जीवन के यथार्थवादी चित्रण ने दिलायी पहचान: दुलारी देवी

Dulari Devi, Mithila artist, Ranti, Madhubani © Folkartopedia library
Dulari Devi, Mithila artist, Ranti, Madhubani © Folkartopedia library

जिंदगी को बिखरा देने वाले थपेड़ों को पार करके मिथिला पेंटिंग में मुकाम हासिल करने वाली दुलारी देवी संघर्ष की मिसाल हैंI उन्होंने साबित किया है कि अगर लगन और कुछ कर गुजरने की इच्छा शक्ति हो तो जिंदगी की हर मुश्किल को लांघ कर अपने सपनों का मुकाम हासिल किया जा सकता है। दुलारी देवी का जन्म 27 दिसंबर, 1967 को बिहार के मधुबनी जिले के रांटी गांव में हुआ। शुरुआती दौर में उनकी पारिवारिक स्थिति और निजी जिंदगी परेशानियों में घिरी रही। बाद में उन्होंने तब की चर्चित कलाकार महासुंदरी देवी के घर चित्र बनाना सीखा।

दुलारी देवी मिथिला पेंटिंग की कचनी शैली (रेखा चित्र) में पेंटिंग करती हैंI उन्होंने पौराणिक या मिथिकीय आख्यानों या राजा सहलेस की कहानियों की जगह मछुआरों और किसानों के जीवन को अपनी पेंटिंग में उताराI अपनी पेंटिंग में ग्रामीण परिवेश और उसकी समसामयिक चुनौतियों को जगह देने का अलहदा प्रयोग शुरू किया, जिसने उन्हें मिथिला पेंटिंग में सबसे अलग पहचान दिलाईI

दुलारी देवी को 2012-13 में बिहार सरकार का प्रतिष्ठित कला पुरस्कार मिला। राज्य उससे पहले I यथार्थवादी चित्रकारी के लिए पहचानी जाने वाली दुलारी देवी को फ्रांस की जानी-मानी कला लेखिका और शोधार्थी मार्टिन-ली-काज ने अपनी पुस्तक ‘मिथिला’ में जगह दी हैI इसके अलावा कला प्रेमी गीता वुल्फ ने दुलारी देवी के जीवन पर आधारित पुस्तक ‘फॉलोइंग माई पेंट ब्रश’ प्रकाशित की हैI  

रांटी में उनके घर पर हमने उनकी कलायात्रा पर विस्तार से बातचीत की। उसी बातचीत के कुछ खास अंश यहां आपके समक्ष:-

फोकार्टोपीडिया: आपका जीवन संघर्ष से भरा रहा है या कहें कि संघर्ष का दूसरा नाम हैI क्या आप अपने पुराने दिनों को हमारे साथ साझा करना चाहेंगी, आप चाहें तो इस प्रश्न का जवाब नहीं भी दे सकती हैं।

दुलारी देवी: हम बहुत ही साधारण घर से हैं और हमलोगों ने बहुत दुख सहा है। जब भी हम उन दिनों को याद करते हैं, हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं कि कैसे हमने वो दिन काटे। सच कहें तो जन्म के बाद एक लंबे समय तक हमने कष्ट देखा। हमारे पिता मुसहर मुखिया हमारी जाति का परंपरागत काम करते थे। मछली पकड़ने का काम। मेरी मां का नाम धनेश्वरी देवी था। वो खेत में मजूरी करती थी। जब हम थोड़ा होशगर हुए, तब से मां और पिता के काम में उनका यथाशक्ति हाथ बंटाते थे। मां के साथ मेहनत मजूरी करना, दूसरों के घरों में झाडू पोंछा करना, खेतों में मजदूरी करना और भी बहुत कुछ। धान की कटाई के समय दूसरों के घरों में धान कूटने के लिए जाती थीI तब 20 किलो धान कूटने पर आधा किलो धान मजूरी में मिलते थेI गाहे-ब-गाहे भूखे पेट सोना पड़ जाता थाI पिताजी मेरी शादी 12 वर्ष की उम्र में कर दिये। वहां भी दुख कम नहीं हुआ। पति के साथ अनबन रही और फिर छह माह की बच्ची भी गुजर गयी। उसके बाद मैं वापस अपने घर चली आयी और तब से यहीं हैं।    

ओह, फिर आप पेंटिंग के क्षेत्र में कैसे आयीं?

