सुमन सिंह । कला समीक्षक एवं वरिष्ठ पत्रकार, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कला लेखन, शोध-कार्यों एवं कला इतिहास में गहरी रुचि
—
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध का पटना जिन कारणों से देश-दुनिया में जाना जाता था, उनमें से एक था इसका कंपनी शैली या पटना कलम की चित्रकला के केन्द्र के रूप में स्थापित होना। शहर के पटना सिटी का लोदीकटरा और दीवान मोहल्ला इस शैली के कलाकारों का प्रमुख आश्रय स्थल थे। माना जाता है कि अठारहवीं सदी में औरंगजेब की कला विरोधी नीतियों के कारण मुगल दरबार का आसरा छोड़ कुछ हिन्दू कलाकार परिवारों ने पटना और उसके आसपास को अपना ठिकाना बनाया। उन्हें तत्कालीन समाज के प्रबुद्ध नागरिकों के साथ-साथ अंग्रेज अधिकारियों का संरक्षण उस दौर में मिला।
भारतीय लघु चित्रशैली और ब्रिाटिश शैली के मेल से जो रचनाएं सामने आईं, उसे कंपनी शैली या पटना कलम के नाम से जाना गया। इस शैली के कलाकारों में सेवक राम, हुलास लाल, शिवलाल, बेनीलाल,गोपाल लाल, बहादुर लाल, बाबू शिवदयाल, महादेव लाल, जमुना प्रसाद आदि जाने जाते हैं। यूं तो इस शैली को व्यक्तिचित्रों के अंकन के लिए भी जाना जाता है किन्तु यह पहली ऐसी भारतीय कला शैली थी जिसमें आम लोगों और उनकी जीवन शैली को विषय वस्तु के रूप में रूपायित किया गया। इस दौर में इन कलाकारों की शोहरत यूरोप तक थी। व्यक्ति चित्र बनाने के एवज में इन्हें मेहनताने के रूप में अशर्फियां मिला करती थीं। तब के जमाने में एक या दो अशर्फी भी बड़ी रकम थी। लेकिन, बाद के वर्षों में फोटोग्राफी और लिथोग्राफी के बढ़ते चलन के कारण पटना कलम का प्रभाव कम होने लगा और संरक्षण-संवर्धन के अभाव में अंतत: यह शैली आज समाप्त मान ली गई है।
माना जाता है कि ईश्वरी प्रसाद वर्मा इस परंपरा के अंतिम महत्वपूर्ण चित्रकार थे, जो पटना कलम के चित्रकार शिवलाल के पोते थे और गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ आट्र्स, कलकत्ता में उप-प्राचार्य रह चुके थे । हालांकि कुछ जानकारों का मानना है कि शिवलाल ईश्वरी प्रसाद वर्मा के फूफा थे। आज आवश्यकता इस बात की है कि इस लुप्त हो चुकी कला शैली को पुऩर्जीवित करने का प्रयास किया जाए, किन्तु खेद है कि ऐसी कोई कोशिश न तो कलाकारों के स्तर से की जा रही है और न तो राज्य सरकार के। बताते चलें कि पीसी मानुक और मिल्ड्रेड आर्चर के बाद किसी लेखक या इतिहासकार के स्तर से कोई महत्वपूर्ण या उल्लेखनीय प्रयास इस दिशा में संभव नहीं हो पाया, कारण चाहे जो भी रहे हों।
उसी पटना सिटी के लोदीकटरा के एक परिवार में 7 जनवरी, 1907 को राधामोहन प्रसाद का जन्म हुआ। पिता मुंशी कृष्ण प्रसाद किसी तत्कालीन रियासत के दीवान थे। बचपन से चित्रकला में अपनी रुचि के कारण किसी तरह परिवार के सदस्यों की सहमति से उन्हें पटना कलम के चित्रकार महादेव लाल की शागिर्दी का अवसर प्राप्त हुआ। लगभग तेरह वर्षों तक यह क्रम जारी रहा। इस बीच अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे पटना हाईकोर्ट में वकालत करने लगे, जहां तब के नामी वकील नागेश्वर प्रसाद का उन्हें सान्निध्य और मार्गदर्शन मिला। राधामोहन चाह कर भी चित्रकला से अपने को अलग नहीं कर पा रहे थे। उनके मन के किसी कोने में सिर्फ चित्रकार बनने की ही नहीं, इस दिशा में कुछ उल्लेखनीय करने की लालसा दबी हुई थी। इसी क्रम में आया 18 दिसम्बर 1938 का दिन जब अपनी यूरोप यात्रा से वापस लौटकर नागेश्वर प्रसाद अपनी मित्र मंडली को अपने यात्रा के संस्मरण सुना रहे थे। वह यूरोप के कला विद्यालयों और कला दीर्घाओं से काफी प्रभावित लगे। उनकी मंशा को भांपते हुए वहां मौजूद राधामोहन प्रसाद ने कला विद्यालय प्रारंभ करने की अपनी इच्छा उजागर की।
