सिक्की कला की बदौलत आत्मनिर्भर हुईं गांव की महिलाएं: मुन्नी देवी

Sikki craft by Munni Devi, Raiyyam, Jhanjharpur © Folkartopedia library
Sikki craft by Munni Devi, Raiyyam, Jhanjharpur © Folkartopedia library

मुन्नी देवी, सिक्की कलाकार, रैयाम, झंझारपुर, बिहार I राज्य पुरस्कार से सम्मानित शिल्पी

राज्य पुरस्कार से सम्मानित मुन्नी देवी बिहार में सिक्की कला के महत्वपूर्ण कलाकारों में से एक हैं। वह झंझारपुर के रैयाम गांव में रहती है और सिक्की कला के जरिए वहां की महिलाओं को आर्थिक रूप से काफी हद तक आत्मनिर्भर बनाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। आप उनके समक्ष सिक्की कला से जुड़े परंपरागत डिजाइन ले जाइये या आधुनिक डिजाइन ले जाइये, वह उन्हें कलात्मक कलाकृतियों में साकार कर देंगी।

मुन्नी देवी से हमने उनके गांव में उनके जीवन, उनकी कला और स्थानीय परिवेश पर विस्तार से बातचीत की। उस बातचीत में कई ऐसी बातें भी निकलीं, जो हमें न केवल चौंकाती है, बल्कि उनके गांव रैयाम को मिथिलांचल के अन्य कला ग्रामों से अलग करती है। यहां प्रस्तुत है उसी बातचीत के कुछ अंश:

फोकार्टोपीडिया: मुन्नी जी, नमस्कार। सबसे पहले आप आपने बारे में बताइये।

मुन्नी देवी: मेरा जन्म 1968 में नेपाल के धनुषा जिले के एक गांव सहोरबा में हुआ। मेरे पिताजी का नाम जोगिंदर ठाकुर और मां का बासमती देवी है। मेरी पांच बहनें हैं। उन सबकी शादी हो चुकी है।

आपकी शिक्षा…

मैं पांचवी कक्षा तक पढ़ी हूं। ऐसी बात नहीं है कि हमारे घर में पढ़ने की मनाही थी। मुझे ही पढ़ने में मन नहीं लगता था।

अच्छा। आपके गांव में लड़कियों के लिए माहौल कैसा था?

बहुत अच्छा था। लड़कियों पर किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं थी। लड़कियां खेलती-कूदती, पढ़ती, बाहर जातीं, हर बात की इजाजत थी। हालांकि अब स्थिति थोड़ी बदली है।

घर में कोई तकलीफ नहीं थी? मेरा मतलब, घर की माली हालत अच्छी थी?

जी, हमलोगों को पैसे-कौड़ी की कोई दिक्कत नहीं थी।  

सिक्की कला की तरफ आपका रूझान कब हुआ?

शादी के बाद। मेरी शादी 16 साल की उम्र में रैयाम में हुई। यहां, ससुराल में माली हालत अच्छी नहीं थी। मेरे पति की किराने की दुकान थी जो कभी चलती, कभी बंद हो जाती थी। इसी बीच बच्चे भी हुए, तो मुश्किलें और बढ़ती गयीं। घर में सास मौनी-डलिया बनाती थीं। मैंने भी यह हुनर अपनी मां से सीखा था। सास की इजाजत से मैंने भी सिक्की का सामान बनाना और बेचना शुरू किया।

गांव में सिक्की के सामान का बाजार था?

तब बहुत ज्यादा नहीं था। लेकिन, गांव की महिलाएं हमारे घर से अपनी पसंद का सामान ले जाती थीं, खासकर शादी के सीजन में। डलिया, मौनी, सूप और शादी-ब्याह में प्रयोग होने वाले अन्य सामान। मिथिलांचल में शादी-ब्याह में सिक्की का सामान देने की परंपरा है, शादी की रस्म में भी उनका प्रयोग होता है। मेरा बनाया सामान उम्मा होता था, इसलिए मेरा काम तेजी से बढ़ा। अब तो इस गांव में बहुत सारे अच्छे कलाकार हैं। लोग फोन पर ऑर्डर करते हैं और हमलोग सामान बनाकर उन्हें कूरियर कर देते हैं। अब तो पूरा गांव ही सिक्की का सामान बनाता है।

और क्या-क्या बनाती थीं?

