1970 से 80 के दशक के मिथिला चित्रकला दुनिया भर में चर्चित हो चुकी थी और उसे अंतराष्ट्रीय पहचान दिलाने में जापान के तोकामाची स्थित मिथिला म्यूजियम का महत्वपूर्ण योगदान है। इस म्यूजियम की स्थापना वहां के जाने-माने संगीतज्ञ टोकियो हासेगावा (Tokio Hasegawa) ने की है। 24-25 जनवरी को बिहार म्यूजियम में आयोजित कनेक्टिंग बिहार आर्ट एंड क्राफ्ट विद इंटरनेशनल कम्यूनिटी कार्यक्रम के तहत आयोजित दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार और वर्कशॉप में टोकियो हासेगावा शामिल हुए थे। इस दौरान उनके जीवन के अनछुए पहलुओं और मिथिला चित्रकला से उनके अगाध लगाव समेत तमाम विषयों पर कला लेखक सुनील कुमार ने विस्तार से बातचीत की। यहां प्रस्तुत है उसी बातचीत के कुछ अंश:-
सुनील कुमार: नमस्कार श्री हासेवागाव, बिहार के ज्यादातर लोग आपके बारे में अनभिज्ञ हैं, खासतौर से आपकी पृष्ठभूमि से। इसलिए सबसे पहले आप अपने बारे में बताएं
टोकियो हासेगावा: नमस्ते, मेरा नाम टोकियो हासेगावा है। मेरा जन्म 1948 में टोकियो के डाउनटाउन इलाके में हुआ जिसे असक्शा भी कहा जाता है। यह टोकियो का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है क्योंकि यहां कभी सामुराई रहा करते थे। मैं भी एक सामुराई परिवार से हूं। उस इलाके में जब सामुराई संस्कृति खत्म हो रही थी, तब हमारे परिवार ने शिल्प के क्षेत्र में कदम रहा और काफी सफल रहे। वे जापानी खटना बनाते थे। खटना युद्ध का हथियार था, तलवार जैसा। सामुराई संस्कृति में युद्ध लगभग 300 सौ साल पहले ही खत्म हो चुका था, वे लड़ाई छोड़ चुके थे और शांतिपूर्वक अपनी संस्कृति को विकसित कर रहे थे, खासकर टोकियो में। खटना हमारी संस्कृति का हिस्सा था, लिहाजा हम उसे प्रतीक के तौर पर अपने साथ रखते थे। मेरा परिवार भी उनमें शामिल था और अपने समय में काफी लोकप्रिय था। मैं अपने परिवार की 16वीं पीढ़ी में आता हूं।
आप करीब डेढ़ दशक बाद किसी कार्यक्रम में बिहार आए है। अबतक का अनुभव आपका कैसा रहा?
बिहार भगवान बुद्ध की भूमि है और हम जापानी लोगों के धार्मिक विश्वास बौद्ध धर्म के काफी करीब है। इसलिए यहां आना अत्यंत सुखद एहसास है। मैं इसलिए भी बहुत खुश हूं क्योंकि वर्षों बाद मुझे मिथिला चित्रकला के मूर्धन्य चित्रकारों से मिलने का अवसर मिला। यहां कर्पूरी देवी और गोदावरी दत्त से मिलकर मैं सुखद आश्चर्य से भर उठा। यहां के स्थानीय कलाकारों ने मेरा स्वागत इस तरह से किया मानो मैं कोई सुपरमैन हूं, जो मैं नहीं हूं। इन सबके लिए उनका धन्यवाद।
आपका रुझान मिथिला चित्रकला की तरफ कैसे हुआ ?
