
सुमन सिंह । कला समीक्षक एवं वरिष्ठ पत्रकार, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कला लेखन, शोध-कार्यों एवं कला इतिहास में गहरी रुचि
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भारत में अनेक मंदिर समूह हैं। विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के मंदिर समूह से लेकर अपेक्षाकृत कम चर्चित उत्तराखंड के गुप्तकाशी स्थित नारायण-कोटि मंदिर समूह तक। लेकिन, सुदूर झारखंड के दुमका जिले में मलूटी नामक एक ऐसा भी गांव है जहां अभी भी जितने घर हैं उनसे ज्यादा मंदिर हैं। इस तरह से यह गांव मंदिरों के गांव के नाम से जाना जाता है।
मलूटी के मंदिरों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनके पार्श्र्व भाग टेराकोटा पैनल (फलक) से अलंकृत हैं। माना जाता है कि कभी यहां इन मंदिरों की संख्या 100 से ज्यादा थी, जिनमें 108 सिर्फ शिवमंदिर थे। वर्तमान में यह संख्या लगभग 72 के करीब हैं और इसके अलावा मां मौलीक्षा का मंदिर भी है।
इन मंदिरों के निर्माण की शुरुआत स्थानीय राजा बाज बसंत राय के समय में हुआ माना जाता है। अपने जमाने में यह एक ऐसा राज्य था जिसमें प्रजा पर किसी तरह का टैक्स नहीं लगाया गया था। इसीलिए यह राज्य ननकर राज्य के तौर पर जाना जाता था। राजा बाज बसंत के बारे में कहा जाता है कि उन्हें यह राज्य गौरा के मुस्लिम शासक अलाउद्दीन शाह (1495-1525) के द्वारा पुरस्कार स्वरूप प्रदान किया गया था।
घटना कुछ यूं है कि अलाउद्दीन शाह का एक बाज लापता हो गया था, जिसे ढूंढकर लानेवाले को ईनाम देने की घोषणा की गयी थी। युवा बसंत राय ने उस बाज को पकड़कर नवाब तक पहुंचाया, जिसके ईनाम के रूप में उन्हें यह राज्य या जमींदारी मिली। राजा बाज बसंत एक अत्यंत धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे, इसलिए उन्होंने अपने अन्य समकालीनों की तरह महल या किला बनवाने के बजाय मंदिरों को बनवाने की परंपरा डाली। बाद में इस वंश की चार शाखायें हो गयीं और प्रत्येक ने अपने-अपने स्तर से यह परंपरा जारी रखी।
स्थानीय जनश्रुतियों के मुताबिक राजा बाज बसंत राय ने 108 मंदिर और इतने ही तालाबों का निर्माण करवाया था। इसी वंश की कुलदेवी के रूप में माता मौलाक्षी का एक मंदिर भी यहां बना हुआ है। मलूटी के प्राचीन मंदिरों में वही एक मंदिर है जिसमें आज भी पूजा के लिए श्रद्धालु आते हैं।

बहरहाल, कला की दृष्टि से देखा जाए तो मलूटी के शिव मंदिरों के बाह्य भाग में लगे टेराकोटा पैनल उन्हें आम मंदिरों या मंदिर समूहों से अलग करता है। लगभग 350 मीटर के दायरे में इन 108 शिव मंदिरों का निर्माण किया गया था, जिनमें 72 मंदिर वर्तमान में मौजूद हैं। उनमें कुछ थोड़ी अच्छी अवस्था में हैं, तो कुछ जीर्ण-शीर्ण। बाकी 36 मंदिरों का कोई नामोंनिशां नहीं रह गया है। साथ ही देवी मौलाक्षी, काली, मनसा एवं दुर्गा के भी मंदिर भी हैं।
वर्तमान समय में भी कुछ नये मंदिर बनाये गये हैं जिसमें स्थानीय ग्रामीणों द्वारा नियमित पूजा-अर्चना होती है। यह गांव बंगाल के सिद्ध तांत्रिक समझे जाने वाले स्वामी बामदेव यानी बामाखेपा की साधना स्थली भी रहा है। वैसे राजा बाज बसंत से पहले मलूटी के इतिहास के बारे में जो जानकारी मिलती है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह स्थान पहले से ही तंत्र-पूजा का केन्द्र रहा होगा।
