालीन लोक कला या शिल्प कहेंगे। यहां इस बात का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है कि उच्च कोटि की फिनिशिंग और क्वालिटी समकालीन लोक कला या शिल्प की एक आवश्यक शर्त्त है और यह कहना गलत नहीं होगा कि लोक कलाकार जब प्रयोगधर्मी हो जाता है और अपनी कला में अन्वेषण करने लगता है तब उसकी कला परंपरागत से समकालीन होने लगती है।
लेकिन तब प्रश्न आता है कि क्या उनके लिए बाजार की उपलब्धता भी आसान है?
आसान नहीं है, तो बहुत मुश्किल भी नहीं है। इसके लिए जरूरी है कि कलाकार न केवल कलाकृतियां गढ़ें, बल्कि उनमें नयापन लाए और उसे अपनी कल्पनाशीलता के उच्चतम स्तर तक पहुंचाए। ताकि, उसकी कलाकृतियां उनके नाम का पर्याय बन सके। यह भी आवश्यक है कि कलाकार स्वयं को और अपनी कलाकृतियों को समाज और कला जगत के समक्ष साक्षात्कार के लिए प्रस्तुत करें। उसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों पर नजर रखने, उनके आमंत्रण का तय समय में जवाब देने, प्रतियोगिताओं, कार्यशालाओं में सहभागिता बढ़ाने एवं अन्य कलाकारों के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है। इससे बाजार तक उसकी पहुंच आसान होगी। इनमें समय लगता है, लेकिन यही जरूरत भी है। कई बार असफलता भी मिलती है, लेकिन कोशिशें जारी रखनी चाहिए। मैं भी इन्हीं रास्तों से सफल हुई हूं। इसमें सोशल मीडिया पर मेरी उपस्थिति और अलग-अलग जगहों की यात्राओं से भी मदद मिली है।
पटना आने के बाद आपने सबसे पहले उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान देखा। आपके जेहन में उसे लेकर कोई राय बनी, कोई खयाल आया?
उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान के प्रशासनिक अधिकारियों और वहां के शिल्पियों से मेरी मुलाकात न केवल जानकारी से परिपूर्ण थी बल्कि प्रेरणादायी भी थी। बिहार के कलाकारों के बेहतर भविष्य के लिए अमेरिका और यूरोप के कलाकारों के साथ संपर्क और कला के प्रति उनकी सोच साझा करने के अवसरों को तलाशने की कोशिश, इस तरफ इशारा करती है कि संस्थान राज्य की समद्ध कला परंपराओं को संजोने और उसे आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है। मुझे लगता है कि बिहार के कलाकारों को निजी स्तर पर या समूह बनाकर पश्चिम के कलाकारों के साथ काम करने का अवसर खोजना चाहिए ताकि कला-दृष्टि के आदान-प्रदान से वो अपनी कलाओं को और समृद्ध बना सकें। और, अब मैं यह बात कह सकती हूं कि हमारे समाज के एवं अन्य देशों के लोगों को भी बिहार आना चाहिए और लोक कलाकारों-शिल्पियों से अनुभव प्राप्त करना चाहिए ताकि वे न केवल अपने-अपने क्षेत्र की कला परंपराओं के संरक्षण की दिशा में काम कर सकें, बल्कि उनमें नवजीवन फूंक सकें।
आखिरी सवाल, क्या आप बिहार म्यूजियम, उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान और अपने कला अनुभवों के आधार पर बिहार के लोक कलाकारों को कोई सुझाव देना चाहेंगी?
कला के क्षेत्र में अपना करियर बनाने वाले किसी भी युवा कलाकार को मैं सबसे पहले यही सलाह देती हूं कि आप खूब काम करें और अपनी कलाकृतियों को गुणवत्ता के उच्चतम प्रतिमान तक पहुंचाएं। कलाकृतियां गढ़ते समय उसकी बारीकियों पर नजर रखें और उन्हे अत्यंत ही सावधानी से गढ़ते हुए अंतिम रूप दें। यह बहुत आवश्यक है। बिहार म्यूजियम में मैंने देखा कि कलाकार कितनी सफाई, गंभीरता के साथ कलाकृतियों गढ़ रहे थे। कलाकृतियों पर उकेरे गये सूक्ष्म भाव भी पूरी तरह से स्पष्ट थे। दुर्भाग्य से अमेरिका और यूरोप के लोक कलाकारों की कलाकृतियों में इसका अभाव दिखता है। और मेरी आखिरी सलाह, लोककलाकारों को परंपरागत कला से समकालीनता की ओर भी बढ़ना होगा, उसे स्वीकारना होगा। इससे उनके बाजार का विस्तार होगा और इससे उन्हें आर्थिक तौर पर मदद भी मिलेगी।
सी.ए. ट्रेएन मैंम्फिस, अमेरिका में रहती हैं और वहीं अपनी कला की साधना करती हैं। यह इंटरव्यू उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान से साभार लिया गया है।