दीना और भद्री दो मुसहर भाई थे। उनके पिता का नाम कालू सदा और माता का नाम निरसो था। दोनों भाई अपने माता-पिता से अगाध प्रेम करते थे। दीना की पत्नी का नाम रोदना था और भद्री की पत्नी का नाम सुधना था। इनका नाम हंसा-संझा भी बताया जाता है। दोनों भाई अपनी-अपनी पत्नियों से बहुत प्यार करते थे और उन्हें घर से बाहर मजदूरी करने के लिए नहीं भेजते थे। वे स्वयं दिनभर जंगल में शिकार करते, खाने को लाते, लेकिन अपने माता-पिता और पत्नी को बेगार खटने नहीं देते थे। कहा जाता है वो दोनों बहुत वीर थे। अस्सी मन का धनुष और चौरासी मन का तीर हमेशा अपने कंधे पर लटकाये रहते थे।
दीना और भद्री जिस नगर में रहते थे उस नगर का नाम जोगिया नगर था। उस नगर का राजा कनक सिंह धामि था। वह बड़ा ही अत्याचारी और निरंकुश था और अपने राज्य में रहने वाली प्रजा से बेगार कराता था। जो कोई भी बेगारी नहीं करता, उस पर राजा बेइंतहा जुल्म ढाता था।
राजा कनक सिंह धामि की एक बहन थी जिसका नाम बचिया था। बचिया तंत्रमंत्र में सिद्धहस्त थी। वह दीना-भद्री को नीचा दिखाने के उद्देश्य से अपने राजा भाई से कलहवाकर नगर में एक पोखरा और अपनी जादू से उसमें पनियांदराज का एक जोड़ा डलवा दी। इस तरह जो भी व्यक्ति उस पोखरा में स्नान के लिए आता, पनियांदराज उसे डंस लेता था। नगर के जानवर भी जब उसमें पानी पीने जाते तो वह उन्हें खा जाता था। धीरे-धीरे वह पोखरा नगर के पशुओं के मृत शरीर से भर गया और उससे दुर्गंध उठने लगी। तब नगर को लोग उस समस्या से निजात पाने के लिए दीना-भद्री के पास गये। नगर के लोगों के आग्रह पर दोनों भाइयों ने पोखर से जानवरों के सारे मृत शरीर को बाहर निकाल दिया जिससे नगर वासियों को राहत मिली।
इस घटना से बचिया खुद को बहुत अपमानित महसूस की। वह दीना-भद्री को सबक सिखाने के लिए षडयंत्र रचने लगी। उसने अपने भाई राजा कनक सिंह धामि को दीना-भद्री से बेगार कराने के लिए उकसाया। राजा ने अपने चौर बरेला में तमाम प्रजा को बेगारी में खेती करने का हुक्म दिया। भोर होते ही सभी औरत और मर्द बेगार करने किए चौर बरेला पहुंचे। यहां तक परसौती महिलाएं भी अपने दुधमुंहे बच्चे के साथ बेगार करने के लिए विवश थीं। जब लोग बेगार कर रहे थे तब बचिया अपने मंत्र से एक बुढ़िया का वेश धारण कर चौर पहुंचती है और बड़बड़ाने लगती है कि कैसा बेवकूफ गिरहत है। हलवाहा के साथ-साथ दो जवान कुदाल चलाने वाला भी बुला लेता ताकि वह खेत की आड़ी (मेड़) को अच्छे से काटकर मिला देता। बुढ़िया बनी बचिया ने हलवाहे को भी यह सुनाया और कहा कि कनकसिंह धामि को आने दो, उसको बताते हैं कि जोगिया नगर में कालू सदा का बेटा दीना-भद्री बहुत बलशाली है। उसे बुला लावे कुदाल चलाने के लिए। बुढ़िया वेशधारी बचिया यह ताना देते हुए वहां से चली जाती है।
इस बीच कनकसिंह धामि चौर बरेला पहुंचता है जहां हलवाहा उस बुढ़िया द्वारा किये गये उपहास की बात उसे बताता है। हलवाहे की बात सुनकर आगबबूला राजा ताड़ की बारह पसेरी की छड़ी लेकर दीना भद्री के घर पहुंचता है। दीना-भद्री की मां निरसो चनन गाछ के नीचे बैठकर सीसी का पथिया बीन रही थी। कनकसिंह निरसो से पूछता है कि तुम्हारा बेटा कहां है? निरसो डर के मारे चुप्पी साध लेती है। निरसो की चुप्पी से बौखलाकर राजा कनकसिंह उसे अपने बारह पसेरी के जूते से मारता है जिससे निरसो मुंह के बल गिर जाती है और जोर-जोर से विलाप करने लगती है। ऊधर उत्तर नहीं पाकर राजा कनकसिंह दीना-भद्री की खोज में आगे बढ़ जाता है।
दीना-भद्री तब घर में ही सो रहे थे। भद्री सपने में देखता है कि उसकी मां जार-बेजार रो रही है। वह हड़बड़ाकर उठता है और दीना को भी जगाता है। दोनों अपनी मां को देखने पेड़ के पास जाते हैं तो पाते हैं कि वो जोर-जोर से विलाप कर रहे हैं। निरसो पूरी बात दीना-भद्री को बताती है जिससे दोनों भाई गुस्से से भर जाते हैं। तभी उनकी नजर राजा कनकसिंह पर पड़ती है जो वहां से जा रहा था। वे दौड़कर जाते हैं और राजा के पीठ पर फांदकर उसकी डांर पर पैर मारते है और उसे पटक देते हैं। तब कनकसिंह अपनी जेब से जादू की किताब निकालकर साबरमंतर (एक तरह का जादू) पढ़ने लगता है, लेकिन इससे पहले कि वह अपने जादू से दीना-भद्री पर प्रहार कर पाता, दोनों भाई उस पर हमला बोल देते हैं। तब कोई चारा नहीं देख, राजा कनकसिंह वहां से भाग खड़ा होता है। इसके बाद दीना-भद्री चौर बरेला जाकर बेगारी कर रहे लोगों से काम बंद करवा देते हैं और लोगों को बेगार खटने से छुट्टी मिल जाती है।
दीना और भद्री को जान से मारने की नीयत से बचिया तब राजा सलहेस और दीना-भद्री की आराध्य देवी बहोसरि से छलपूर्वक यह प्रतिज्ञा करा लेती है कि वे दोनों बचिया के उद्देश्य पूर्ति में सहायक बनेंगी। जब राजा सलहेस और देवी बहोसरि को पता चलता है कि बचिया ने दीना-भद्री को उनके हाथों मृत्यु का शपथ करा लिया है तो वो दोनों बहुत दुखी होते हैं। चूंकि दोनों ने प्रतिज्ञा की थी इसलिए वो दोनों दीना-भद्री को मारने के षडयंत्र में अनचाहे भी शामिल होते हैं। देवी बहोसरि दोनों भाइयों को सपने में बताती है कटैया खाप नामक जंगल में एक सुआर मरा पड़ा है। दोनों भाई उस जंगल में जाने के लिए तत्पर होते हैं। माता निरसो को ननिहाल भेजकर और अपने मामा बुहरन को साथ लेकर दीना-भद्री कटैया खाप की ओर प्रस्थान करते हैं। जंगल में बहुत तलाशने पर भी उन्हें सूअर नहीं मिलता है। बुहरन पेड़ पर चढ़कर देखता है कि दूर में एक हिरण का बच्चा है। दोनों भाई उस बच्चे के पास जाते हैं, तब हिरण का बच्चा बाघ बन जाता है और दीना-भद्री से उसकी लड़ाई शुरू हो जाती है। एक-एक करके सारा तीर खत्म हो जाता है लेकिन लड़ाई खत्म नहीं होती है। अंत में दोनों भाई उस बाघ से शारीरिक युद्ध करने लगते हैं और बाघ के शरीर को दो भागों में चीर देते हैं। तब राजा सलहेस वहां गीदड़ बनकर उपस्थित होते हैं और बाघ के अलग-अलग शरीर को एक कर देते हैं जिससे बाघ जिंदा हो जाता है।
