आजादी के बाद पचास के दशक में बिहार के समकालीन चित्रकला में आधुनिकता का प्रवेश और उसके विकास के उत्प्रेरक के रूप में बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव का नाम अग्रगणी है। बटेश्वरनाथ का जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बैखरा ग्राम में 4 फरवरी 1918 को हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा आगरा में हुई और 1942 में उन्होंने लखनऊ कला एवं शिल्प महाविद्यालय से चित्रकला में डिप्लोमा प्राप्त किया। वहीं पढ़ाई के दौरान उन्होंने वाश पेटिंग में महारथ हासिल की और फिर पटना कला एवं शिल्प महाविद्यालय से बतौर कला शिक्षक जुड़ गये।
उस दौर में बिहार के कुछेक कलाकारों ने अध्ययन के सिलसिले में विदेश यात्राएं की। बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव उनमें से एक थे। 1955 में सरकारी छात्रावृति पर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव फ्लोरेंस (इटली) गये और वहां की अकादमी डीबेले आर्टिस्टिको में यूरोप के कला आंदोलनों को करीब से महसूस किया। फ्लोरेंस में अध्ययन के दौरान उन्होंने यूरोपीय कला और वहां के कला संग्रहालयों को करीब से देखा। बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव ने पिकासो और मातीश जैसे कलाकार के साथ काम किया। उनके काम करने के तरीकों को समझा और उन्हें भारतीय कला की जानकारी भी दी। पिकासों ने उन्हें अपने संग्रह का शिवलिंग भी दिखाया।
उनके शिष्य शिष्य शंकर लाल के मुताबिक “जब वे पिकासो से मिले तो पिकासो ने भारतवर्ष के बारे में बहुत प्रशंसा की। पिकासो ने यहां तक उनसे कहा कि आप वहां की मिट्टी लाये हैं क्या? मैं उस मिट्टी को अपने मस्तक पर लगाऊंगा।…आपके भारतवर्ष का शिवलिंग तो कमाल का है। वो भगवान शंकर एवं पार्वती की बहुमूल्य कला का नमूना है। पिकासो ने श्रीमान जी को कहा कि मेरे पास भी एक शिवलिंग है और फिर अन्दर से लाकर उसे दिखाया। पिकासो ने श्रीमान जी से कहा कि आपके भारतवर्ष में बहुमूल्य मूर्तिकला एवं पेंटिंगों की खान है। शिवलिंग के बारे में कहा कि यह रेखाओं का अमूल्य सरलीकरण है।
फ्लोरेंस में अकादमिक शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही उनकी कृति मादरे-डे-फिजिलों को वहां की एक प्रदर्शनी में स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। फ्लोरेंस से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद बटेश्वर पुन: पटना आर्ट स्कूल से जुड़े और वहां पेंटिंग के विभागाध्यक्ष बने। उन्होंने छात्रों को एक नई कला दृष्टि प्रदान की। वे पहले कलाकार थे जिन्होंने छात्रों को छापा कला की लिनोकट तकनीक से परिचय कराया जिसका चलन तब सिर्फ योरोपीय देशों में ही था।
बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव के चित्रों में आम जीवन, कृषक जीवन और ग्राम्य जीवन की पूरी झलक मिलती है जो उनके यूरोपीय अनुभवों के बीच उनका नोस्टाल्जिक होना और संस्कृति से गहरे लगाव को दर्शाता है। उनका चित्र अनाज फटकती औरत, गांव का बांसुरी बजाता किशोर, बच्चे को गोद में लेकर बैठी औरत, मछली बेचती औरत ऐसे ही चित्र हैं। अपने अनुभवों से उन्होंने चित्रों में नये प्रभाव पैदा किये और नयी तककीनों से उनमें प्रयोग किया। यथा इचिंग माद्यम में ‘बनारस के घाट’ बनाये। उन्होंने जलरंग और तैल रंग में अनेक कृतिया रचीं। उनके चित्रों के विषय पौराणिक एवं रूमानी रहे, जैसे अशोक वन में सीता, वट पूजा, आदि। उनके चित्रों में उनके अंतर्राष्ट्रीय अनुभवों की वजह से घनवादी, अभिनववादी, प्रभाववादी और प्रभाववादी कलाकारों के प्रभाव के साथ-साथ बंगाल शैली का भी प्रभाव साफ दिखता है।
वे अपने समय के कवियों एवं साहित्यकारों के बीच भी काफी लोकप्रिय रहे। उन्होंने रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनिपुरी और राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के लिए कई आरेखन और पुस्तक आवरण सृजित किये। साथ ही, महात्मा गांधी, राजेंद्र प्रसाद, मदन मोहन मालवीय और गोपालकृष्ण गोखले की जीवंत शबीहें भी बनायीं। अगर समग्रता में बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव की कला यात्रा पर नजर डाली जाये तब हम पाते हैं कि वे अपने समकालीन कलाकारों में न केवल अग्रणी थे बल्कि उनकी कृतियां, जिस प्रोग्रेसिव कला आंदोलन को भारतीय कला का महत्वपूर्ण आंदोलन समझा जाता है, उसके चित्रों के बरक्स खड़ी नजर आती हैं।
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References
विनय कुमार, बिहार की समकालीन कला, पृ-25, प्रकाशक सांस्कृतिक कार्य निदेशालय, कला संस्कृति एवं युवा विभाग, बिहार सरकार, 2013
बिहार के 100 रत्न, विनोद अनुपम (सं.) पृ-94, प्रकाशक सांस्कृतिक कार्य निदेशालय, कला संस्कृति एवं युवा विभाग, बिहार सरकार, 2013
सुमन सिंह, ब्लॉग: आलेखन, बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव