देश के जाने-माने छापा कलाकार और कला गुरु श्याम शर्मा किसी परिचय के मोहताज नहीं है। बिहार के वरिष्ठ कलाकारों में से एक, सबसे ज्यादा सक्रिय कलाकार के तौर पर उन्हें जाना जाता है। हाल ही में उन्हें पद्म पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। श्याम शर्मा बिहार के कला जगत के लिए अभिभावक की तरह रहे हैं और बिहार की आधुनिक कला यात्रा के दशकों से साक्षी हैं, उसे बेहद करीब से देखा है। इसलिए वो इस बात को शिद्दत से महसूस करते हैं कि जिस जगह, राज्य से निकलकर एक कलाकार राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय कला की क्षितिज पर छा जाता है या अनेक कलाकार अपनी सशक्त पहचान बनाने में कामयाब होते हैं, वही राज्य राष्ट्रीय कलाधारा के आधुनिक बदवालों को कैसे खारिज भी कर देता है।
बिहार में कला के आधुनिक परिदृश्य और माहौल पर उन्होंने सुनील कुमार के साथ बातचीत में बेबाकी से अपनी राय रखी है। यहां प्रस्तुत है उसी बातचीत का एक अंश:-
सुनील कुमार: सर, नमस्कार। सबसे पहले मैं आपको धन्यवाद देता हूं कि आपने बातचीत के लिए समय निकाला और उसमें भी बिहार में समकालीन कला जैसे विषय पर बात करने के लिए। अमूमन इस विषय पर कोई बातचीत नहीं करना चाहता है, खासतौर पर जब उस बात को सार्वजनिक की जानी हो। शुरुआत इसी से करते हैं कि बिहार में समकालीन कला को आप किस तरह से देखते हैं?
श्याम शर्मा: आपको भी धन्यवाद। देखिये, कला और साहित्य दोनों का अंत:संबंध है। जब हम चाक्षुष कला और उसमें भी समकालीन कला की बात करते हैं तब हमें दोनों के बीच का एक मूलभूत अंतर समझना होगा। साहित्य अक्सर अपने अतीत पर केंद्रित होता है जबकि चाक्षुष कला अपने भविष्य पर। जब हम बिहार की समकालीन कला की बात करते हैं, तब उसके लिए अनिवार्य शर्त यह है कि उसमें अपने समय से आगे की सोच निहीत हो, वहां पुरानी परंपराओं के ऊपर नये सृजन हों। ऐसे में यह विचारणीय प्रश्न है कि बिहार की समकालीन कला में कितना समय के साथ और कितना समय से आगे पर चिंतन कितना है। यह प्रश्न मेरे मन में उठता है कि क्या हम समय के साथ हैं या कितने लोग समय से आगे हैं?
आप समय के आगे की बात कर रहे हैं, तो क्या बिहार के कलाकार समकालीन कला की इन जैसी अनिवार्य शर्तों पर खरे नहीं उतर रहे हैं, जिसकी बात आप कर रहे हैं?