सात दिन और सात रात युद्ध चलता है जिसके जिसमें बाघ जीत जाता है, दीना-भद्री मारे जाते हैं। जंगल में दोनों भाइयों का शव पड़ा रहता है, कोई अंतिम संस्कार करने वाला वहां नहीं है। अंतिम संस्कार नहीं होने से दोनों भाई प्रेतात्मा बन जाते हैं और अपने संस्कार की तैयारी में जुट जाते हैं। प्रेतात्मा बने दोनों भाई मुनष्य वेश धारण कर मुसहरों की बस्ती एकौशी पहुंचते हैं और बस्ती के लोगों के समक्ष जंगल में पड़े दीना-भद्री के शव का अंतिम संस्कार का प्रस्ताव रखते हैं। एकौशी के लोग दीना-भद्री के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं। तब दीना-भद्री एक फकीर का वेष धरकर अपने गांव पहुंचते हैं और एक वणिक को सारी कहानी बताते हैं। उसके बाद कफन और एवं दाह-संस्कार की अन्य सामग्रियों का प्रबंध होता है, दाह संस्कार संपन्न होता है और फिर भोज का आयोजन किया जाता है।
दीना-भद्री के प्रेतात्मा बनने के बाद अनेक छोटी-छोटी कथाएं जुड़ती हैं। लोककथा के मुताबिक दाह-संस्कार से पूर्व दीना-भद्री प्रेत योनी में समाज की भलाई के लिए अनेक लड़ाईयां लड़ते हैं और बुराई के खिलाफ उनका संघर्ष तेज होता है। जैसे, वह सबसे पहले बचिया का पीछा करते हैं। बचिया दीना-भद्री से बचने के लिए कोशी पर भाग जाना चाहती है, लेकिन दीना-भद्री उसे पकड़ लेते हैं और तलवार से उसकी गरदन काट देते हैं। उसके बाद वे राजा कनकसिंह धामि के पास पहुंचते हैं और युद्ध करके राजा और उसकी रानी को मार डालते हैं।
लोकगाथा दीना भद्री का कथानक: भाग-2
राजा कनकसिंह को मौत की घाट उतारने के बाद दीना-भद्री राजपूत जाति के सामंत जोराबर सिंह के पास पहुंचते हैं जो कुनौली बाजार का सामंत है। वह कुनौली में बसे सात सौ मुसहर परिवारों पर अत्याचार करता था, उनसे अपने खेतों में बेगारी करवाता था। यह जानकार दीना-भद्री जोराबर सिंह को युद्ध के लिए ललकारते हैं और उसे मारकर मुसहर परिवारों को उसके अत्याचार से मुक्ति दिलाते हैं।
कुनौली बाजार में एक बनिया रहता था जिसका नाम था रूपचनमा। वह बड़ा ही बेईमान और सूदखोर था। दीना-भद्री के दाह संस्कार के बाद उनकी पत्नियों हंसा और संझा (रोदना-सुधना) ने परंपरानुसार भोज-भात के लिए गांव-जवार के लोगों को आमंत्रित किया। इसके लिए दोनों गोतनी शादी के समय अपने-अपने घर से खोंइछा में मिले चावल को, जो गोंसाई के आगे रखा था, लेकर कुनौली बाजार बेचने रूपचनमा की दुकान पर पहुंची ताकि भोज का सामान खरीदा जा सके।
प्रेतात्मा बने दीना-भद्री उनकी रक्षा के खयाल से योगी का वेष धरकर उनकी पीछे-पीछे रूपचनमा की दुकान तक पहुंचकर उनसे कुछ दूर चौबटिया पर बैठ गये। हंसा और संझा रूपचनमा के सामने चावल की गठरी रखती हैं ताकि बदले में वो सामान ले सकें। रूपचनमा उन्हें औरत जानकर बेवकूफ बनाने की चालाकी करता है। वह बाट-बटखरे का खेल करके चौबीस पसेरी चावल को चौबीस सेर तौलता है। यह देखकर दोनों गोतनी छाती पीटने लगती हैं कि वे घर से तो बारह-बारह पसेरी चावल लायीं थी, वह बारह-बारह सेर कैसे हो गया?
