बिहार के कला इतिहास पर अगर नजर दौड़ाएं, तब पाएंगे कि सत्तर के दशक तक वहां आधुनिक कला आंदोलनों का बहुत प्रभाव नहीं था। इसकी दो वजहें थीं, कलाकारों का आर्थिक रूप से कमजोर होना और बिहार स्कूल पर बंगाल का प्रभाव। अपनी कला के प्रति समाज बहुत सजग नहीं था, वह आज भी नहीं दिखता है। उस दौर में बिहार के मूर्तिकार और चित्रकार, दोनों ही अपनी आजीविका के लिए शबीहें बनाते थे। ऐसे में मूर्तिकला को अपनाना एक जोखिम था और उस जोखिम को पाण्डेय सुरेंन्द्र उठाते हैं।
राष्ट्रीय सहारा, नोएडा में बतौर कला संपादक कार्यरत वरिष्ठ कलाकार रवींद्र दास मानते हैं कि वे बिहार के पहले मूर्तिकार हैं जिन्होंने आधुनिक मूर्तिकला को समझने की कोशिश की। हाल ही में उन्होंने पाण्डेय सुरेंद्र से उनकी कला और उनके समकालिक कला माहौल पर विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत है उसी चर्चा के कुछ अंश:-
सर, नमस्कार। बातचीत की शुरुआत मैं एक सामान्य सवाल से करना चाहूंगा कि आप कला के क्षेत्र में कैसे आये।
नमस्कार। हमारे घर में कला का कोई माहौल नहीं था। मेरे दादाजी बिहार के चर्चित कवियों में से थे। हमारे घर साहित्यिक पत्रिकाएं आती थीं। उनमें ईश्वरी प्रसाद वर्मा का चित्र छपा होता था। भेटनरी कालेज में भी एक कलाकार थे रघुवंश भूषण। वे मेरे पिता के परम मित्र थे। उन्होंने कला की पढ़ाई नहीं की थी लेकिन कलाकारों की संगत में चित्र बनाना सीखा था। रमेश बक्शी भी थे। उनका अपना प्रेस था। सभी के साथ कला और साहित्य पर चर्चाएं होती थीं। उन चर्चाओं से ही मैं जान पाया कि चित्रकला की पढ़ाई भी होती है। हालांकि तब मैं चित्रकला को रेखांकन ही समझता था। इसकी वजह थी। स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों का खूबसूरत रेखांकन मुझे आकर्षित करता था। कलाकारों से सीधा संपर्क मुझे बनारस प्रवास के दौरान हुआ। वहां इंजीनियरिंग कालेज में चित्र प्रदर्शनी आयोजित होती थी। वहीं मुझे शांतिनिकेतन की जानकारी मिली। मैंने जानकारी जुटाई और पिताजी के समक्ष कलाकार बनने की इच्छा जाहिर कर दी। इजाजत भी मिल गयी और शांति निकेतन में दाखिले के साथ ही कलाकर्म की यात्रा की विधिवत शुरुआत हो गयी।
शांति निकेतन का माहौल कैसा था?
तब वहां ज्यादा शिक्षक नहीं थे। पांच-छह शिक्षक थे जिनमें रामकिंकर बैज और शंखो चौधरी मूर्तिकला पढाते थे। उन्होंने मूर्तिकला को वहां स्थापित किया था। मूर्तिकला विभाग में तब सिर्फ क्ले-मॉडलिंग होता था। तब हम अलग-अलग शिक्षकों से अलग-अलग विषय पढ़ते थे। पाठ्यक्रम की कोई अनिवार्यता नहीं थी वहां। कभी चित्रकला में ज्यादा समय दिया तो कभी मूर्तिकला में।

पांडेय सुरेंद्र
वरिष्ठ मूर्तिकार एवं पूर्व प्राचार्य, पटना आर्ट कॉलेज, बिहार
कहा जाता है कि आप पहले चित्रकार थे, बाद में मूर्तिकला में हाथ आजमाया।
ठीक कहा आपने। मेरी रुचि चित्रकला में थी। मैंने टेंपरा में खूब काम किया। दुर्भाग्य से वे चित्र अब मेरे पास नहीं है। बाद में मेरी रुचि त्रि-आयामी कलाकृतियों में बढ़ी। तब लगा कि मुझे मूर्तिकला में हाथ आजमाना चाहिए। शांति निकेतन में पढाई के दौरान मूर्तिकला विषय के रूप में था। वह अनुभव काम आया। उन दिनों उसका अर्थ था सिर्फ ‘पोर्ट्रेचर’। उससे थोड़ी आमदनी भी हो जाती थी। इसलिए मैंने भी पोट्रेट्स बनाने की शुरुआत की, 1965 में। मैं तब यदुनाद बैनर्जी के संपर्क में था। उनके कई छात्र इसमें पहले से हाथ आजमा रहे थे। परंतु, मेरा काम अलग था। मैं पोट्रेट्स में क्ले-हैंडलिंग और टेक्सचर्स को बहुत महत्व देता था। धीरे-धीरे दूसरे प्रदेशों में आना-जाना बढ़ा। दूसरे कलाकारों की कलाकृतियों को देखा। तब नये अनभुव हुए और मेरी समझ भी बढ़ी।
जब आप कला के क्षेत्र में सक्रिय हुए, तब बिहार में कितने कलाकार मूर्तिकला में काम कर रहे थे और आप उनके काम को किस तरह से देखते हैं?
मेरे जेहन में पहला नाम आता है विजय कुमार मण्डल का। तकनीकी स्तर पर उनका काम अद्वितीय था। वे पतले रिलीफ में ज्यादा अच्छा काम करते थे। लेकिन, उनके काम में रचनात्मकता का अभाव था। उन्होंने संयोजन को भी समझने की कोशिश नहीं की। वह जिस परम्परा से आये थे, वहां उसकी गुंजाइश भी नहीं थी। वह पश्चिम की कला प्रवृतियों से अनजान थे। लेकिन आप उनकी कला पर अजंता का प्रभाव देख सकते हैं। एक और कलाकार थे, सत्येन चटर्जी। सत्येन ज्यादा काम नहीं करते थे, लेकिन उनकी कला में आधुनिकता का पुट मिलता है। तब मूर्तिकला में ये दो ही कलाकार हुआ करते थे।
इसकी वजह?
क्योंकि मटीरियल उपलब्ध नहीं था और पैसे भी नहीं होते थे कि मटीरियल बाहर से मंगाएं। मैंने अपना पहला काम सड़क किनारे मिले माइल स्टोन से किया। उसके दो-तीन पीस मुझे मिल गये थे। यह 1970 के आसपास की बात है। गांधी मैदान में अखिल भारतीय कला प्रदर्शनी लगी थी। वहां नवादा से एक कलाकार आये थे, कोमल मलहोर, डोकरा कास्टिंग में माहिर। उन्होंने मुझे कास्टिंग सिखाया। मैंने दो-तीन कलाकृतियां बनायीं जिसे उन्होंने कास्ट किया था। उनसे मुझे अनुभव और उत्साह दोनों मिला। मैं विदेश भी मेटल कास्टिंग की वजह से ही गया। वहां से लौटने के बाद काफी दिनों तक फीगरेटिव काम किया। टेक्चर्स में प्रयोग किये, उसे सिंप्लीफाई किया, डिस्टार्ट किया, लेकिन काम फिगरेटिव ही रहा। अमूर्तन में तब कोई विशेष प्रयास नहीं किया। लेकिन, मेरी कलाकृतियों में एक फोर्स था। वह किंकर दा से आया था। मैंने भी उसे अपनी कलाकृतियों में बनाये रखा। वहां नन्दलाल बोस की बेटी गौरी भांज हमें डिजाइन पढाती थीं। गौरी कहती थीं, “जैसे संगीत में रिदम होता है वैसे ही कला और डिजाईन में रिदम होता है”। उसकी सीख हमेशा साथ ही। कहां कितना वेट देना है, कितना स्पेस छोडना है, डिजाइन और फॉर्म को कैसे संयोजित करना है, सिंपल करना है, यह सीखने का असर विश्वरूप बोस से सीखा, जो ग्राफिक्स के शिक्षक थे और नंदलाल जी के बेटे।
आपकी कलाकृतियों पर विदेश यात्रा का कितना प्रभाव पड़ा?
