मदन मीणा । वरिष्ठ कलाकार एवं शोधार्थी, राजस्थान के शिल्पकारो एवं कलाकारों की बीच सक्रिय । मीणा जनजाति की कला विषय पर पीएचडी की उपाधि।
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भरतहरी की कथा I भाग – दो I तीन
एक समय था जब राजा इन्द्र की परियां पृथ्वी पर नृत्य किया करती थीं। सुबह के समय खुशबूदार पेड़ों से फूल गिरा करते थे। राजा इंद्र अपने बेटे गंधर्वसेन को वचनों में बांधते हुए गधा बनने के लिए कहता है। गंधर्वसेन का जन्म लाखा कुम्हार की गधी से होता है। वह कुछ ही समय में बड़ा हो जाता है और रात के आधे पहर के समय लाखा कुम्हार को आवाज़ लगाता है कि वह अपनी पैपावती नगरी के राजा को जाकर कहे कि वह अपनी लड़की पानदे बाई का विवाह उससे कर दे। लाखा कुम्हार की गधी का रेंगटा हर रात अपनी इसी बात को दोहराते हुए रोज़ लाखा कुम्हार को जगाता है। लेकिन लाखा कुम्हार की हिम्मत नहीं होती कि वह यह बात जाकर अपने राजा से कहे कि वह अपनी बेटी पानदे बाई का विवाह उसकी गधी के रेंगटे से कर दें। ऐसी गलती करने पर निश्चय ही राजा उसे कड़ी से कड़ी सज़ा देगा व उसकी खाल उतरवा देगा। वह उसे नगर के बाहर भी निकाल देगा।
परेशान होकर लाखा कुम्हार अपनी पत्नी से गांव छोड़कर चलने को कहता है। लाखा अपने घर का सारा सामान गधों पर लाद कर घने जंगल को पार करते हुए निकल जाता है। रास्ते में उसे गांव के लोग मिलते हैं। वे अचंभित हो उससे उसके गांव छोड़कर जाने का कारण पूछते हैं। वे कहते हैं, ‘‘अरे लाखा! ऐसा क्या दुख पड़ गया, क्या विपदा आ गई, ऐसी क्या बात हो गई जो तू गांव छोड़कर जा रहा है? अगर तू चला गया तो हम अकेले यहां रहकर क्या करेंगें? हम तेरे बिना किससे मटकी और मिट्टी के बर्तन लाएंगें?” वे उसे वापस गांव लौटने के लिए कहते हैं। पंच–पटेलों का निवेदन सुनकर लाखा इस बात पर वापस गांव चलने को राज़ी होता है कि उन्हें एक रात उसके घर बितानी पड़ेगी। जिसके लिए वे तुरंत तैयार हो जाते हैं।
आधी रात का जब पहर होता है तो गधी का रेंगटा लाखा को वही आवाज़ लगाता है कि वह जाकर अपने राजा से कहे कि वह अपनी बेटी का विवाह उससे कर दे। पंच–पटेल रेंगटे की मांग को सुनकर स्तब्ध रह जाते हैं। उनकी हिम्मत नहीं होती की वे यह बात राजा को किसी तरह कह दें। इसलिए वे भी लाखा के साथ गांव छोड़कर जाने का निर्णय करते हैं। सभी गांव छोड़कर चल देते हैं। यह बात राजा पैपसिंह को उसके महल में मालूम हो जाती है तो वह अपने घोड़े पर बैठकर गांव वालों के समक्ष आता है और उनके जाने का कारण पूछता है, ‘‘अरे बस्ती के लोगों! ऐसी क्या बात हो गई जो तुम गांव छोड़कर जा रहे हो? तुम्हारे बिना मैं किस पर राज करूँगा? और कैसे इस नगर का राजा कहलाऊंगा?” गांव वाले जवाब देते हैं कि वह इसका कारण लाखा से पूछें। राजा जब लाखा कि ओर देखता है तो वह ढळ–ढळ–ढळ रोने लगता है और कहता है कि कारण जानने के लिए राजा खुद उसके घर एक रात सो कर देखे। गांव वाले भी कहते हैं कि अगर राजा एक रात बिताने के लिए राजी हो जाए तो वे भी वापस गांव लौट जाएंगें।
राजा उनकी बात मान लेता है। आधी रात होती है और गधी का रेंगटा लाखा को वही आवाज़ लगाता है कि वह महल में जाकर राजा को कहे कि वह उसकी बेटी पानदे का विवाह उससे कर दे। राजा पैपसिंह यह बात सुन लेता है। यह सुनकर वह अचंभित रह जाता है कि गधी के रेंगटे का विवाह वह अपनी बेटी पानदे से कैसे कर सकता है। इस संकट से बचने के लिए वह एक शर्त रखता है कि अगर गधी का रेंगटा उसकी नगरी का परकोटा एक रात में पीतल–तांबे का खिंचवा दे तो वह उसका विवाह अपनी बेटी से कर देगा। यह कहकर राजा अपने महल को लौट जाता है। पीछे से लाखा का दिल घबराने लग जाता है। शर्त सुनकर रेंगटे के भी कान खड़े हो जाते हैं। वह लाखा से कहता है कि वह उसकी पीठ पर दोनों तरफ थैले लटका दे। एक में पीली मिट्टी भर दे और दूसरी में काली मिट्टी भर दे। इसके पश्चात वह उसे नगरी का फेरा लगवा दे। विवश हो लाखा उसकी बात मानते हुए नगरी का फेरा लगवा देता है। एक रात में परकोटा तांबे–पीतल का हो जाता है।
सूरज उगते ही महल में राजा को जैसे ही यह खबर लगती है उसका दिल घबरा जाता है। वह अपनी रानी से कहता कि उसे अपने वचन को निभाने के लिए अपनी बेटी की शादी गधी के रेंगटे से करनी पड़ेगी। लेकिन शादी के बाद वह रेंगटे को महल में ही घरजंवाई बना कर रख लेगा। वह अपने नाई को बुलाकर उसके हाथ लाखा कुम्हार के यहां लग्न भिजवा देता है। लग्न आते देख लाखा गांव वालों को आवाज़ लागाता है कि वे उसके घर आकर लग्न झिला जाएं। यह सब कार्य बड़ी शोभा से हो जाता है। लाखा बारात ले जाने की तैयारी में जुट जाता है। वह बिना किसी बैंड–बाजे के बारात को लेकर चल देता है। लाडा रेंगटा बारात में नाचते हुए लोगों पर रुपये लुटाता चलता है। बारात जब राजा के यहां पहुंचती है तो महल में से उतर कर घर की महिलायें तोरण द्वार पर मंगल गीत गाती हुई आती हैं और दूल्हे का स्वागत करती हैं। रानी आरती करती है। दोनों के गठजोड़ा जोड़कर पंडित उनके फेरे लगवाता है। पहले फेरे में राजा–रानी अन्न का दान करते हैं। दूसरे में छल्ला–अंगूठी, तीसरे में पांच बर्तन, चौथे में पांच कपड़े, पांचवें में सोने का दान, छठे में गज–इष्ट्या (हाथी और घर के देवताओं) का दान और सातवें में गौ माता का दान करते हैं।
फेरे लगने के बाद बारात लौटने की तैयारी करती है। विदाई में महिलायें गाली–गीत गाती हैं। मालिन फूलों के हार बना कर लाती है। पहली माला गणेश जी को अर्पण की जाती है, दूसरी लाखा ब्याई को और तीसरी अपने नए जंवाई साहब को पहनाई जाती है। बारात लौट जाती है लेकिन बेटी और जंवाई को महल में ही रोक लिया जाता है। उन्हें महल के तलघर में खर्चा–पानी देकर रहने के लिए अकेला छोड़ दिया जाता है। जब दिन ढलने के बाद रात होती है तो रेंगटा गंधर्वसेन बन जाता है। हर रात को वह मनुष्य देह में तब्दील हो जाता है और सुबह होते ही वापस गधा बन जाता है। कुछ समय पश्चात पानदे गर्भवती हो जाती है। वह एक के बाद एक चार बच्चों को जन्म देती है जिसमें सबसे बड़ा भरतहरी, उससे छोटा विक्रमादीत, उससे छोटी मेणावंती और चौथे स्थान पर सबसे छोटा भाई सलीमादीत जन्म लेता है। चारों बहन–भाई महल के तलघर में खेलते–कूदते हैं।