1981 में एक जापानी युवक मेरे पास आया, जो एक यात्री था और मधुबनी से हमारे पास आया था। उसके पास 60 मिथिला चित्र थे जिन्हें वह जापान में प्रदर्शित करना चाहता था। उसने बताया कि गांव की सीधी-सादी महिलाओं ने उन चित्रों को बनाया था। मैंने मिथिला चित्रों के बारे में सुना था लेकिन उन्हें कभी देखा नहीं था। इसलिए जब मैंने उन्हें पहली बार देखा तो वे मुझे प्रभावशाली नहीं लगे, क्योंकि मैं दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कई प्रभावशाली परंपरागत चित्रों को देख चुका था। मेरी अरुचि दिखाने पर उसने कहा कि वह मुझे सभी चित्रों को तीन महीने के लिए किराये पर दे सकता है ताकि मैं उनकी प्रदर्शनी लगा सकूं। एक पोस्टर बनाने के दौरान उसने गंगा देवी का बनाया एक शेर का चित्र दिखाया, जिसमें अनेक अर्धचंद्राकार रेखाओं का प्रयोग किया गया था। उस चित्र ने मेरा ध्यान खींचा और तब मैंने उन चित्रों को एक-एक करके देखा। ध्यान से देखने पर मैंने पाया कि हर चित्र दूसरे चित्र से कितना भिन्न है। इसके तुरंत बाद मैंने मधुबनी का रुख किया और फिर अनेक चित्रकारों के संपर्क में आता चला गया।
मिथिला म्यूजियम बनाने का खयाल आपको कैसे आया?
मिथिला म्यूजियम बनाने का खयाल मुझे गंगा देवी से मुलाकात के बाद आया। 1981 में ही मैं उस युवक के साथ मिथिला आया और रशीदपुर जाकर गंगा देवी से मिला। अपनी मुलाकात में उन्होंने मुझसे मिथिला चित्रकारों के लिए कुछ करने का आग्रह किया क्योंकि वहां काफी गरीबी थी। उन्होंने यह भी बताया कि अमरीकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर को मिथिला चित्र उपहार में दिये गये थे। उन कलाकारों की स्थिति को देखते हुए मुझे लगा कि अगर इन चित्रों का संग्रह नहीं किया गया, तब एक दिन वे भी जापानी ‘यूकिओये’ चित्रों की तरह विलुप्त हो जाएंगे। तब मैंने उनका संग्रह शुरू किया। इस तरह म्यूजियम बनाने की दिशा में पहल हुई। मेरे पास तब मिथिला म्यूजियम के लिए कोई बजट नहीं था। इसलिए 1982 में मैंने ओकी, तोकामाची के एलीमेंट्री स्कूल में ही, जहां मैं संगीत और आध्यात्म की शिक्षा दे रहा था, म्यूजियम की शुरुआत की। मेरा मानना था कि अगर मैं मिथिला के मूर्धन्य कलाकारों के चित्रों का संग्रह कर पाया, तो एक-न-एक दिन यह म्यूजियम मिथिला चित्रों के लिहाज से दुनिया का एक महत्वपूर्ण म्यूजियम बन जाएगा।
आपने मिथिला म्यूजियम टोकियो में नहीं बनाकर एक ऐसी जगह पर बनाया जहां आबादी नहीं के बराबर थी। इसकी कोई खास वजह?
अपने म्यूजिक ग्रुप की यूरोप यात्रा के बाद जब मैं जापान लौटा, तब टोकियो फोटोकेमिकल स्मॉग से जूझ रहा था। जबकि मेरा मानना है कि स्वस्थ जीवन के लिए पीने का साफ पानी, स्वच्छ हवा और खूबसूरत चांद का होना जरूरी है। स्वस्थ जीवन जीने के लिए ही मैं टोकियो शहर से करीब 180 किमी दूर और 8 किमी ऊंची जगह तोकामाची रहने चला गया। वहां एक खूबसूरत झील है जिसे ओकी कहती है। ओकी के एक पुराने बंद पड़े एलीमेट्री स्कूल में मैंने संगीत, ध्यान और आध्यात्म की शिक्षा शुरू की और 1982 में उसे मिथिला म्यूजियम का रूप दिया। तब तक बहुत कम लोग ही वहां आते थे।
मिथिला म्यूजियम को आपने कलाप्रेमियों से कैसे जोड़ा?
मैं तोकामाची में एक संगीतकार के रूप में चर्चित था। एक ऐसा संगीतकार जिसे प्रकृति, पर्यावरण और संगीत से प्रेम था। वहां के स्थानीय अधिकारी मुझे जानते थे। मैंने उनकी मदद से जापान के अलग-अलग हिस्सों में मिथिला चित्रों की प्रदर्शनी लगाई और लोग धीरे-धीरे मिथिला म्यूजियम को जानने लगे। 1988 मेरे लिए एक महत्वपूर्ण वर्ष था क्योंकि इसी वर्ष फेस्टिवल ऑफ इंडिया जापान में शुरू हुआ और मुझे डेप्युटी एग्जीक्यूटिव मैनेजर बनाया गया। इसके जरिए मुझे मिथिला पेटिंग, भारतीय नृत्य-संगीत आदि को जापान में लोकप्रिय बनाने में मदद मिली। इसके पश्चात् एनएचके ब्रॉडकास्ट ने 45 डॉक्यूमेट्री बनाई जो कलाओं पर थी। उसमें मिथिला म्यूजियम भी था। इन सबने मिथिला म्यूजियम को लोकप्रिय बनाया और लोग उससे जुड़ते चले गये।
मिथिला म्यूजियम में किन-किन कलाकारों की कलाकृतियों का संग्रह है?