ज्यादा नहीं। मैंने वहां सिर्फ तकनीक सीखा। मैंने अपने काम में भारतीयता बचाये रखी। कुछ लोग फॉर्म को स्प्रेड करके काम करते है, मैंने उसे कम्पैक्ट रखा और कंपोजिशन पर ध्यान दिया। वही हमारी परंपरा है। परंतु, आप देखेंगे कि प्रकटीकरण का ढंग बदल गया। कंपोजिशन का कॉम्पैक्टनेस, लाइट वेट लिपिंग का ज्ञान शांतिनिकेतन की देन थी, उनमें क्वालिटी कैसी आएगी, टेक्सचर्स कैसे और कहां तक छोड़े जाएं, इसे विदेश में ही सीखा।
विदेश में तब किन मूर्तिकारों की कलाकृतियों पर चर्चाएं हुआ करती थीं?
अमरीका में उन दिनों बारबरा हैपवर्थ और यूरोप में हेनरी मूर की चर्चा खूब होती थी। बारबारा की चर्चा इसलिये होती थी क्योंकि उसके मूर्तिशिल्प पेंटिंग के करीब होते थे। मूर का ओरिजिनल काम मैंने देखा है। कैसे अपने स्टाफ से वे छोटा मैकेड से मैकेनिकली बड़ा काम करवाते थे, यह देखा मैंने। भारत में चिंतामणि कर और प्रदोष दास गुप्ता भी खूब चर्चाओं में थे।
पटना आर्ट कॉलेज के दिनों के अपने अनुभवों को साझा करना चाहेंगे?
मैं 1956 में शांतिनिकेतन से पटना आया था, इलस्ट्रेटर की नौकरी करने। अजंता प्रेस में बुक कवर और इलस्ट्रेशन बनाने की नौकरी भी की, लेकिन वह नौकरी रास नहीं आयी। तब मैं पटना के कला जगत को समझना शुरू किया। फिर पटना आर्ट कालेज में प्रिसिंपल के पद पर नियुक्ति हुई। वहीं से रिटायर भी हुआ। मैं जब प्रिंसिपल बना था तब कॉलेज में तीस-पैंतीस छात्र हुआ करते थे। ज्यादातर छात्र कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के थे। आज भी बिहार और उत्तर प्रदेश में कला के ज्यादातर छात्र पढने-लिखने में कमजोर और गरीब ही होते हैं। यही वजह है कि उन्हें पैर जमाने में मुश्किल होती है। पटना से कुछ अच्छे छात्र निकले जिनसे आशाएं थीं। वे भी जीवन की जद्दोजहद में उलझ कर रह गये। मैं चाहता था छात्रों में अपनी दृष्टि विकसित हो, वे अकादमिक स्टिल लाइफ या लाइफ स्टडी तक ही सीमित न रहें। वे तकनीकी तौर पर भी मजबूत हों। मैं मेथड और मटीरियल पर जोड़ देता था ताकि मौका मिलने पर वे अपनी कला को एक्सप्लोर कर सकें। मुझे पत्थर काटने का मौका बहुत बाद में मिला। चुनार जाकर पत्थर काटना सीखा और फिर छात्रों को सिखाया। खैर, दो अच्छे कलाकार पटना आर्ट कॉलेज से निकले, रजत घोष और विनोद सिंह। दोनों ने खूब नाम कमाया। छात्र जीवन में भी दोनों के काम करने का स्टाइल अलग ही था।
सर, हमसे बात करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
आपको भी धन्यवाद।