एक दिन राजा पैपसिंह की रानी को अपनी बेटी की याद आती है। उसके हाल–चाल जानने के लिए वह अपनी दासियों को तलघर में भेजती है। वे जाकर देखती हैं कि पानदे हाथ में क़िताब लिये पढ़ रही है और चारों बच्चे मस्ती में खेल रहे हैं। दासियों से मिलकर वह कहती है कि वे जाकर उसकी मां से कह दें कि उसने तो अपनी बेटी का विवाह गधे से किया था लेकिन उसके चार बच्चों का जन्म हुआ है। इतने में रेंगटा भी घास चरकर वापस लौट आता है। रात का वक्त होता है, रेंगटा अपनी खाल उतार कर गंधर्वसेन बन जाता है। खाल को खूंटी पर टांग देता है। यह राज़ जानने के बाद मौका देखकर रानी दासियों को तेल देकर भेजती है कि वे जाकर रेंगटे की खाल को जला दें। रानी सोचती है कि ऐसा करने से रेंगटा हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा और बदले में मनुष्य रूपी गंधर्वसेन बच जाएगा। खाल को दासियां जैसे ही आग लगाती हैं, गंघर्वसेन पानदे से कहता है, ‘‘अरे मेरी खाल में किसी ने आग लगा दी है, मेरा पूरा शरीर जल रहा है। तू तुरंत इस नगर को छोड़कर जंगल में चारों बच्चों को लेकर निकल जा। मैं बदला लेने के लिए आज इस नगर को तहस–नहस कर दूंगा।’’
पानदे चारों बच्चों को लेकर महल छोड़ जंगल में पहुंच जाती है। वहां घने जंगल का भयावह दृश्य देख जोर–जोर से रोने लगती है। उसे रोता देख चारों बच्चे भी रोने लगते हैं। सलीमादीत गोद में होता है। जंगल में खाने–पीने को कुछ नहीं मिलता। भूख के मारे आंचल में दूध आना भी बंद हो जाता है। छोटा बालक सलीमादीत भूखा मरने लगता है। इतने में सामने से नाहर और नाहरणी का जोड़ा आता दिखाई देता है। भरतहरी अपनी मां से कहता है कि नाहर–नाहरणी उन सब का शिकार कर खा जाएंगे इसलिए वह छोटे भाई को वहां छोड़कर आगे चले जाएं। पानदे सलीमादीत को नरसल पेड़ के नीचे रखकर बाकी तीनों बच्चों को लेकर वहां से चल देती है।
घनी रात का समय होता है। आगे चलकर वे ढोबा प्याड़ पर पहुंचते हैं। रात का पहरा लगाने के लिए पहले पहर में विक्रमादीत जागता है। ढोबा प्याड़ के पास स्थित बावड़ी के बड़ में काले सांप का वास होता है। विक्रमादीत को बड़ के पेड़ में चकवा–चकवी दिखाई देते हैं। विक्रमादीत की मौजूदगी से अनभिज्ञ वे आपस में बतियाते हैं कि अगर उनमें से कोई चकवे को मार कर खा जाए तो वह धारा नगरी का राजा बन जाएगा और चकवी कहती है कि अगर कोई उसे मारकर खा जाए तो वह रोज़ एक सोने की मोहर उगलेगा। चकवे–चकवी की बात सुनकर विक्रमादीत सोचता है कि वह दोनों का शिकार कर खुद चकवी को खा जाए तो रोज़ एक सोने की मोहर मिलेगी और भाई भरतहरी को चकवा खिला देगा तो उसे धारा नगरी का राज मिल जाएगा। दोनों का शिकार कर वह भरतहरी को जगाता है।
भरतहरी अपने भाई की बात सुन कर चकवे को खा लेता है और विक्रमादीत चकवी को खा जाता है। आधी रात का पहरा भी पूरा हो जाता है। इसके बाद पहरा देने की बारी भरतहरी की आती है, अब विक्रमादीत गहरी नींद सो जाता है। इतने में जिस बड़ के पेड़ में तीर से चकवा–चकवी का शिकार किया था उसमें से काला नाग नीचे उतरता है और विक्रमादीत को डस लेता है। विक्रमादीत की वहीं मृत्यु हो जाती है उसके मुंह पर चींटियां चढ़ने लगती हैं। सूरज उगता है तो पता चलता है कि उसकी मृत्यु हो चुकी है। पानदे अपने दूसरे बेटे को खोने के दुख में रोने लगती है। जिंदा बचे हुए भरतहरी और उसकी बहन भी जोर-जोर से रोने लगते हैं। मां विलाप करती है कि भगवान ने उसके भाग्य में यह सब दुख क्यों लिखे हैं।