सभी का नाम बताना तो मुश्किल है, लेकिन सबसे पहले मैंने उन कलाकारों की कलाकृतियों का संग्रह किया जिन्हें स्टेट या नेशनल आवार्ड मिल चुका था और उन्हें ही मिथिला म्यूजियम में कलाकृतियों को रचने के लिए आमंत्रित भी किया। वहां आने वाली पहली कलाकार गंगा देवी थी। उनके अलावा मैंने सीता देवी, यमुना देवी और जगदंबा देवी, महासुंदरी देवी, कर्पूरी देवी, गोदावरी दत्त, विमला दत्त, बौआ देवी, चंद्रकला देवी, शांति देवी, शिवन पासवान और तंत्र कला के बटोही झा और कृष्णानंद झा समेत अनेक सिद्धहस्त कलाकारों की कलाकृतियों का संग्रह किया है।
मिथिला म्यूजियम में मिथिला चित्रों के अलावा बिहार की दूसरी चित्र परंपराओं और शिल्पों का भी संग्रह है?
बिहार के टेराकोटा शिल्प का संग्रह भी मिथिला म्यूजियम में है। इनके अलावा, गोंड और वर्ली चित्र भी हमारे पास हैं, हांलाकि इनकी परंपरा बिहार से नहीं आती है।
आपने उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान देखा और वहां नवनिर्मिण गैलरी में बिहार की लोक शिल्प परंपराओं से भी साक्षात्कार किया। मिथिला चित्रकला के अलावा बिहार की अन्य कला परंपराओं को भी अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिले, बाजार मिले, इसके लिए कोई सुझाव?
सबसे पहले मैं आपके प्रश्न के पहले हिस्से का जवाब दे दूं। बिहार की लोक-शिल्प परंपराओं के विकास में उपेंद्र महारथी के बाद यह संस्थान काफी कुछ कर रहा है, यह सराहनीय है क्योंकि उपेंद्र महारथी के बाद इस मद में ध्यान देने वाला कोई नहीं था। रही बात वहां प्रदर्शित शिल्प की, तो निश्चित तौर पर, वह थोड़ा अव्यवस्थित दिखता है और उसकी वजह संभवत: प्रदर्शनी स्थल का छोटा होना भी है। इसलिए सबसे पहले तो उसे बड़ा करने की जरूरत है। दूसरी महत्वपूर्ण बात, किसी भी म्यूजियम या कला संस्थान की जिम्मेदारी होती है कि वहां आने वाले कलाप्रेमियों को और समाज को भी, अपनी कला परंपराओं से अवगत कराए और उसके बारे में समाज को शिक्षित करे, चाहे वह किसी भी माध्यम से हो। इसके लिए गूढ़ रिसर्च की आवश्यकता होती है जिस पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है। इसमें मिथिला म्यूजियम उनकी मदद कर सकता है। संस्थान चाहे तो हर वर्ष कुछ शोधार्थियों को मिथिला म्यूजियम भेज सकता है, ताकि वे समझ सकें कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी कला परंपरा को विकसित करने की आवश्यकताएं क्या हैं। कलाकारों को भी इस संदर्भ में जागरूक और शिक्षित करने की जरूरत है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ट्रेंड क्या है। इससे उन्हें अपना बाजार विकसित करने में मदद मिलेगी।
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टोकियो हासेगावा मिथिला म्यूजियम, तोकामाची, जापान के संस्थापक निदेशक हैं। यह इंटरव्यू उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान से साभार लिया गया है।
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Other links
Living Libraries: Tokio Hasegawa, Director, Mithila Museum
Archival Interview Series: Tokio Hasegawa, Director, Mithila Museum, Japan
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Tags: Tokio Hasegawa, Mithila Museum, Tokamachi, Mithila painting