सिक्की कला ने संवार दी ‘सूरत’: नाजदा खातून

Nazda Khatoon, Eminent Sikki artist. Credit: Sujata Kumari
Nazda Khatoon, Eminent Sikki artist. Credit: Sujata Kumari

बिहार की सिक्की कला को नई ऊंचाइयां देने वाली कलाकार नाजदा खातून का जन्म मधुबनी जिले के मंगरौनी गांव में हुआ। बचपन में होश संभालते ही घर की जिम्मेदारियां हिस्से में आ गईं। कभी स्कूल जाने का मौका ही नहीं मिला। लेकिन, नाजदा ने खाली समय में अपनी दादी से सिक्की कला का हुनर खूब सीखा। इसमें डलिया और टोकरी के साथ-साथ सिक्की से गुड्डे-गुड़िया तक बनाना शामिल था। नाजदा के पिता मजदूरी करते थे, जिसमें परिवार का गुजारा मुश्किल से चल रहा था। दस वर्ष की होते-होते नाजदा को भी मजदूरी में जुटना पड़ा और तेरह वर्ष की उम्र में मधुबनी जिले के ही उसराही गांव में मो. जासिम से शादी हो गई। मायके से ससुराल आने पर भी गरीबी-तंगहाली ने पीछा नहीं छोड़ा। पति रिक्शा चलाकर जो कुछ कमाते थे, उसमें दो जून की रोटी जुगाड़ बामुश्किल होता था। परिवार बढ़ने के साथ खर्चे भी बढ़े। इसलिए उन्हें फिर मजदूरी के लिए उतरना पड़ता।

इन हालातों में लोग जहां गरीबी को अपनी नियति मान लेते हैं। वहीं, नाजदा ने उस गरीबी से लड़ने का फैसला किया। उन्होंने अपनी दादी से सीखी सिक्की कला को कमाई का जरिया बनाने का फैसला किया। हालांकि, यहां भी लंबा संघर्ष उनका इंतजार कर रहा था। यह पुरानी बात है, आज नाजदा एक सफल कलाकार हैं। उनके पास अब एक बेहतर जिंदगी बसर करने के लिए पैसा है और शोहरत है। 2011 में उन्हें बिहार सरकार के प्रतिष्ठित कला पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है। प्रस्तुत हैं नाजदा खातून से खास बातचीत: –

फोकार्टोपीडिया: सिक्की कला को पेशेवर तरीके से अपनाने का खयाल कब आया?

नाजदा खातून: शादी के बाद, जब हमलोग लगातार गरीबी से जूझ रहे थे, पैसे-कौड़ी की बहुत तंगी थी। परिवार को इससे बाहर निकालने का उपाय नहीं सूझ रहा था। फिर बचपन में सीखी सिक्की कला से पैसा कमाने का खयाल आया। तब सिक्की का सामान बनाने लगी जिसमें डलिया मौनी, सूप गुड्डे-गुड़िया भी शामिल थे। मैंने चटख रंगों का इस्तेमाल करके उन्हें आकर्षक बनाने की कोशिश की।

सिक्की के सामानों के लिए बाजार आसानी से मिल गया?  

नहीं, बहुत मुश्किल आई। एक समय तो ऐसा लगा कि तंगहाली पीछा ही नहीं छोड़ेगी। मैं सिक्की के तरह-तरह के नमूने बनाकर जिला उद्योग केंद्र से सरकारी दफतरों तक भटकती रही, लेकिन कहीं से कोई मदद नहीं मिली। फिर किसी ने पटना में उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान जाने की सलाह दी। वहां पर अशोक कुमार सिन्हा जी से मिली। उनसे मदद मांगी। उन्होंने मुझे मदद का आश्वासन दिया। फिर अनेक मेलों और प्रदर्शनियों में भेजा। वहां मेरे सामान और काम दोनों को काफी पसंद किया गया। सामान भी बिका। इस तरह धीरे-धीरे आमदनी होने लगी और मेरा हौसला बढ़ा। एक तरह से कहें कि गाड़ी पटरी पर लौटने लगी।

अच्छा यह बताइए कि ये सिक्की क्या होती है, कहां से मिलती है और इसकी खूबी क्या है?

