Sculptor Pandeya Surendra | Meet the Masters
An eminent sculptor Pandeya Surendra was the Principal, College of Arts and Crafts, Patna, and the Dean, Faculty of Fine Arts, PU during 1967 to 1993.
An eminent sculptor Pandeya Surendra was the Principal, College of Arts and Crafts, Patna, and the Dean, Faculty of Fine Arts, PU during 1967 to 1993.
Eminent artist Leela Devi learned Mithila painting from Late Smt. Ganga Devi who was a pioneer of traditional Mithila paintings.
Bimla Dutta is one of the senior most Mithila painters in Madhubani, Bihar. She learnt painting from her mother, elder sister.
What makes Pushpa special is not only contemporary ideas and treatment, but also, an artistic intensity, an aesthetic ideal that is truly her own.
किसी तस्वीर को इस वजह से कला नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह खूबसूरत है, ठीक वैसे ही जैसे हर खूबसूरत पंक्तियों का क्रम कविता नहीं बन जाती है।
The Baul tradition dates back to the early 8th C. AD and has grown weaving together threads from Sahajiya Buddhism, Turkish Sufism and Hinduism.
आजादी के बाद पचास के दशक में बिहार के समकालीन चित्रकला में आधुनिकता का प्रवेश और उसके विकास के उत्प्रेरक के रूप में बी.एन. श्रीवास्तव का नाम अग्रगणी है।
चाहे सत्ता-संस्कृति हो या बाजारवादी संस्कृति, दोनों की कोशिश लोक कला को परंपरा, धर्म व रूढ़ी की बेड़ियों में जकड़ कर एक दरबारी, रूढ़िवादी व सजावटी कला बना देने की रही है।
गोदना कला में मोटिव्स के साथ प्रयोग की प्रवृति उर्मिला देवी में चानो देवी से आती है और वह प्रवृति इतनी तेज है कि लोककलाओं की परिधि को अक्सर तोड़ती नजर आती है।
दरभंगा के छोटे से मोहल्ले के कुम्हारटोली में जन्मे लाला पंडित के बारे में यह किसी ने नहीं सोचा था कि वे घोड़ा बनाते-बनाते अपने लिये मिथकीय ‘पेगासस’ को साकार कर देंगे।
गोदना कला जिन कलाकारों की वजह से चर्चा में आई, उनमें एक हैं उत्तम। उन्होंने चानो देवी से गोदना कला सीखी और ऐसा सम्मोहक ‘ब्रह्माण्ड’ रच डाला जिससे निकलना आसान नहीं है।
अवरोध अवसर भी हो सकते हैं, मिथिला कला में शांति देवी की कला यात्रा इस बात को साबित करती है। जब-जब अवरोध सामने आए, शांति देवी उन्हें अवसर में बदलती गयीं।
मिथिला की चित्र परंपराओं में गोदना चित्रकला एक अस्वाभाविक घटना थी। चानो ने अपनी सूझ-बूझ से उसे न केवल ‘स्वाभाविक’ बनाया, बल्कि एक नयी कलाधारा की शुरुआत भी की।
“हाथी ऐश्वर्य लाता है। मैं साक्षी हूं। वह मार्बल का ही क्यों न हो। अन्यथा किसने सोचा था कि जिसके पास खिलौने खरीदने भर के पैसे नहीं थे, वह देश-विदेश को अपनी कला दिखाएगा।”
परंपरागत मिथिला चित्रकला की पुरोधा कलाकारों में बिमला दत्त का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। वह मुख्यत: लाइन शैली में चित्रण करती हैं और चित्रों में परंपरागत विषयों को महत्व देती हैं।
हमारे समय में मूर्तिकला का अर्थ था सिर्फ ‘पोर्ट्रेचर’। उससे आमदनी भी हो जाती थी। इसलिए मैंने भी पोट्रेट्स बनाने की शुरुआत की, 1965 में : पाण्डेय सुरेंद्र
In an email interview with folkartopedia, she shared her experiences of folk art and crafts of Bihar against the contemporary folk world.
आर्ट कॉलेज की स्थिति यह है कि मेरे पास लोटा भर पानी है और छात्र उम्मीद कर रहे हैं कि उन्हें बाल्टी भर पानी मिल जाए। यह कैसे संभव है। हमने अपने पात्र बड़े किये ही नहीं।
चाहे बच्चों की जरूरतों को पूरा करना हो, अपने ऊपर खर्च करना हो, किसी को टिकुली-बिन्दी, साड़ी-ब्लाउज या अपनी पसंद का कोई अन्य सामान लेना हो, हम अपने परिवार से पैसा नहीं मांगते।
मिट्टी से कलाकृतियां बनाना जटिल और श्रमसाध्य काम है। इसके लिए काफी धैर्य की जरूरत होती है क्योंकि एक कलाकृति कई चरणों से गुजरने के बाद पूरी होती है।
कला पहले व्यक्ति से व्यक्ति को जोड़ती है, फिर व्यक्ति से समाज को। मेरे लिए व्यक्ति और समाज अर्द्धनारीश्वर की तरह एक दूसरे पर आश्रित हैं।
गरीबी को आमलोग अपनी नियति मान लेते हैं। नाजदा ने गरीबी के खिलाफ नियति से जंग छेड़ दी। दादी ने सिक्की से खेलना सिखाया था, उन्होंने सिक्की से कामयाबी की इबारत लिख दी।
बिहार की कला में समकालीनता के तत्व सबसे पहले बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में दिखते हैं। इसी समय पटना कलम में नये विषय शामिल हुए, चित्रण हेतु नये माध्यम अपनाए गये और चित्रों में नये प्रयोग भी हुए।
“लोक-शिल्प परंपराओं के विकास में उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान काफी काम कर रहा है, यह सराहनीय है। – Tokio Hasegawa”
लोक कलाकार जब प्रयोगधर्मी हो जाता है और अपनी कला में अन्वेषण करने लगता है तब उसकी कला परंपरागत से समकालीन हो जाती है।
आज गोदना कला में अनेक युवा कलाकार बढ़िया चित्र बना रहे हैं, लेकिन उसमें कोमलता का भाव गायब है। वे कमाई करने वाली मशीन बनते जा रहे हैं।
हमलोग धार्मिक कहानियां, धार्मिक आख्यान या पौराणिक कथाओं को जानते ही कहां थे। आज भी उनके बारे में बहुत खास जानकारी नहीं है।
“देश में मिथिला कला का कोई म्यूजियम नहीं है, सरकार को चाहिए कि जल्दी से जल्दी मिथिला कला का एक बढ़िया म्यूजियम बनवाये, जैसे बिहार म्यूजियम बना है, उससे भी अच्छा।”
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