ईसा पूर्व शुंग काल में इस स्थान को गुप्तकाशी के नाम से जाने जाने का उल्लेख भी मिलता है और पाटलिपुत्र के राजा द्वारा यहां अश्वमेध यज्ञ के आयोजन का भी विवरण इतिहास में दर्ज है। इनके अलावा बौद्ध धर्म के वज्रयानी साधकों की सााधना स्थली के तौर पर भी मलूटी की पहचान समझी जाती है।
मलूटी के नाम से बनी एक वेबसाइट पर यह भी दर्ज है कि इतिहासकारों को यहां प्रागैतिहासिक काल की बसावट के सबूत भी मिले हैं। निर्माण शैली के दृष्टिकोण से जब हम मलूटी के मंदिरों को देखते हैं तो अपने यहां जिन तीन वास्तु शैलियों यानी नागर, द्रविड़ और बेसर (मिश्रित) का प्रचलन आमतौर पर होता रहा है, उनमें से किसी का भी अनुशरण नहीं मिलता है। मंदिरों के निर्माण में जिस शैली का प्रयोग हम पाते हैं, वह बंगाल यानी वर्तमान बांग्लादेश और भारतीय पश्चिम बंगाल के अंचलों में विशेष रूप से प्रचलित रही है और जिसे चाला शैली या चारचाला शैली कहा जाता है।

वैसे मंदिरों में टेराकोटा पैनल के प्रयोग का पहला उदाहरण हमें ऐतिहासिक भीतरगांव मंदिर, कानपुर में मिलता है। लेकिन, बड़ी संख्या में उनके प्रयोग का प्रमाण पालकालीन राजाओं (नवीं से बारहवीं सदी) के दौर में सामने आते हैं जिसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण विक्रमशिला महाविहार, अंतीचक, भागलपुर, सोमपुरा महाविहार, पहाड़पुर और ढाका (बांग्लादेश) से मिलता है।
मलूटी मंदिरों के निर्माण में ईंट और सूर्खी-चूने के मिश्रण का प्रयोग किया गया है, वहीं जिन टेराकोटा पैनलों की बात की जा रही है, उसे देखकर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ईंटों के सांचे की तरह ही इन टेराकेोटा पैनलों के लिए भी सांचे का प्रयोग किया गया है। उनके पैनलों में न केवल विभिन्न प्रकार के अलंकरण थे, बल्कि उनमें रामायण और महाभारत के प्रसंगों व देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर वध के प्रसंगों का भी चित्रण दिखता है। उनकी एकरूपता ही यह स्पष्ट करती है कि प्रत्येक पैनल को अलग-अलग डिजाइन करने की बजाये उन्हें सांचे की मदद से बनाया गया है। पैनल में दैनिक क्रियाकलापों या आम जनजीवन का चित्रण भी मिलता है। मसलन दुल्हन को डोली में ले जाते कहार, सैनिकों संग अश्वारोही योद्धा आदि।
जाहिर है, मलूटी के मंदिरों को संरक्षण की आवश्यकता है। राज्य सरकार एवं अन्य संस्थाओं की मदद से उन्हें संरक्षित करने का प्रयास भी दिखता है, लेकिन संरक्षण के दौरान उनके कला पक्ष के संरक्षण का कितना ख्याल रखा जाता है, यह नहीं कहा जा सकता है। एक और बात जो ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है वह यह कि आखिर वे कौन-सी और कैसी परिस्थितियां होती हैं, जब स्थानीय जनमानस अपने धरोहरों के प्रति उदासीन हो जाता है।
यह सवाल इसलिए है कि उदासीनता को लेकर सजग समाज में चिताएं दिख रही हैं। बांग्ला के प्रसिद्ध रचनाकार समरेश बसु अपने एक उपन्यास में इसकी चर्चा करते हैं कि कैसे किसी स्थानीय व्यक्ति के द्वारा मंदिरों से टेराकोटा पैनल उखाड़ कर कोलकाता जैसे शहरों में तथाकथित कलाप्रेमियों तक पहुंचाया जाता रहा है।
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