मिथिला पेंटिंग की प्रमुख हस्ताक्षर और पद्मश्री बउवा देवी का जन्म 25 दिसंबर, 1942 को मधुबनी जिले के सिमरी गांव (राजनगर) में हुआ। मिथिला पेंटिंग से उनका बचपन से ही लगाव था, जो शादी के बाद भी जारी रहा। हालांकि, यह लगाव शादी-ब्याह के अलावा पर्व त्योहारों पर दीवारों तक चित्रकारी करने तक सीमित था। 1966-67 में अकाल के दौरान भारतीय हस्तकला बोर्ड की ओर से जब मिथिला कला के व्यावसायिक पक्ष को उभारने की कोशिश हुई, तो इसका लाभ बउवा देवी को भी मिला। उन्होंने कोहबर घर में दीवारों पर उकेरी जाने वाले चित्रों को कागज और कपड़ों पर उतारना शुरू किया। दुनिया को अलग ढंग से देखने की नजर और उसे कैनवास पर उतारने के हुनर की वजह से वह जल्दी ही मिथिला पेटिंग की शिखर कलाकार बन गयीं। बउवा देवी 1986 में राष्ट्रीय पुरस्कार और 2017 में पद्मश्री से सम्मानित हुईं। फ्रांस के चर्चित कला समीक्षक बिको ने उन्हें अपनी किताब ‘द वुमेन पेंटर्स ऑफ मिथिला’ में जगह दी है।
मिथिला पेंटिंग से उनका जुड़ाव, बढ़ते बाजार के बीच बढ़ती चुनौतियों और उसकी बढ़ती लोकप्रियता का युवा कलाकारों पर असर जैसे विषयों पर हमने बउवा देवी से विस्तार से बातचीत की है। यहां प्रस्तुत है उसी बातचीत का एक अंश:-
फोकार्टोपीडिया: मिथिला पेंटिंग तो मधुबनी की परम्परा का हिस्सा है। शादी-ब्याह हो या तीज-त्योहार, तमाम सामाजिक मौके थे जब इसे दीवारों पर उकेरा जाता था, बल्कि आज भी उकेरा जाता है। बाद में सरकार की कोशिशों से यह कागज पर आया। आपको कब लगा कि कागज पर अब चित्र बनाना चाहिए?
बउवा देवी : हमारे आसपास ऐसा ही माहौल था। सबने दादी-नानी से परंपरा के तौर पर दीवारों पर चित्रों को उकेरना सीखा। लेकिन बचपन से मेरा मन इसमें ज्यादा लगता था। शादी के बाद भी ये लगाव रहा। फिर 1966-67 में जब अकाल पड़ा तो अखिल भारतीय हस्तकला बोर्ड की तरफ से डिजानर भास्कर कुलकर्णी को मधुबनी भेजा गया, ताकि मिथिला पेंटिंग के व्यावसायिक पक्ष को उभारा जा सके। वे जितवारपुर आए और महिलाओं से मिथिला पेंटिंग को कागज और कपड़ों पर उकेरने के लिए किया। फिर मैंने भी अब तक दीवार पर उकेरी जाने वाली चित्रकारी को कागजों पर उतारना शुरू किया। एक तरह से यहीं से शुरुआत हुई।
जब आपने चित्र बनाने शुरू किये तो क्या वह परंपरा वश था या उसका आपके आस-पास जो चित्रकारी कर रहे थे और उससे उनकी जो आमदनी हो रही थी, उसने भी आपको चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया? आपके लिए उसका कोई व्यावसायिक पक्ष भी था?
व्यावसायिक पक्ष था, लेकिन दूसरे के लिए। कम से कम मेरे लिए तो नहीं था। शुरू में, जब मैं जब चित्र बनाती थी, तो वह सिर्फ अपने लिए बनाती थी। लेकिन बाद में जब लोगों को मेरे चित्र पसंद आने लगे तब उन्होंने मुझे उनके अच्छे दाम दिये। भास्कर कुलकर्णी ने मेरी तीन पेंटिंग को 14 रुपये में खरीदा। ये तीनों पेंटिंग शंकर, काली, दुर्गा की थीं। लेकिन, मैं पैसों के लिए चित्र बनाती थी, ऐसा नहीं था।
आपने तमाम धार्मिक प्रतीकों, कहानियों को अपनी पेंटिंग का आधार बनाया है। बाद में नाग-नागिन आपके चित्रों में स्थायी तौर पर आ गये और फिर आपने उस पर अनगिनत सीरीज बनायी। यह कैसे हुआ?