बिहार के कलाकारों में समकालीन कला के तत्व हैं, लेकिन समकालीन कला कभी स्थिर नहीं होती है। वह बहती हुई धारा समान है। यानी, बिहार में कलाकर्म में जुटे कलाकार समकालीन कला की खुशबू के साथ तो काम कर रहे हैं लेकिन उनकी खुशबू समय के साथ है या नहीं, यह एक प्रश्न है। कला तो चिंतन है, इसलिए बात कलाकारों द्वारा रचित आकृतियों के स्तर पर नहीं होनी चाहिए, बात चिंतन के स्तर पर बात होनी चाहिए। संभव है कि मेरी कृतियों के कई विषय हों, उनमें कई आकृतियां हों, पर उनका चिंतन कहां है? क्या है? क्या हम समय के साथ अपनी चिंतन धारा को प्रवाहित कर पाए हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम 1940 या 50 के दशक की समकालीन कला को ही कला मानकर बैठ गये हैं? प्रश्न यह भी है कि कला समय के साथ बिहार में प्रवाहित हो भी रही है या नहीं। बहुत सारे कलाकार बिहार में कला कर्म कर रहे हैं, उनमें मैं भी शामिल हूं। हो सकता है कि मेरी कला समय के साथ हो या यह भी संभव है कि मेरी कला समय के साथ नहीं हो।
क्या आप बिहार के उन समकालीन कलाकारों की चर्चा करना चाहेंगे जिनकी कला आपकी नजर में समय के साथ हैं या जिनका कला चिंतन समय से आगे दिखता है।
इस प्रश्न का उत्तर देना बड़ा ही जोखिम भरा काम है क्योंकि इसका उत्तर विरोधाभास पैदा करेगा। इस उम्र में मैं विरोधाभास से बचता हूं। लेकिन बिना नाम लिये मैं यह कह सकता हूं कि बिहार में ऐसे गिने चुने ही कलाकार हैं जिनकी कला समकालीन कला की शर्तों पर खरी उतरती है। उनकी कृतियों को देखकर लगता है कि वो समय से आगे भी हैं। इसके साथ साथ एक कटु सत्य यह भी है कि बिहार के ऐसे ज्यादातर कलाकार अब बिहार में नहीं रहते, अन्य शहरों में रहते हैं। वे आज स्थापित कलाकार के तौर पर जाने जाते हैं। एक सच्चाई यह भी है कि बिहार के कलाकारों ने उन्हें अपना आदर्श मान लिया है और उन्हें धुरी मानते हुए उनके ईर्द-गिर्द घूमकर विश्व भ्रमण का भ्रम पाल रहे हैं। परंतु, जिन कलाकारों ने वह धुरी छोड़ी है, आज वो अच्छा काम कर रहे हैं। मुझे इस बात को कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि बिहार के ज्यादातर कलाकारों की कला पर दूसरे सफल कलाकारों की कला का प्रभाव देखा जा सकता है। जिन्होंने देश-विदेश के संग्रहालयों को देखा है, कला-संग्रहों को देखा है, वह जान जाते हैं कि अमुक कलाकृति में किस कलाकृति का प्रभाव है।
आप बार-बार कुछ कलाकारों की बात कर रहे हैं और उनमें से ज्यादातर आज बाहर हैं। तो क्या इसका अर्थ यह निकाला जाये कि बिहार समकालीन कला की दृष्टि से काफी पीछे छूट गया है?
इसमें कोई संदेह नहीं है। चिंतन और रचनाशीलता दोनों ही स्तर पर हम, बिहार के कलाकार आज भी राष्ट्रीय कला धारा से जुड़ने के प्रयास में हैं। बिहार राष्ट्रीय कला धारा से काफी पीछे दिखता है।
इसकी वजह क्या रही?
समकालीन कला में बिहार के पिछड़ने के कई कारण हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है कला-संवादों का बंद हो जाना। कला को लेकर देश-दुनिया में क्या प्रयोग हो रहे हैं और क्या उन प्रयोगों से हम कुछ सीख पा रहे हैं? इस पर परिचर्चा बंद हो गयी। कभी कला महाविद्यालय में संवाद हुआ करते थे, अब नहीं होते। कलाकारों में कलाकृतियों से साक्षात्कार करने की प्रवृति खत्म हो गयी। एक समय में कलाकार या छात्र समूह बनाकर दिल्ली, मुंबई या अन्य शहरों में अच्छी कला प्रदर्शनियां देखने जाते थे। जहां उन्हें लगता था, वहां वो अपनी भागीदारी भी सुनिश्चित करते थे। इसके लिए शिक्षक भी उन्हें प्रोत्साहित करते थे। वह परंपरा बंद हो गयी है। अब कलाकार इंटरनेट के जरिए कला की दुनिया को जानने-समझने लगे है। इसलिए उसका प्रभाव उनकी कलाकृतियों में दिखने लगा है। यह बिहार के कलाकारों का सबसे बड़ा दुर्गुण है। इसका परिणाम यह हुआ कि कलाकारों ने यह मान लिया कि वे बहुत कला-कर्म कर रहे हैं। कलाकर्म करना एक बात है, लेकिन जब आपके कला-कर्म पर, आपकी कला-धारा पर चर्चा नहीं होती, तब आपकी कला का कोई महत्व नहीं रह जाता है।
