राकेश कुमार दिवाकर
चित्रकार एवं मूर्तिकार, आरा, बिहार । लोककलाओं पर पढ़ने-लिखने में विशेष रुचि ।
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संदर्भ: संजीव सिन्हा की रचनाशीलता
भोजपुरी क्षेत्र की लोक कला कृषि संस्कृति की उपज है। विभिन्न राजनीतिक आर्थिक बदलाव के कारण कृषि पर संकट के बादल गहराते गए। लगातार बढ़ती जनसंख्या की वजह से जोत का आकार भी छोटा होता गया। परिणामतः इस क्षेत्र की लोक कला पर भी संकट के बादल छाए। संकटग्रस्त खेती किसानी से लोक का मोह भंग होता गया जिसके कारण लोग अन्य पेशा अपनाने लगे। लोक जीवन की स्थितियां बदल गई, रहन-सहन बदल गया, तो कला-संस्कृति का बदलना नियत हो गया। लेकिन, हुआ यह कि जिस अनुपात में जीवन स्थितियां बदली, उस अनुपात में कला-संस्कृति का जो हिस्सा बदल सकता था वह बदला और जो नहीं बदल सका वह छूटता गया। मतलब यह कि कुछ चीजें बदल कर साथ रह गई, कुछ चीजें छूट गई और कुछ चीजें जुड़ गई।
इस परिप्रेक्ष्य में भोजपुरी लोक चित्रकला की बात करें, तो परंपरागत रूप से इसमें प्रमुखतः कोहबर और पिडि़या का नाम आता है। कोहबर शादी-विवाह के समय बनाने की परंपरा रही है तो पीड़िया भाई के सलामती के लिए किए जाने वाले एक पर्व के अवसर पर बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त दीपावली के अवसर पर घर की सजावट के लिए घर की दीवाल पर, जमीन पर शादी-विवाह, पर्व-त्योहार व पूजा-पाठ के अवसर पर चित्र बनाने की परंपरा रही है। विशेष अवसर के अतिरिक्त खेती से अवकाश के समय में महिलाएं डलिया, दउरा, दउरी, सूप, चटाई, घड़े आदि उपयोग की सामग्री पर तरह-तरह की चित्रकारी करती रही हैं।
कालांतर में इसकी परंपरा धीरे-धीरे कम होती गयी। लोक कलाओं के संरक्षण व संवर्धन के लिए नये सिरे से प्रयास शुरू हुआI सत्ता-संस्कृति द्वारा पोषित दरबारी (शास्त्रीय) कला राज-तंत्र के पतन के साथ ही मृत हो चुकी थी, सो संरक्षण के नाम पर सत्ता-संस्कृति ने सतत् चलने वाली लोक कला को दरबारी बनाने की कोशिश शुरू कीI उधर नागर संस्कृति से उपजी आधुनिक कला अपने आप में समस्या बनती गई। तब बाजारवादी संस्कृति ने भी सीधी-सरल लोक कला पर अपना जाल फैलाया। चाहे सत्ता-संस्कृति हो या बाजारवादी संस्कृति, दोनों की कोशिश लोक कला को परंपरा, और रूढ़िवाद की बेडि़यों में जकड़ कर एक दरबारी, रूढ़िवादी व सजावटी कला बना देने की रही है।
बहरहाल, इस क्रम में कुछ पेशेवर कलाकारों ने इसे एक रचनात्मक गति देने की कोशिश की है। चित्रकार संजीव सिन्हा ने भोजपुरी लोक चित्रकला को लोक जीवन से जोड़ने का प्रयास किया है, जिसे देखना नए अनुभव जैसा है। उन्होंने अपने चित्रण में कोहबर और पीडि़या के साथ होली, दशहरा, दीवाली, छठ, सकरात तक को शामिल किया है। उनके चित्रों में रोपनी-कटनी-पिटनी है और मेहनत-मजदूरी भी है। लोक उत्सव है तो लोक संघर्ष भी है। लोक कला व शास्त्रीय कला में यही मूल फर्क है।
शास्त्रीय कला में राज दरबार के उत्सव, आस्था, ठाट-बाट, यशोगान दर्ज होते थे तो लोक कला में लोक जीवन के उत्सव, आस्था, उपासना, मान्यता, सुख-दुख और संघर्ष दर्ज होते थे। शायद इसी वजह से शास्त्रीय कलाओं का विकास सत्ता परिवर्तन के साथ थम जाता था या वे खत्म हो जाती थीं जबकि लोक कलाएं जीवन स्थितियों के साथ बदलती हुई अपनी निरंतरता बनाने रखने में सफल रही हैं। लोक जीवन के सुख-दुख के साथ गहराई से जुडे़ होने के कारण ही उसमें चमक-दमक नहीं होने के बावजूद भी, एक उद्दाम जीवंतता बरकरार रहती है। संजीव सिन्हा ने चित्रों में वह जीवतंता स्पष्ट दिखती है। लोक जीवन से जुड़ाव की वजह से यह जीवंतता स्वत: उनके चित्रों में आ जाती है।
कोरोना काल में लोक जीवन पर मुसिबतों का पहाड़ टूट पडा़ है। यातायात के विकास के चरमोत्कर्ष के बावजूद लाखों लोग राजपथ पर पैदल घिसट रहे हैं। भूखे लाचार मजबूरों, लात-खाते-पिटते मजदूरों के चित्र किसे नहीं झकझोर देंगे। यह दारुण परिस्थिति संजीव सिन्हा के लोक चित्रण में दर्ज हुई है। संजीव अपने चित्रण में कोरोना से बचाने वाले स्वास्थ्यकर्मियों, पुलिस और सामाजिक कार्यकर्ताओं को सम्मान देते हैं, कोरोना से बचाव के उपाय भी बताते हैं। कोरोना व कोरोना काल में उपजी आर्थिक परिस्थितियों से जुझते हुए लोक जीवन का जीवंत चित्रण संजीव सिन्हा के चित्रों में मिलता है। चूंकि लोक कलाकार पेशेवर नहीं होते, उनके चित्रों की आकृतियों की बनावट में सहजता, सरलता व अनगढ़ता रहती है। संजीव सिन्हा के चित्रण में उसकी उपस्थिति स्वाभाविक रूप से आप पाएंगे।
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