नाग-नागिन की कहानी मैं बचपन में अपनी दादी से खूब सुनती थी और नाग देवता हमारे कुल देवता भी थे। उनका नाम है- कालिका विषहारा। मिथिलांचल और अन्य जगहों पर भी उनकी पूजा की परंपरा है। मिथिलांचल में नवविवाहिताएं सावन में विषहारा की पूजा करती हैं, जो नाग पंचमी से शुरू होकर 15 दिन तक चलती है। यह सब मुझे अपनी तरफ खींचता था, इसलिए मैंने उनका चित्र बनाना शुरू किया। बाद में हासेगावा जापान से आये तो उन्होंने मेरे चित्रों को खूब सराहा और उसके बाद मेरे चित्रों का बाजार भी बनना शुरू हुआ। मैंने इसी विषय पर बहुत सारे चित्र बनाये। लेकिन ऐसा नहीं है सिर्फ इसी पर चित्र बनाये, आप और भी विषयों पर मेरे चित्र देख सकते हैं। जैसे – चांद, सूरज और उनसे जुड़ी धार्मिक कथाओं पर, सूर्यग्रहण पर। जब अमेरिका पर आतंकी हमला हुआ था, उस पर मैं चित्र बनायी थी।
पहली बार कब आपको किसी कला प्रदर्शनी में शामिल होने का मौका मिला?
जब मैं 15-16 साल की थी, तब। उस समय मुझे सीता देवी, महासुंदरी देवी और यमुना देवी के साथ प्रगति मैदान, दिल्ली जाने का मौका मिला। वहां पर मैंने लगभग एक महीने तक अपनी कला का प्रदर्शन किया। उस समय वहां 20 रुपये रोज मिलते थे और तब के हिसाब से वह पैसा बहुत था।
अब मिथिला पेंटिंग पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। उसके कलाकारों को खूब सम्मान मिलता है। लोककलाओं के क्षेत्र में पद्मश्री कलाकार भी मिथिला पेंटिंग में ही सबसे ज्यादा हैं। इस कला का और विकास हो, इसके लिए आप कुछ सुझाव देना चाहेंगी?
सबसे पहले तो देश में मिथिला कला का कोई म्यूजियम नहीं है, सरकार को चाहिए कि जल्दी से जल्दी अपने देश में मिथिला कला का एक बढ़िया म्यूजियम बनवाये, जैसे बिहार म्यूजियम बना है, उससे भी अच्छा। और दूसरा, जैसे-जैसे मिथिला पेंटिंग का दायरा बढ़ा, उसकी लोकप्रियता बढ़ी, उसमें दलाल घुस आये। दलालों को कारण कलाकारों को अपने श्रम का सही मेहनताना नहीं मिल पाता है। सरकार को इस पर भी ध्यान देना चाहिए और कलाकारों को भी उनसे परहेज करना चाहिए। एक बात और, राज्य या केंद्र सरकार के द्वारा दिये जाने वाले पुरस्कारों में जोड़-तोड़ होने जैसी बातें भी सामने आती हैं। इन सबसे चिंता होती है।
आपको 2017 में जब पद्मश्री से सम्मानित किया गया, तब सबसे पहले आपके मन में क्या विचार आया?
यही कि सब ईश्वर की कृपा है। मुझे पेंटिंग बनाने में आनंद आता है और अगर किसी को मेरी कला पसंद आ रही है, तो मैं उसे मिथिला कला का सम्मान समझती हूं। निश्चित तौर पर मिथिला पेंटिंग का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। हां, मैं हमारे युवा कलाकारों से यह जरूर कहना चाहूंगी कि किसी की भी कला, अथक साधना के बाद दीर्घायु बनती है, इसलिए आप उसे मन लगाकर सीखिये और इस कला को खूब ऊंचाई पर पहुंचाइये।