योगी बने दीना-भद्री रूपचनमा का सारा खेल देख रहे थे। वो यह देख रहे थे कि चौबीस पसेरी को चौबीस सेर बनाने के बाद रूपचनमा कैसे हंसा-संझा को सामान देने समय आधा सेर को एक सेर बना रहा था, पचीस रुपये किलो मिर्च को पचास रुपये किलो बना रहा था।
दीना-भद्री योगीमल किरात का स्मरण करते हैं और योगीमल जब वहां प्रकट होते हैं तब उनसे रूपचनमा का सारा खेल बताते हैं। पूरी बात जानकर रूपचनमा को सबक सिखाने के लिए योगीमल अपने मंतर से मक्खी का रूप धरकर रूपचनमा के पलड़ा पर बैठ जाते हैं। रूपचनमा जब हंसा-संझा को चावल के बदले सामान देने लगता है तब दोनों पलड़ा बराबर नहीं होता है।
एक-एक करके रूपचनमा दुकान का सारा सामान पलड़े पर रख देता है और आखिरकार जब वह वह दोनों गठरियां भी पलड़े पर रखता है जिसमें हंसा-संझा चावल लायी थीं तब जाकर दोनों पलड़ा बराबर होता है। रूपचनमा इस घटना से हतप्रभ होकर बैठ जाता है और उसी समय उसकी नजर चौबटिया पर बैठे दोनों योगियों पर पड़ती है। उसे अपनी गलती का आभास होता है। वह दौड़ कर योगी के पास जाता है और अपनी गलती के लिए क्षमा मांगता है। तब योगी वेषधारी दीना-भद्री कहते हैं कि हंसा-संझा जो चावल लेकर आयी थीं,. उसके बदले उचित तौल और उचित सामान दे, तभी उसकी खैर है। रूपचनमा वैसा ही करता है और हंसा-संझा सामान लेकर घर पहुंचती हैं। इस तरह से भोज संपन्न होता है।
एक बार दीना-भद्री भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए जगन्नाथपुरी मंदिर पहुंचते हैं, लेकिन मंदिर के पुजारी उन्हें अछूत कहकर मंदिर प्रवेश से रोक देता है। दोनों भाई सात दिन सात रात मंदिर के बाहर भूखे-प्यासे पड़े रहते हैं ताकि उन्हें किसी तरह भगवान जगन्नाथ का दर्शन हो। लेकिन उन्हें दर्शन का मौका नहीं मिलता है।
थक-हारकर दोनों भाई मंदिर के आधार स्तंभ को अपनी छातियों से हिलाना शुरू करते हैं जिससे पूरा मंदिर दरकने लगता है। इस स्थिति से घबराकर भगवान जगन्नाथ दीना-भद्री के समक्ष उपस्थित हो उन्हें दर्शन देते हैं। इस दर्शन से दीना-भद्री को प्रेत योनि से मुक्ति मिल जाती है।
गाथा के मुताबिक एक अन्य प्रकरण इस रूप में सामने आता है कि दीना-भद्री मगध क्षेत्र में दो वीर पहलवान हंसराज और वंशराज से भी युद्ध लड़े और उन्हें मारकर विजयी हुए। हंसराज और वंशराज मगह के दो मुसहर भाई थे। दोनों की शक्ति का बखान इस रूप में किया जाता था कि दोनों दो कट्ठा खेत की मिट्टी देखते-ही-देखते काट लेते थे और उस मिट्टी के ढेर को टाले पर रखकर कंधे से लगाकर दौड़ जाते थे।
एक बार की बात है, मिथिला के राजा मगध गए। वहां उन्हें हंसराज और वंशराज की शक्ति के बारे में पता चला। तब उन्होंने अपने राज्य में अवस्थित नरुआर गांव में एक पोखर खोदने के लिए दोनों को बुलाया। दोनों ने पोखर खोद दिया, लेकिन पूजा-पाठ के बाद जब पोखर में जांठ (लकड़ी का स्तंभ) गाड़ने की बारी आयी, तब वे दोनों भाई जांठ को उठा तक नहीं सके।