नागेश्वर प्रसाद ने इस प्रस्ताव का स्वागत करते हुए तत्काल पांच सौ रूपये उनके हाथ में सौंपकर इस प्रस्ताव को अपनी सहमति दे दी। उसके बाद मित्रों और शुभेच्छुओं के सहयोग से गोविन्द मित्रा रोड पर 27 रुपए महीने के किराए पर एक मकान लिया गया और 25 जनवरी, 1939 को नगर के गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति में स्कूल की स्थापना हो गई जिसका नाम रखा गया- पटना स्कूल ऑफ आर्ट एंड क्राफ्ट। राधामोहन के साथ-साथ हरिचरण मेहता, श्यामलानंद और सिंहेश्वर ठाकुर इस विद्यालय के अध्यापक बनाए गए। इसके अलावा दो छात्रों यदुवंशी सहाय और कयामुद्दीन अहमद के साथ इस कला विद्यालय की यात्रा की विधिवत शुरुआत हुई। छह महीने भी नहीं बीते कि आर्थिक संकट सामने आ खड़ा हुआ। राय त्रिभुवन नाथ सहाय, नागेश्वर प्रसाद और राधाशरण बाबू (तत्कालीन आयकर कमिश्नर) आदि इस संकट का समाधान खोजने के क्रम में तत्कालीन मंत्री अनुग्रह नारायण सिंह के पास जा पहुंचे। अनुग्रह बाबू की पहल पर पुराने लॉ कॉलेज की बिल्डिंग (खुदाबख्श खां लाइब्रोरी के निकट) एक रुपये के मासिक किराये पर उपलब्ध हो गई। इसी बीच इस भवन को पटना मेडिकल कॉलेज को दिए जाने की बात होने लगी। काफी प्रयास के बाद किसी तरह इस विद्यालय को बंदर बगीचा (वर्तमान टेक्स्ट बुक बिल्डिंग) स्थित एक मकान में जगह मिल पाई। विद्यालय के सरकारीकरण के प्रयास में भी सफलता मिली।
1948 में बिहार सरकार के शिक्षा विभाग ने इस विद्यालय को अपने अधीन कर लिया और अब इसका नाम हो गया- राजकीय कला एवं शिल्प विद्यालय, जहां चित्रकला, मूर्तिकला, व्यावसायिक कला के साथ-साथ शिल्प कला की भी शिक्षा दी जाने लगी। राधामोहन इसके संस्थापक प्रिंसिपल बने। इस बीच तत्कालीन शिक्षा सचिव जगदीशचन्द्र माथुर का सहयोग इस विद्यालय को अनेक रूपों में मिला। माथुर साहब की ख्याति एक कलाप्रेमी अधिकारी की थी। वे बिहार को भी अन्य पड़ोसी राज्यों की तरह कला-संस्कृति के क्षेत्र में विकसित राज्य के रूप में देखना चाहते थे। उनके प्रयास से 1955 में विख्यात कलाकार विनोद बिहारी मुखर्जी को इस विद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया। बाद के वर्षों में जगदीशचन्द्र माथुर के सहयोग एवं राधामोहन प्रसाद के प्रयास से इस विद्यालय के लिए पटना संग्रहालय के पीछे जमीन आवंटित की गई जिसमें वर्तमान छात्रावास व विद्यालय भवन का निर्माण हो पाया और 1957 में यह विद्यालय इस भवन में स्थानान्तरित कर दिया गया। इसी परिसर में राधामोहन बाबू ने बिहार स्टेट आर्ट गैलरी की स्थापना की, हालांकि इसके लिए राज्य सरकार ने बंदर बगीचा में जमीन भी मुहैया कराई और तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के हाथों इसका शिलान्यास भी किया गया। अब भी शिलान्यास का वह पत्थर कला महाविद्यालय में तो पड़ा हुआ है लेकिन सरकारी उदासीनता और अकर्मण्यता के कारण राजेन्द्र बाबू, राधामोहन प्रसाद एवं अन्य कला प्रेमियों का वह सपना अधूरा ही रह गया।