ससुराल से लौटने के बाद जीवन चलाने के लिए कुछ तो करना था। तब बगल में ही महासुंदरी देवी का घर था। वो नाम कलाकार थी। उन्होंने मुझे अपने घर में झाडू-पोछा के काम में लगा लिया। छह रुपये महीना तब वो देती थीं। उनको चित्र बनाते हुए मैं देखती थी। इससे मेरे मन में भी इच्छा होती थी कि मैं भी चित्र बनाऊं, लेकिन तब पिछली जातियों में पेंटिंग बनाने का रिवाज ही नहीं थाI इसी वजह से कलाकार के घर में रहते हुए भी मैं शुरू में कह नहीं पायी कि मैं भी पेंटिंग सीखना चाहती हूं। एक समस्या और थी। पेंटिंग के लिए जरूरी साजोसामान खरीदने तक का पैसा भी नहीं था। हालांकि इसका तोड़ मैंने निकाल लिया था। मैं उनके घर कामकाज खत्म कर जब घर लौटती थी तब अपने आंगन की जमीन गीली कर उस पर चित्रकारी करती थीI लेकिन इन सब का कोई मतलब नहीं था, सिवाये मन को शांत करने केI 

फिर आपकी ये साधना कैसे आगे बढ़ी?

मिथिला क्षेत्र में जब अकाल पड़ा तब सरकार मिथिला पेंटिंग लोगों को पेंटिंग बनाने के लिए प्रेरित करने लगी जिसके बदले में कुछ रुपया मिलता था। मिथिला पेटिंग के व्यावसायिक उपयोग को बढ़ावा देने के लिए प्रशिक्षण भी दिया जा रहा था। ऐसा ही एक प्रशिक्षण कैंप वस्त्र मंत्रालय के द्वारा महासुंदरी देवी के घर पर आयोजित किया गया। वहीं मैं काम भी करती थी। इसलिए महासुंदरी देवी के कहने पर मुझे भी 6 महीने के प्रशिक्षण कार्यक्रम में शामिल कर लिया गयाI मेरी पेंटिंग में कोई कमी न रहे या कोई कमी न निकाल सके, इसके लिए मैं ट्रेनिंग खत्म होने के बाद घंटों-घंटों तक अपने घर पर अभ्यास करतीI घर पर बिजली तो थी नहीं, इसलिए मिट्टी के तेल के दिये की रोशनी में पेंटिंग बनाती रहती थीI मेरी इस कोशिश को कर्पूरी देवी ने खूब बढ़ावा दिया। वो मांजी थीं हमारे लिये। हमें बहुत मानती थी और उन्होंने मुझे बेटी की तरह माना, रखा। इसी तरह से मेरी कला आगे बढ़ी।

आपने पौराणिक कथाओं की जगह आम जनजीवन को अपनी पेंटिंग पर उतारने का फैसला क्यों किया?

जब मैंने चित्र बनना शुरू किया तब हमलोग धार्मिक कहानियां, धार्मिक आख्यान या पौराणिक कथाओं को जानते ही कहां थे। आज भी उनके बारे में बहुत खास जानकारी नहीं है। इसलिए उन विषयों पर चित्र कैसे बनाते। दूसरी बात, मुझे आम जनजीवन, मछुआरों के संस्कार, उत्सव और किसान-मजदूर ये सब अपने ज्यादा नजदीक लगते थेI इसलिए मैंने अपने आपपास के जीवन को ही कागजों पर उकेरना उचित समझाI और, सबसे अच्छी बात तो यह हुई कि मेरी इस कोशिश को लोगों ने सराहा, पसंद किया जिससे मेरा हौसला भी बढ़ा।  

आप अब तक कहां- कहां पेंटिंग बनाने जा चुकी हैं?

मैंने ‘कला माध्यम’ नाम की संस्था के जरिए बेंगलोर में पांच साल तक शिक्षण संस्थानों, सरकारी और गैर सरकारी इमारतों की दीवारों पर चित्रकारी कीI केरल, मद्रास, हरियाणा और कलकत्ता में भी मिथिला पेंटिंग की कार्यशालाओं में जाना हुआ हैI बोध गया के नौलखा मंदिर में चित्रकारी करने का मौका मिला हैI हां, धाई जी की वजह से कहीं आना जाना संभव नहीं हो पाता है, उनकी तबीयत बहुत खराब रहती है।

धाई जी?

जी, कर्पूरी देवी। नब्बे वर्ष के ज्यादा की हो गयी हैं। मुझे बेटी मानती हैं। उनकी सेवा करनी है। इसलिए अब कहीं आने जाने का मन नहीं करता है।  

अभी आप बच्चों को पेंटिंग सिखाती हैंI आगे क्या करने की योजना है?

मुझे बच्चों को पेंटिंग सिखाना बहुत पसंद हैI आगे भी बच्चों को सिखाती रहूंगीI चूंकि चित्रकारी ने मुझे आर्थिक आत्मनिर्भरता दी है तो इसे भी आगे जारी रखूंगीI और, अभी तो बहुत थोड़ा ही हासिल किया है, बहुत हासिल करना बाकी हैI

नोट: मिथिला कला और सुजनी की वरिष्ठ कलाकार कर्पूरी देवी अब स्वर्गस्थ हैं। गत वर्ष उनका निधन हो गया। यह साक्षात्कार उनके देहांत से पूर्व संपन्न हुआ था।

दुलारी देवी मधुबनी के रांटी गांव में रहकर अपनी कला साधना करती हैं।

Tags: State awardee, Dulari Devi, दुलारी देवी, Folk painting, Mithila painting, Madhubani, Ranti

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