कहा जाता है कि उस जांठ को दीना-भद्री आसानी से उठा लिया और उसे पोखर में इस तरह से फेंका कि वह पोखर के बीचों-बीच जाकर धंस गया। इस घटना से दोनों भाई अपमानित महसूस करते हैं और दीना-भद्री को युद्ध के लिए ललकारते हैं। चारों के बीच भीषण युद्ध होता है जिसमें हंसराज और वंशराज खेत रहते हैं।
दीना-भद्री मिथिलांचल के सिंहेश्वर स्थान मंदिर की पवित्रता भंग करने आये अघोरी बाबा को भी पराजित करते हैं। सिंहेश्वर स्थान महादेव का मंदर है जहां हर वर्ष विराट मेला लगता है। एक वर्ष उस मेला के समय पांचोनाथ अघोरी बाबा सिंहेश्वर स्थान मंदिर पहुंचते हैं, लेकिन तबतक मंदिर का पट बंद हो जाता है। अघोरीनाथ कहते हैं कि अगर महादेव के दर्शन नहीं हुए तब वो मंदिर को उखाड़कर फेंक देंगे। इससे बाबा सिंहेश्वर घबरा गये और उन्होंने देवताओं से मदद मांगी, लेकिन कोई भी देवता उनकी मदद के लिए आगे नहीं आया।
अंत में राजा सलहेस उनकी मदद के लिए तैयार हुए। सलहेस अघोरीनाथ के पास पहुंचे तो देखा कि बाईस कट्ठा में हाथी सदृश अघोरीनाथ सोये हैं। वो सांस छोड़ते हैं तब आस-पास का घर हवा में उड़ने लगता है। जैसे ही सलहेस उसके पास पहुंचे, अघोरीनाथ अपना सांस खींचते हैं और सांस के वेग से सलहेस उनके नथुनों में खिंचे चले जाते हैं। घबराकर बाबा सिंहेश्वर पास में पड़े पुआल के टाल में से पुआल लेकर अघोरीनाथ की नाक में ठूंस देते हैं जिससे उन्हें छींक आ जाती है और सलहेस छींक की वजह से नथुनों से बाहर आ गिरते हैं।
सिंहेश्वर बाबा को लगता है कि अब वो मंदिर नहीं जा पाएंगे, इसलिए वह सलहेस को ढांढस बंधाकर कहते हैं कि जोगिया नगर में कालू सदा के पुत्र हैं दीना-भद्री। वे हमारी मदद कर सकते हैं। वहीं चलते हैं। दोनों फिर जोगिया नगर पहुंचते हैं और दीना-भद्री से मदद मांगते हैं। दीना-भद्री, बाबा सिहेश्वर और सलहेस के साथ सिंहेश्वर स्थान पहुंचते हैं और अघोरीनाथ से घनघोर युद्ध करते हैं जिसमें अघोरीनाथ पराजित होते हैं और दीना-भद्री उनका सिर काटकर बाबा सिंहेश्वर की रक्षा करते हैं। इसके बाद दोनों भाई सशरीर अपने गांव जोगिया नगर पहुंचते हैं और माता निरसो, हंसा-संझा और ग्रामवासियों से मिलकर कटैयाघाप जंगल वापस आ जाते हैं।
एक प्रसंग के मुताबिक दीना-भद्री मकेसरनाथ के दर्शन हेतु मक्का पहुंचते हैं। कहा जाता है कि मक्का में मकेसरनाथ की पूजा होती है। वहां एक गुलामी जट भी रहता था जो बहुत ही वीर था। दीना, भद्री से कहता है कि चलो, चलकर मकेसरनाथ का दर्शन किया जाये। दोनों भाई मक्का पहुंचते हैं जहां गुलामी जट से उनकी लड़ाई होती है और जट हार जाता है।
गुलामी जट को हराने के बाद दीना-भद्री सोचते हैं कि क्यों न मकेसर नाथ को अपने साथ ले चला जाये। दीना-भद्री की मंशा जान मकेसर नाथ घबरा कर धरती में समा जाते हैं। दीना तब भद्री से कहते हैं कि मकेसर नाथ को मदीना से प्यार हो गया है इसलिए वे हमारे साथ नहीं जा सकते हैं इसलिए यहां से चलो…
तरेमे तS आव चलि गेलै बाबा / मक्का तS मदीनमा में…/ आ तरेमे समा गेलै बाबा / मक्कापुर मदीनमा में…. ।
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लोकगाथा दीना-भद्री का कथानक: भाग-1
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