सन 1972 में इस विद्यालय के महाविद्यालय बनने के क्रम में अखिल भारतीय तकनीकी अध्ययन संगठन, दिल्ली के सर्वेक्षण के अनुसार यह महाविद्यालय पूर्वांचल क्षेत्र का तीसरा और देश के बारहवें सर्वोत्तम कला संस्थानों की श्रेणी में गिना जाने लगा। इसी दौर में देश के अधिकतर कला महाविद्यालयों को कला की उच्च शिक्षा से जोड़ने के क्रम में विश्वाविद्यालयों से जोड़ा जाने लगा। दरअसल, तब इन महाविद्यालयों में डिप्लोमा की पढ़ाई ही हो पा रही थी जबकि छात्रों के बीच डिप्लोमा की जगह डिग्री की पढाई की मांग उठने लगी। यहां भी कुछ यही स्थिति आई और कुछ अन्य मांगों के साथ डिग्री की पढ़ाई शुरू कराए जाने के मुद्दे पर छात्र आंदोलन पर उतर आए। अंतत: 12 अप्रैल 1977 को बिहार के राज्यपाल के आदेश से पटना विश्वविद्यालय ने कला महाविद्यालय का अधिग्रहण कर लिया। अब छात्रों का पांच वर्ष के डिप्लोमा की बजाय पांच वर्ष के डिग्री कोर्स में नामांकन कराया जाने लगा। इस तरह वर्ष 1980 से यहां डिग्री कोर्स के पहले सत्र की शुरुआत हो गई। कुछ इस तरह से शुरू हुई इस महाविद्यालय की कला यात्रा आज तक जारी तो है, किन्तु सरकारी उदासीनता एवं कतिपय अन्य कारणों से यह महाविद्यालय उन ऊंचाइयों तक अभी भी नहीं पहुंच पाया, जो अपेक्षित था।
बहरहाल, कला की विभिन्न विधाओं में यहां से शिक्षा प्राप्त कर चुके कलाकारों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। परिस्थितियां कुछ ऐसी रहीं कि शुरुआती दौर के शिक्षकों का रुझान परंपरावादी ही रहा। ऐसे में यहां के छात्रों में आधुनिकता के प्रति रुझान विकसित करने का श्रेय जाता है प्रो. बटेश्वर नाथ श्रीवास्तव को। लखनऊ कला महाविद्यालय से अपनी कला शिक्षा पूरी करने के बाद बटेश्वर बाबू यहां प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। इस बीच 1955 में छात्रवृति पाने के बाद यूरोप की अपनी यात्रा, प्रवास और अनुभवों ने उन्हें पारंपरिकता के बजाय पश्चिमी कला के अनुसरण को प्रेरित किया। यह वह दौर था जब भारतीय कला जगत में आधुनिक कला की शब्दावलियां प्रचलित होने लगीं थी। अब बात अगर समकालीन कला में अपने योगदान को लेकर की जाए तो पूर्ववर्ती छात्रों में प्रो. बीरेश्वर भट्टाचार्जी पहले ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने इस महाविद्यालय की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर दिलाई। साथ ही इस क्रम में प्रो. श्यामलानंद, प्रो. यदुनाथ बनर्जी, सत्या बाबू, प्रो. पाण्डेय सुरेन्द्र, प्रो.उमानाथ झा, प्रो. श्याम शर्मा व प्रो. वारिस हादी समेत अन्य महान कलाकारों व प्राध्यापकों के महत्वपूर्ण योगदान को भी भूलाया नहीं जा सकता है।
दूसरी तरफ बिहार की कला के महत्वपूर्ण पड़ावों में जिस पटना कलम का जिक्र आता है, वह शैली तो आज लुप्त हो चुकी है। किन्तु यह सवाल अक्सर उठता रहता है कि पटना कलम के अंतिम चित्रकार ईश्वरी प्रसाद वर्मा थे या राधामोहन प्रसाद क्योंकि जिस पीढी के पास पटना कलम की स्मृतियां थीं, दुर्भाग्य से आज उनमें से कोई भी महत्वपूर्ण शख्सियत हमारे बीच नहीं हैं। उनके समकालीनों ने भी तब इस विषय की गंभीरता को महत्व नहीं दिया। ऐसे में मान्यता तो यही है कि ईश्वरी प्रसाद वर्मा ही पटना कलम शैली के अंतिम चित्रकार थे। हालांकि ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो राधामोहन प्रसाद को पटना कलम का अंतिम चित्रकार मानते हैं।
—
References:
कला महाविद्यालय की विकास यात्रा, प्रो. श्याम शर्मा
एक और राधामोहन की जरूरत, मनोज कुमार बच्चन
बिहार खोज खबर. कॉम
—
Other links:
College of Arts & Crafts, Patna: An Introduction
Contemporary Art Of Bihar: A Concise Account
राधामोहन प्रसाद (1907-1996): बिहार में समकालीन कला के सूत्रधार