लेकिन बिहार के कलाकार राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कला प्रदर्शनियों में हिस्सा ले रहे हैं।
आपने ठीक कहा, लेकिन कौन हैं वे? बिहार में रहकर काम करने वाले कलाकार या अन्य राज्यों में रहने वाले बिहार के कलाकार। जरा सोचिये कि बिहार में रहकर काम करने वाले कितने कलाकार राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कला प्रदर्शनियों में हिस्सा ले रहे हैं? उन्हें कितने राष्ट्रीय या अखिल भारतीय स्तर के पुरस्कार मिले है? आप आज की संख्या देख लें और दस वर्ष पूर्व की संख्या देख लें, आपके समक्ष बहुत कुछ साफ हो जाएगा। बिहार के कलाकारों को राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल रहे हैं, लेकिन उन कलाकारों को, जो दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में कला-कर्म कर रहे हैं। इसकी चर्चा जब आप बिहार के कलाकारों से करेंगे तब उनका जवाब होगा कि वो तो नियमित काम कर ही रहे हैं। पर क्या आप अपनी कृतियों की प्रदर्शनी लगाकर खुद को स्थापित करते हैं, बिहार को स्थापित करते हैं? बिहार से एक या दो कलाकारों की कृतियां आईफेक्स या किसी प्रदर्शनी में लग गयी तो क्या यह पर्याप्त है? क्या यह इतनी बड़ी भागेदारी है? जब हमें कला प्रदर्शनियों में स्थान नहीं मिलता, तब हम बहुत ही आसानी से एक जुमला बोल देते हैं कि अरे वहां तो धांधली होती है।
बिहार में आधुनिक कला और समकालीन कला की शुरुआत आप कहां से मानते हैं?
बिहार की कला में समकालीनता के तत्व सबसे पहले बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में दिखते हैं। इसी समय पटना कलम में नये विषय शामिल हुए, चित्रण हेतु नये माध्यम अपनाए गये और चित्रों में नये प्रयोग भी हुए। इसी समय अभ्रक का प्रयोग हुआ। यह बिहार में समकालीन कला की तरफ पहला कदम था। जहां तक आधुनिक कला का सवाल है, इसके तत्व सबसे पहले 70 के दशक में दिखते हैं, जब बीएन श्रीवास्तव बाहर से शिक्षा लेकर बिहार आते हैं और बीरेश्वर भट्टाचार्य इस्तांनबुल से लौटते हैं। उनके नेतृत्व में ही बिहार से कलाकारों का समूह बिनाले, ट्रिनाले देखने के लिए दिल्ली पहुंचा और प्रदर्शनियों को देखने का चलन बढ़ा। हम अपने चित्रों की प्रदर्शनी काठमांडू में भी करने लगे। लगभग इसी समय बिहार में स्टेट कला अकादमी बनी, जिसमें संगीत, नाटक और चित्रकला तीनों को शामिल किया गया। पद्मश्री गजेंद्र नारायण सिंह जब सचिव बने, तब स्टेट अकादमी बिहार के कलाकारों की कलाकृतियों को राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भेजने लगी। बीरेश्वर भट्टाचार्य ने पचास-पचास कलाकृतियों को एक साथ राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भेजा। उनकी कोशिश होती थी कि कैसे अधिक से अधिक बिहार के युवा कलाकारों को राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में जगह मिले। कालांतर में यह परंपरा बंद हो गयी। अक्सर कहा जाता है कि बिहार में मध्यप्रदेश जैसा कला का माहौल क्यों नहीं है। उत्तर स्पष्ट है। क्या हम दिल पर हाथ रखकर यह कह सकते है कि जिस तत्परता के साथ मध्यप्रदेश के कलाकार या ओडिशा के कलाकार कला-कर्म कर रहे हैं, उतनी ही तत्परता से हम कर रहे हैं।
बिहार में समकालीन कला के विकास क्रम में कलाकारों का भी कोई क्रम बनता है?
