1970 के आसपास जब मिथिला चित्रकला कागजों पर उतरी, तब परंपरागत चित्रकला में गंगा देवी, जगदंबा देवी, सीता देवी, बौवा देवी, महासुंदरी देवी, कर्पूरी देवी, विमला दत्त और गोदावरी दत्त जैसे नाम तेजी से स्थापित होते चले गए। उनके बरक्स लोककला में जो नाम उभरते हैं और स्थापित होते हैं, उनमें यमुना देवी, चानो देवी, शांति देवी, उर्मिला देवी पासवान, महनमा देवी, उत्तम पासवान आदि महत्वपूर्ण हैं। यमुना देवी, चानो देवी और शांति देवी का नाम अलग-अलग कारणों से चर्चित है और उनमें एक कारण है गोदना चित्रकला।
गोदना चित्रकला की शुरुआत करने का श्रेय चानो देवी को जाता है। उनका जन्म 20 अप्रैल 1955 को जयनगर, मधुबनी स्थित गांव रमना के एक मजदूर परिवार में हुआ। उनके माता-पिता का नाम रवनी देवी और सूरज पासवान था। वे स्थानीय काश्तकार की खेतों में काम किया करता थे। 1967 में चानो देवी की शादी जितवारपुर, मधुबनी के निवासी रौदी पासवान से हुई, जहां उन्होंने न सिर्फ गोदना चित्र बनाना सीखा बल्कि खुद को स्थापित भी किया।
तमाम जर्नर्ल्स एवं रिपोर्ट्स के मुताबिक, 1972 में जब जर्मन एंथ्रोपोलॉजिस्ट एरिका मोजर मिथिला चित्रकला पर फिल्मांकन के उद्देश्य से जितवारपुर आईं और सीता देवी के घर ठहरीं, तब वहां उनकी मुलाकात चानो देवी से हुई। उन्होंने चानो देवी की देह पर बने गोदना चित्रों को देखा और उन्हें कागज पर उतारने की सलाह दी।
एरिका मोजर की सलाह और सीता देवी की प्रेरणा से चानो देवी ने गोदना चित्रों को कागज पर बनाना शुरू किया। एक अड़चन यह थी कि चानो के शरीर पर ज्यादा गोदना नहीं थे। तब रौदी पासवान मधुबनी से सटे एक दूसरे गांव, रांटी से एक नटिन जायदा को लेकर घर आए। जायदा गोदना गोदने में माहिर थी। रौदी के आग्रह पर जायदा ने चानो देवी को कई दिनों तक कागज पर गोदना चित्र बनाना सिखाया। यही वजह है कि चानो आजीवन जायदा को अपना गुरु मानती रहीं।
जायदा से गोदना चित्र बनाना सीखने के बाद जल्दी ही चानो ने अपने चित्रों में लोकगाथा राजा सलहेस के केंद्रीय चरित्रों मुख्य रूप से राजा सलहेस, मोतीराम, बुधेश्वर, दौना मालिन, रेशमा-कुसमा, चूहड़हल आदि का चित्रण शुरू किया। ये चरित्र गोदना चित्रकला के केंद्रीय पात्र बनकर उभरे। इसी दौरान भास्कर कुलकर्णी ने उनके चित्रों को देखा और काफी प्रभावित हुए। उन्होंने न सिर्फ चानो के बनाए चित्रों को खरीदा, बल्कि लंबे समय तक उन्हें प्रोत्साहित भी करते रहे।
गोदना चित्र बनाने से पूर्व चानो देवी भित्ति चित्रण किया करती थीं। वह काली, दुर्गा, लक्ष्मी या किसी एक चरित्र को भित्ति चित्रण के केंद्र में रखकर उसके इर्द-गिर्द हाथी, घोड़ा, चांद, चिड़िया आदि के चित्रों का संयोजन करतीं और उन्हें फूल-पत्तियों एवं वृक्षों से सजातीं। वह बबूल का गोंद मिश्रित पानी में सूखा रंग घोलकर उससे अपने चित्रों में रंग भरती थीं।
जब उन्होंने कागज पर गोदना चित्र बनाना शुरू किया, तब उस कागज की खुरदुरी सतह पर गोबर की घोल का प्रयोग किया जिसमें बबूल का गोंद मिला होता है। इससे कागज सूखने के बाद मटमैला और कड़क हो जाता था और उसकी सतह चिकनी व चमकीली हो जाती थी। उस पर चानो माचिस की तीली से रेखांकन करती और माचिस की तीली पर ही सूती कपड़ा या रूई का फाहा बांधकर रेखांकन के बीच प्राकृतिक रंगों को भरती थीं। इस दौरान कई बार वह काले रंग का ठोप देकर आकृतियों को सजाती थीं।
चानो देवी की यह तकनीक अस्सी के दशक के अंत तक काफी लोकप्रिय रही और उसका प्रभाव जितवारपुर के ज्यादातर लोककलाकारों पर स्पष्ट रूप से दिखता है। इसी दशक की शुरुआत में जापान से मधुबनी आए टोकिये हासेगावा की रौदी पासवान से मुलाकात होती है। वह भी चानो देवी की कलात्मक क्षमता से बेहद प्रभावित होते हैं और उन्हें प्रोत्साहित करते हैं।
चानो देवी की कलात्मक क्षमता का अंदाजा इसी से मिलता है कि उनके द्वारा बनाए चित्र फ्रांस, अमरीका, जर्मनी की गैलरियों और जापान के मिथिला म्यूजियम में संकलित हैं। इसके अलावा उनके चित्र पटना, रांची, कोलकाता (कलकत्ता), दिल्ली, मुंबई (बंबई), चेन्नई (मद्रास), पूना, ग्वालियर, इंदौर, उदयपुर, भोपाल, अहमदाबाद और गोवा में प्रदर्शित किए गए हैं।
मिथिला चित्रकला में उनके योगदान को देखते हुए वर्ष 1984-85 के लिए उन्हें राज्य पुरस्कार और 2007 में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
2009 में कैंसर से चानो देवी का निधन हो गया।
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