मिथिला कला में गोदावरी दत्त का नाम आदर से लिया जाता है। इसकी अनेक वजहें हैं। वो पुरानी पीढ़ी की मौजूदा कलाकारों में सबसे अनुभवी कलाकारों में से एक हैं। परंपरावादी चित्रकारों की कलाकृतियों के बीच उनकी कलाकृतियां आसानी से पहचानी जा सकती हैं। पौराणिक विषयों के चित्रण में मौलिकता के साथ-साथ प्रयोग भी करती रही हैं। प्रयोग के प्रतीक फिर अपनी परंपरा से ही लाती हैं।
वर्ष 2019 में गोदावरी दत्त को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित भी किया गया है। फोकार्टोपीडिया ने पिछले कई वर्षों में उनसे कई दौर की बातचीत की है। प्रस्तुत है यहां उन्हीं बातचीत का एक अंश:
फोकार्टोपीडिया – गोदावरी जी, नमस्कार। आप सबसे पहले हमारे पाठकों को अपने बारे में बताएं।
गोदावरी दत्त: नमस्कार। मेरा जन्म बिहार के दरभंगा जिले में हुआ। मिथिला पेंटिंग हमारे संस्कारों में रहा है, हमारी परंपरा का हिस्सा है। मेरी मां घर में पेटिंग बनाती थी। गांव-घर में शादी-ब्याह, जनेऊ, मुंडन और तीज-त्योहारों पर मिथिला पेटिंग बनाया जाता था। उन दिनों कायस्थ परिवारों में शादी-ब्याह पर दो कोहबर, एक कमलदह, एक दशावतार और बांस का चित्र बनाने की परंपरा थी। आमतौर पर इनको दीवार पर ही बनाया जाता था, लेकिन हमारे घर में कागज पर भी बनता था। मेरी मां बनाती थी। मां जब चित्र बनाती थी, तब मैं चुपके से जाकर उसमें कुछ लाइन खींच देती थी। एक दिन मां ऐसा करते हुए देख ली। मैं डर गयी कि अब डांट पड़ेगी, लेकिन मां डांटी नहीं, बल्कि बोली कि बहुत अच्छा बनायी हो, और बनाओ, खूब बनाओ। तब से ही मैं मिथिला पेटिंग बना रही हूं। जब छोटी थी तब दीवार पर बनाती थी और कागज पर भी बनाती थी, अब ज्यादातर कागज पर ही बनाती हूं। हालांकि, अब पहले जैसा तेज हाथ नहीं चलता है, उम्र हो गयी है, इसलिए थोड़ा टाइम लगता है।
मिथिला कला पहले दीवार पर थी, फिर कागज पर आयी और फिर बाजार का हिस्सा बन गयी। आपने सारे कालखंडों को देखा है। उसके बारे थोड़ा चर्चा करना चाहेंगी?
जी। 1964-65 के अकाल के दौरान भास्कर कुलकर्णी नाम के एक व्यक्ति मुझसे मिलने आए थे। वो पूरे मधुबनी में घूम रहे थे, गली-गली। अजीब-सी भाव-भंगिमा थी। खैर, वो सबसे पेटिंग खरीद रहे थे और बदले में पैसा दे रहे थे। वो मेरे घर भी आए, दो बार। लेकिन दोनों ही बार उनको खाली हाथ लौट जाना पड़ा। मैं लोकलाज के चलते उनसे नहीं मिलती थी। वो जब तीसरी बार मेरे दरवाजे पर आए तब, अपने जेठ के समझाने पर मैं उनसे मिली। उन्होंने मेरी पेंटिंग को देखा और खूब सराहा। वो मेरी पेंटिंग खरीदना चाहते थे, लेकिन मैंने पेंटिंग बेचने से मना कर दिया। बाद में जेठ और घरवालों के समझाने पर मैंने उनको अपनी पेंटिंग बेची। लगभग उसी समय पुपुल जयकर की पहल पर मधुबनी में वस्त्र मंत्रालय का कार्यालय खुला और पेंटिंग की बिक्री होने लगी। उनलोगों ने पेटिंग की तीन कैटेगरी बनायी थी। ए, बी और सी। ‘ए’ ग्रेड की पेंटिंग के लिए वो लोग 10 रुपये, ‘बी’ ग्रेड की पेंटिंग के लिए 7 रुपये और ‘सी’ ग्रेड की पेंटिंग के 5 रुपये देते थे। तब के हिसाब से उतना पैसा बहुत होता था।
उसके बाद क्या हुआ?