अगर बिहार में समकालीन कला धारा की बात करें तो मैं नंदलाल बोस को भी बिहार का ही मानता हूं। उनके बाद दामोदर प्रसाद अंबष्ठ और दिनेश बक्शी का नाम आता है। बिहार में कला के लिहाज से एक अच्छे दौर की शुरुआत तब हुई जब कुछ कलाकार दूसरे राज्यों से शिक्षा लेकर बिहार आते हैं और यहां कला सृजन शुरू करते हैं। लखनऊ में बंगाल स्कूल का दबदबा था। वहां से बीएन श्रीवास्तव पटना आते हैं और अपने साथ वॉश तकनीक लेकर। दामोदर प्रसाद अंबष्ठ मद्रास स्कूल से और श्यामला नंद कलकत्ता आर्ट कॉलेज से नया फ्लेवर लेकर आते हैं। दिनेश बक्शी सर जेजे आर्ट स्कूल से रियलिस्टिक टच लेकर आते हैं। बाद में जब इन लोगों ने देश-विदेश का दौरा किया और जब दोबारा बिहार लौटे, तब एक बार फिर माहौल बदला। मैंने और बीरेश्वर भट्टाचार्य ने भी थोड़ी-थोड़ी आहूति दी। जब हम पहली बार बिहार से बाहर निकले और विद्यार्थियों के साथ बिनाले-ट्रिनाले देखा तब अधिकतर विद्यार्थियों की भी कला-दृष्टि बदली। लगभग इसी समय से आधुनिक कला का फ्लेवर भी बिहार में आया। तत्पश्चात् 1987 में शिल्प कला परिषद ने करीब बीस-पच्चीस विद्यार्थियों के कलाकृतियों की प्रदर्शनी दिल्ली के रवींद्र भवन में लगाई। इस शो के बाद तो कुछ युवा कलाकार दिल्ली के ही होकर रह गए। बिहार के युवा कलाकारों के पलायन का दौर भी लगभग इसी समय शुरू होता है।
बिहार के कला के विद्यार्थियों और कलाकारों के पलायन की मुख्य वजह क्या रही?
कुछ रोजी रोटी की तलाश में तो कुछ कलाकार बनने के लिए। वैसे आज किसी भी राष्ट्रीय स्तर के कला-स्कूल को देख लीजिए या कला महाविद्यालयों को देखिए। वह अपने शिक्षकों के नाम से जाना जाता है। केजी सुब्रह्मण्यम, शंखो दा, जयराम भाई, ज्योति भट्ट का नाम बड़ौदा से जुड़ा है। अजीत चक्रवर्ती, सोमनाथ दा, सुहास राय का नाम शांतिनेकतन से जुड़ा है। ये नाम छात्रों को कला पढ़ने के लिए आकर्षित करते हैं। खैरागढ़ में नागदास जैसे शिक्षकों के कारण छात्र जंगल में भी शिक्षा के लिए जाते हैं। कहने का आशय यह कि कला शिक्षकों पर कला का माहौल बनाने का दारोमदार होता है और कला शिक्षक माहौल तभी बना सकते हैं, जब वे खुद सक्रिय हों। पटना आर्ट कॉलेज से मेरे रिटायरमेंट के बाद वहां किसी भी स्थायी शिक्षक की नियुक्ति नहीं हुई। अभी दो तीन वर्ष पूर्व वहां नए शिक्षक आए हैं। उनसे छात्रों को बहुत आशाएं हैं। आज यह सिर्फ कहने से काम नहीं चलेगा कि मैंने बहुत काम किया है। छात्र देखना चाहते हैं कि आपने क्या किया है।
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Other links:
कला नितांत ही व्यक्तिगत साधना है: पद्मश्री श्याम शर्मा
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