बिहार के प्रत्येक सांस्कृतिक क्षेत्र में टिकुली (बिन्दी) लगाने का महिलाओं में प्रचलन है। टिकुली प्राय: सधवा महिलाएं ही अधिक प्रयोग करती हैं। सोलह श्रृंगार में बिन्दी लगाना सर्वोपरि है। हर पर्व-त्योहार, विवाह के अवसर पर इसका महत्व और बढ़ जाता है। कुंवारी लड़कियां विवाह के बाद ही बिन्दी का प्रयोग करती हैं। यह सौभाग्य का प्रतीक है।
बिहार में टिकुली, शिल्प के रूप में विकसित हुई। यहां हर क्षेत्र के अनेक शिल्पी टिकुली निर्माण में लगे रहते थे। ये प्राय: दो प्रकार की होती हैं पहला- कच्ची टिकुली जो रोज लगाई और धोई जाती है। दूसरा-पक्की टिकुली जो रोग लगाई जाती है और उतार कर अगले दिन के लिए रख ली जाती है, जो सोना, चांदी, प्लास्टिक, शीशा और अनेक प्रकार की होती हैं। पटना सिटी टिकुली-निर्माण का प्रमुख केंद्र था। यहां से व्यापारी टिकुली खरीद कर गांव, हाट के मेले (तमाशे) में बेचते थे।
समय के साथ टिकुली शिल्प का रूप बदल गया। आज अनेक प्रकार के डिजाइनों की टिकुली बिन्दी प्रसाधनों की दुकानों पर बिकती हैं। बंगला-संस्कृति में टिकुली सूखे सिन्दूर की लगाई जाती है। पारंपरिक टिकुली शिल्प का रूप अब बदल गया है पर टिकुली बिन्दी की लोकप्रियता आज भी है। भोजपुर के लोकगीतों में टिकुली का वर्णन है:-
रामा गोरे-गोरे बाहिया में हरी-हरी चूड़ियां हो रामा
लिलरा प सोभेला टिकुलिया हो रामा, लिलरा…..।
सजावटी टिकुली
टिकुली प्राय: गोलाकार होती है। इसका उपयोग सजावट के काम में भी होता है। यह मेज, डाइनिंग टेबुल पर सजावट के साथ पानी भरा गिलास ढकने, ऐश-ट्रे रखने और अन्य कामों में आती है। यह गोलाकार टिकुली चार इंच से एक फिट व्यास की होती है, इनको दीवार और अन्य उपकरणों पर भी सजाई जाती है। गहरे रंग पर हल्के रंगों से बनी टिकुली में सुनहरी डिजाइन भी बनाए जाते हैं, जो आकर्षक लगते हैं। इसके बनाने की प्रक्रिया भी कलात्मक है। इसमें नए और पारम्परिक डिजाइन बनाए जाते हैं। उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान, पटना में टिकुली विभाग है, जहां टिकुली निर्माण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। अनेक संस्थाएं भी कलात्मक टिकुली निर्माण में सक्रिय हैं। यह बिहार का प्राचीनतम शिल्प है।
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References:
श्याम शर्मा (2012) “बिहार की कला और शिल्प”. पटना: शिक्षा विभाग, बिहार सरकार. पृ. 97
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