पेगासस, एक मिथकीय जीव है, जिसे पश्चिम में शानदार उड़ने वाले घोड़े के रूप में दर्शाया जाता है। पश्चिम का समाज पेगासस को देव-पुत्र मानता है। सलहेस का घोड़ा भी चमत्कारी है, पेगासस का भारतीय संस्करण, जिस पर सवार होकर लाला पंडित, दरभंगा, बिहार की एक कुम्हारटोली से सीधे समंदर लांघकर निगाता, जापान के मिथिला म्यूजियम तक का सफर तय करते हैं।
बिहार में मृण्मूर्ति शिल्प के चर्चित कलाकारों में एक नाम लाला पंडित है। दरभंगा के मौलागंज की कुम्हारटोली में 8 अगस्त 1956 को अनूप पंडित और सोमनी देवी के घर लाला पंडित का जन्म हुआ। वह मोहल्ला अपने मृदभांडों और मृण्मूर्तियों की गुणवत्ता की वजह से आज भी जाना जाता है। एक कुम्हार परिवार में जन्में लाला पंडित का झुकाव परिवेशवश स्वाभाविक रूप से मिट्टी के खिलौनों, बर्तनों और मूर्तियों की तरफ हुआ। धीरे-धीरे उन्होंने मिट्टी माड़ना, लोंदा बनाना सीखा और जल्दी ही चाक चलाना भी सीख लिया। परिवार में पर्व-त्योहारों के मौके पर अतिरिक्त आय हेतु मिट्टी के छोटे-छोटे खिलौने, हाथी, घोड़ा, पक्षी, एवं देवी-देवताओं की मूर्तियां भी बनती थीं। लाला पंडित यह कला सीखने लगे। मिट्टी की कलाकृतियों में उनकी रुचि को देखते हुए अनूप ने उन्हें एक छोटा चाक खरीद दिया और यहीं से पारंपरिक कला में लाला पंडित का प्रशिक्षण शुरू हुआ।
अनूप मौलागंज के चर्चित कुम्हार थे और सम्मानित मूर्ति शिल्पी भी। उन्हीं की देख-रेख में लाला पंडित महज 13-14 वर्ष की आयु में मृण्मूर्तियों के लिए बांस फाड़ना, फराठी, पुआल बांधना, उस पर मिट्टी चढ़ाना, मिट्टी की सतह पर चिकनाई लाना और उस पर रंग-रोगन की कला सीखने लगे और जल्दी ही उसमें सिद्धहस्त हो गये। फिर उनके घर कभी काली-दुर्गा साकार होती, तो कभी महादेव, गौरी-गणेश और कभी कार्तिकेय-सरस्वती। इसी बीच मारवाड़ी हाई स्कूल, दरभंगा से लाला पंडित दसवीं की परीक्षा पास करते हैं। लाला पंडित आईटीआई से मोल्डिंग का प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहते थे। लेकिन, घर की माली हालत अच्छी नहीं थी, लिहाजा पिता की प्रेरणा से उन्होंने स्वतंत्र रूप से मृण्मूर्तियों का सृजन शुरू कर किया। वे कलात्मक मृण्मूर्तियां बनाते थे, खासतौर पर घोड़ा। मिथिलांचल क्षेत्र में घोड़े की कच्ची और पकी दोनों ही तरह की मृण्मूर्तियों पूरे वर्ष की मांग थी। शादी-ब्याह, पूजा-पाठ, मनौती आदि में प्रयोग आदि कारणों से।
इस तरह मिट्टी के कलात्मक घोड़े लाला पंडित की पहचान बन गये। 1975 में उन्हें चंडीगढ़ और 1977 में मुंबई में मिट्टी का घोड़ा बनाने का मौका मिला जिसकी काफी प्रशंसा हुई और अच्छे मूल्य भी मिले। इसके बाद लाला पंडित देश के अलग-अलग शिल्प-मेले-प्रदर्शनियों में और कला संग्रहालयों में अपनी कला प्रदर्शित करने लगे। इसी क्रम में उनका दिल्ली-प्रवास भी हुआ जहां उन्होंने बड़े-बड़े घोड़ों बनाए। दिल्ली में ही लाला को पंडित डॉ. एम.के. पाल का सानिध्य प्राप्त हुआ, जिनसे उन्होंने बेहतर ढंग से आंवा लगाने की तकनीक सीखी और उनकी कलाकृतियां और निखरकर सामने आयीं।
लाला पंडित की कला यात्रा में एक बड़ा पड़ाव तब आया जब जापान के प्रो. मोरे ने उन्हें मृण्मूर्तियों का दो सेट बनाने को कहा जिसमें दो घोड़ा, एक बाघ, दो सिपाही, एक हाथी, युवती आदि शामिल थे। उन्होंने अपना काम पूरा किया और 1989 में वे सभी मूर्तियां जापान चली गयी। उन मृण्मूर्तियों की वजह से लाला पंडित की पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनी। 1993 में मिथिला म्यूजियम, जापान के संस्थापक-निदेशक टोकिये हासेगावा ने उन्हें अपने संग्रहालय में अपनी कला प्रदर्शित करने का न्योता दिया। लाला पंडित ने करीब चार महीने तक मिथिला म्यूजियम में अपनी कला प्रदर्शित की और पारंपरिक शैली व तकनीक से संग्रहालय के लिए मिट्टी के बड़े-बड़े घोड़े बनाए। उसके बाद वे नौ बार जापान गये। वहां की तमाम कला-दीर्घाओं में अपनी कला का प्रदर्शन किया। स्कूली छात्र-छात्राओं को भी मृण्मूर्तियां बनाने का प्रशिक्षण दिया। 2017 में उन्हें बिहार सरकार की तरफ से मारिशस में भी अपनी कला प्रदर्शित करने का मौका मिला।
घोड़े के अलावा लाला पंडित ने जिन मृण्मूर्तियों को गढ़ा, उनमें कछुए पर गिरिजाघर और जगन्नाथ मंदिर भी शामिल हैं जो कलात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। उनकी मृण्मूतियां ललित कला अकादमी (मद्रास), ललित कला अकादमी (पटना), इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय (भोपाल), उत्तर-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र (इलाहाबाद), कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय (दरभंगा), शांतिनिकेतन (कोलकाता), बालभवन (दिल्ली), उदयपुर आदि जगहों पर संग्रहित हैं। मृण्मूर्तियों के क्षेत्र में लाला पंडित के योगदान के लिए उन्हें 1986 में राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इसके अलावा वे ललित कला अकादमी, मद्रास के साथ-साथ देश के अनेक कला संस्थानों द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत किये जा चुके हैं।
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