सिक्की मिथिलांचल के जल जमाव वाले इलाके में पैदा होने वाली एक खास है। इसमें लाल फूल आने के बाद कटाई की जाती है। लेकिन, पहले इसमें से डंठलों को निकाला जाता है। इस काम को करने का हुनर महिलाओं के पास है। इन्हीं डंठलों को चीरकर सुखाया जाता है। इसका वास्तविक रंग सुनहरा होता है। फिर इसे अलग-अलग रंगों में रंग लिया जाता है। इसके काटकर और बुनाई करके अलग-अलग सामान तैयार किए जाते हैं। इसकी सबसे बड़ी खूबी है कि ये लंबे समय तक चलती है। इससे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होता है। एक तरह से यह पूरी तरह से प्राकृतिक उत्पाद है क्योंकि इससे बने सामानों में सबकुछ प्राकृतिक ही होता है।

‘Fish’, Sikki craft, Nazada Khatoon, Madhubani, Bihar © Folkartopedia library

अच्छा ये बताइए कि आपने सिक्की कला में परंपरागत सामान के साथ-साथ नये-नये सामान भी बनाए। उसे प्रयोग भी कहा जाता है। क्या इसके लिए आपने कभी कोई ट्रेनिंग भी ली है?

वैसे तो मैं खुद से ही नये-नये सामान बनाने की कोशिश करती थी। लेकिन, एक बार जब उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान ने अहमदाबाद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन के सहयोग से सिक्की कलाकारों को ट्रेनिंग दिलवाई, तब उसमें मैं भी शामिल हुई थी। इसमें बाजार की मांग के हिसाब से चीजें को बनाना सिखाया गया। इससे सिक्की के सामान की बाजार में मांग बढ़ी और मुझे भी इससे बहुत फायदा हुआ।

अब तक आप कहां-कहां मेलों और प्रदर्शनियों में हिस्सा ले चुकी हैं?

मैं अबतक दिल्ली, पुणे, चेन्नई, भुवनेश्वर और सूरजकुंज जैसी कई जगहों पर प्रदर्शनी और मेलों में हिस्सा ले चुकी हूं। इसके अलावा मुझे दिल्ली के प्रगति मैदान में भारतीय अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेला में बिहार मंडल को सजाने का भी मौका भी मिला है।

आप सिक्की कला के प्रशिक्षण से भी जुड़ी हैं?

जी। मेरे गांव की महिलाओं का सिक्की कला में रूझान अब काफी बढ़ा है। मैं उन्हें प्रशिक्षण देती हूं। इसके अलावा उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान भी कई जगहों पर ट्रेनिंग देने के लिए भेजता है। हमें दूसरे राज्यों से भी ट्रेनिंग के लिए बुलाया जाता है। दिल्ली, यूपी में भी हमलोग कई बार ट्रेनिंग दे चुके हैं और सिक्की कला का प्रदर्शन कर चुके हैं।

आप सिक्की कला के भविष्य को किस तरह से देखती हैं?

सिक्की कला का भविष्य बहुत अच्छा है, क्योंकि इसमें लोगों के रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजें बनती हैं। आजकल जिस तरह से लोगों में पर्यावरण को लेकर जागरूकता बढ़ी है, उसमें ऐसे प्राकृतिक चीजों से बने सामानों की मांग बहुत ज्यादा होने लगी है। अब तो विदेश में भी सिक्की से बने सामान की मांग हो रही है। मेरा मानना है कि कलाकारों को अपने हुनर को निखारने पर ध्यान देना चाहिए, ताकि लोगों को अच्छे और जीवन उपयोगी सामान मिल सके।

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