घर के लोगों ने जब प्रोत्साहित किया और मेरी पहली पेंटिंग बिकी, उसके बाद मुझे एक रास्ता मिल गया। मैं पेंटिंग बनाने में जुट गई और उसकी बिक्री भी होने लगी। मुझे ध्यान है कि एक अमेरिकी ने मेरी पेंटिंग 25 रुपये में खरीदी थी। पेंटिंग की बिक्री से पैसे मिलने लगे, तो जिंदगी की गाड़ी भी आसानी से आगे बढ़ने लगी।
आपके चित्रों की पहली प्रदर्शनी कब लगी?
मेरे चित्रों की पहली प्रदर्शनी 1985 में जर्मनी में लगी थी और 17 दिन तक चली। इसके बाद जापान में कई बार मेरे चित्रों की प्रदर्शनी लगी और वहां जाने का मौका भी मिला। जापान में बहुत ही मजेदार अनुभव हुआ। जब पहली बार वहां मेरे बनाये चित्रों की प्रदर्शनी लगी, तब वहां के लोगों ने उसे छापा कला कहा। उन्हें भरोसा ही नहीं हो रहा था कि इन चित्रों को हाथ से बनाया गया है। तब मैंने उन्हें मिथिला पेंटिंग उनके सामने बनाकर दिखाई। उसके लिए प्राकृतिक रंग भी वहां मिलने वाले फल-फूल, सब्जी और पत्तियों से तैयार किए और फिर चित्र बनाए। तब जापानियों को भरोसा हुआ कि इन चित्रों को हाथ से बनाया गया है।
आपने हजारों चित्र बनाए हैं, जिनमें समुद्र मंथन, त्रिशूल, कोहबर, कृष्ण, डमरू, चक्र, बासुकीनाग, अर्धनारीश्वर और बोधिवृक्ष सबसे चर्चित रहे हैं। आप इनके बारे में विस्तार से बताइये, खासतौर पर त्रिशूल के बारे में, जिसे आपने जापान के मिथिला म्यूजियम के लिए बनाया था।
मैंने जब पहली बार सुना कि 18 फीट लंबा और 5 फीट चौड़ा त्रिशूल बनाना है, तो मैं घबरा गई। लेकिन जब मैंने उसे बनाना शुरू किया तो फिर लगा कि जैसे कोई अलौकिक शक्ति मुझे इसके लिए प्रेरित कर रही है। मैं त्रिशूल बनाने में जुट गई। मैंने उस त्रिशूल पर सूर्य, चंद्रमा, नाग, ऊं, धरती, आकाश और पाताल बनाए। मुझे छह महीने में उसे पूरा करना था, लेकिन उसमें आधा ही बन पाया। उसके बाद मैं मधुबनी वापस आ गयी। कुछ महीने बाद जब दोबारा जापान गई तब वह पेंटिंग पूरी हो पाई। बाकी पेटिंग के बारे में भी बताऊंगी, लेकिन अगली बार जब आप आएंगे तब।
अच्छा आपकी अर्द्धनारीश्वर पेंटिंग भी बहुत पसंद की जाती है। जब आप अपनी बनायी यह पेटिंग देखती हैं, तब आपके मन में क्या ख्याल आता है?
यही कि कला पहले व्यक्ति से व्यक्ति को जोड़ती है, फिर व्यक्ति को समाज से। मेरे लिए व्यक्ति और समाज अर्द्धनारीश्वर की तरह हैं, एक दूसरे पर आश्रित।
इस बातचीत के लिए आपको धन्यवाद।
जी, आपको भी बहुत-बहुत धन्यवाद।
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