अपने भाई की अंत्येष्टि के लिए खप्पन (क़फ़न) लाने के लिए भरतहरी शहर की ओर निकल जाता है। घना जंगल पार करते हुए वह धारा नगरी पहुंचता है जिसके दरवाज़े उसे बंद मिलते हैं। दरवाजे बंद देख भरतहरी दुखी होता है। उस समय धारा नगरी का कोई राजा नहीं होता क्योंकि जो भी राजगद्दी पर बैठता है उसे वहां का राक्षस व कामाख्या देवी खा जाते थे। भरतहरी को देख नगरवासी उसे राजा बनने का प्रस्ताव देते है। दुखी भरतहरी जवाब देता है कि वह तो अपने भाई की अंत्येष्टि के लिए खप्पन लेने आया है। लेकिन आखिर में उसे नगरवासियों का निवेदन स्वीकार करना पड़ता है। धारा नगरी का राजा बनने के पश्चात वह अपने भाई–बहन और मां को भूल जाता है।
भरतहरी को जब राक्षस की बात पता चलती है तो वह उसे रिझाने के लिए नगर के गेट से महल की राजगद्दी तक फूल बिछवा देता है और ऊपर से सुगंधित इत्र का छिड़काव करवा देता है। जैसे ही राक्षस महल में प्रवेश करता है वह मादक महक से मोहित हो जाता है। कामाख्या देवी भी भरतहरी से खुश हो जाती हैं। दोनों खुश होकर भरतहरी को वरदान देते हैं कि धारा नगरी पर अब वही राज करेगा। जंगल में पानदे अपने दोनों बच्चों और विक्रमादीत की लाश के साथ भाई के लिए खप्पन लेने गए भरतहरी का इंतजार करती बैठी रहती है। पानदे के दुख को देख शंकर भोलेनाथ प्रकट होते हैं और अपना नाद बजाते हैं। काला नाग पेड़ से उतर कर विक्रमादीत के शरीर का सारा ज़हर चूस लेता है। शंकर द्वारा अमृत जल के छींटे देते ही वह उठ खड़ा होता है। विक्रमादीत को जिंदा कर शंकर अपनी धूनी पर वापस चले जाते हैं।
एक दिन धारा नगरी में चोरी हो जाती है जिसमें डकैत गायों को चोरी कर के ले जाते हैं। बस्ती गायों को छुड़ाने के लिए भरतहरी से निवेदन करती है। भरतहरी अपने घोड़े पर सवार हो डैकतों के पास जाता है और देखता है कि डकैत हरी–पीली रंगीन जाजमों पर बैठे हुए हैं। उन हजार डकैतों का सरदार गणपतसिंह भी वहीं बैठा होता है। भरतहरी गणपतसिंह को ललकारते हुए गायों को छोड़ने के लिए कहता है। गणपतसिंह जवाब देता है कि अगर भरतहरी को जान बचानी है तो वह वहां से वापस लौट जाए। दोनों तरफ से युद्ध छिड़ जाता है। गणपतसिंह डकैत को हरा कर भरतहरी गायों को छुडा कर उसकी बेटी श्यामदे को ब्याह लाता है। भरतहरी श्यामदे को लेकर महल में आ जाता है। श्यामदे महल को देखकर पूछती है कि इतने बड़े महल में क्या वह अकेले ही रहते हैं। अगर उनकी छोटी बहन और भाई होते वह उनका लाड़ लड़ाती और अगर उनकी सास होती तो वह उनके पांव दबाती।
यह सब सुनकर भरतहरी को अपनी मां और भाई–बहन याद आ जाते हैं। उसे याद आता है कि वह सांप द्वारा डसे अपने भाई को वन में मृत छोड़ कर खप्पन लेने आया था। वह अपनी माता व छोटी बहन को जंगल में रोता छोड़ कर आया था। भरतहरी को उनकी याद सताने लगती है और वह उनसे मिलने के लिये व्याकुल हो जाता है। वह तुरंत जंगल की ओर लौट जाता है जहां उसने उन्हें आखिरी बार छोड़ा था। जंगल में पहुंच कर वह रोने लगता है। उसे रोता देख शंकर फिर से प्रकट होते हैं और उसके रोने का कारण पूछते हैं। भरतहरी का दुख सुनकर उसे आश्वस्त करते हैं कि उसे जल्द ही उसकी बिछड़ी मां व बहन–भाई वापस मिल जाएंगे। शंकर के कहे अनुसार भरतहरी को अपनी मां, भाई विक्रमादीत व बहन मेणावंती वापस एक ही जगह पर मिल जाते हैं। सब गले मिलते हैं। भरतहरी सभी को लेकर धारा नगरी के महल में लौट जाता है और फिर से वहां राज करने लगता है।
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