हमें बाजार से जो भी ऑर्डर मिलता, हम वो सब बनाते। जैसे – खिलौने, ज्वेलरी बॉक्स, कलश, गमले, टेबल मैट। देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी। लोगों ने उन्हें बहुत पसंद किया।

आपने इसके लिए कोई ट्रेनिंग भी ली?

सिक्की का सामान बनाना तो मैं जानती ही थी, अच्छा भी बनाती थी। उसमें और निखार आया जब 1982 में झंझारपुर के अनुमंडलाधिकारी व्याज जी मिश्र ने रैयाम गांव में ट्रेनिंग कम प्रोडक्शन सेंटर बनाया। फिर सिक्की कला को बढ़ावा देने के लिए दूसरे संस्थान भी खुले। 2008 में दिल्ली से राजीव सेठी भी आए, उन्होंने भी एक सेंटर बनाया जिससे गांव की कई महिलाएं जुड़ीं। वो हमें ऑर्डर देते और हम उन्हें सामान बनाकर देते। उस सेंटर पर जितना भी काम होता, उनके बिक्री मूल्य का 30 फीसदी संस्था रख लेती है। बाकी सभी कलाकारों में बांट दिया जाता। इससे कलाकारों को बहुत प्रोत्साहन मिला। वो डिजाइनर भी भेजते थे जिनसे सीखने में मदद मिलती थी। उपेंद्र महाराथी शिल्प अनुसंधान संस्थान की तरफ से भी हमें प्रशिक्षण दिया जाता है।

एक सवाल जो हम अक्सर महिला कलाकारों से पूछते हैं कि आपको जो आमदनी होती है, क्या उसे आप अपनी इच्छा से खर्च कर पाती हैं?

जी। चाहे बच्चों की जरूरतों को पूरा करना हो, अपने ऊपर खर्च करना हो, किसी को टिकुली-बिन्दी, साड़ी-ब्लाउज या अपनी पसंद का कोई अन्य सामान लेना हो, हम अपने परिवार से पैसा नहीं मांगते। यहां सबकी इतनी आमदनी हो जाती है कि अपनी जरूरत का खयाल रख सकें।

एक सामान्य-सा सवाल कि सिक्की का सामान बनाया या कैसे तैयार किया जाता है?

सिक्की सावा घास से तैयार किया जाता है। यह घास जलजमाव वाले इलाके में अपने आप उगती है। जब जाड़े में इनमें लाल फूल आ जाते हैं, जब फूल वाले हिस्से को काट लिया जाता है और उसे चीरकर सुखा लिया जाता है। फिर उसे गर्म पानी में उबालकर सुखाया जाता है। इसी दौरान उसे अलग-अलग रंग में रंगकर फिर उबाला जाता है और रंग को पक्का किया जाता है। फिर डिजाइन के मुताबिक उससे कलाकृतियां बनती हैं। सारा काम टकुआ से होता है। यह लोहे से बना एक नुकीला औजार है। कैंची या कटर का भी इस्तेमाल हमलोग करते हैं।  

आप परंपरागत सामान से हटकर भी कुछ बनायी हैं?

हां। उसे से मुझे पहचान भी मिली। मैंने 2013 में 10 फीट का आम का पेड़ भी बनाया था। कुछ साल पहले दिल्ली में 26 जनवरी को सिक्की से चार फीट का हाथी बनाया था, जिसे लोगों ने काफी पसंद किया। मेरा एक काम बिहार म्यूजियम में भी है, मड़वा। शादी ब्याह में बनने वाले मड़वा को मैंने सिक्की से बनाया है।  

दिल्ली के अलावा अब तक कहां-कहां जाना हुआ है?

दिल्ली, गोवा, हैदराबाद और जयपुर।

आप सिक्की कला को आगे बढ़ाने के लिए और क्या कर रही हैं?

मैं अपने गांव में महिलाओं को निशुल्क ट्रेनिंग देती हूं। अब तक 70-80 युवतियों को इसकी ट्रेनिंग दी है जिससे उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद मिल रही है।

मुन्नी जी, हमसे बात करने के लिए धन्यवाद।

आपको भी धन्यवाद।

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