लोकगाथा राजा सलहेस की साहित्यिक विवेचना

Maalin sculpture in Raja Salhesh Gahwar, ChunaBhatti, Darbhanga, Bihar © Folkartopedia library
Maalin sculpture in Raja Salhesh Gahwar, ChunaBhatti, Darbhanga, Bihar © Folkartopedia library

राम श्रेष्ठ दीवाना I संस्कृतिकर्मी और दलित चिंतक, दलित लोकगाथाओं के अध्येता और व्याख्याता, राजा सलहेस विषय पर भारत सरकार का फेलोशिप

लोक साहित्य का दूसरा नाम दलित साहित्य है और यह साहित्य दबल, भूखल, नांगट, अबला और शूद्र के आंगन से लेकर उनकी गली कूची, खेत-खलिहान में प्रेम और समानता का साहित्य है। अजय नावरिया साहित्यिक पत्रिका हंस में अपने अतिथि संपादकीय लेख में दलित साहित्य के विस्तार पर लिखते हैं कि यह अंतर्राष्ट्रीय चिन्ताओं और समाजशास्त्रीय पड़तालों (इंटरनेशनल कंसर्न एंड सोशियोलॉजिकल इनवेस्टिगेशन) का साहित्य है। (हंस, अगस्त 2004, पृष्ठ-15)

जिस तरह समाज दो वर्गों में बंटा हुआ है, उसी तरह साहित्य भी दो भागों में बंटा हुआ है। शोषक साहित्य और शूद्रका साहित्य। अर्थात् सवर्ण का साहित्य और शूद्र या अवर्ण का साहित्य। चारों वेद, रामायण, महाभारत, गीता, पुराण, मनुस्मृति आदि सवर्ण के साहित्य हैं तो चर्वाक, बुद्ध, करीब, रैदास, पलटू दास, सावित्रीबाई फूले, रामास्वामी पेरियार आदि का साहित्य शूद्र का साहित्य।

साहित्यिक पत्रिका हंस के संपादक रहे राजेंद्र यादव ने दलित साहित्य का विशेषांक अगस्त 2004 के अपने संपादकीय में लिखा कि “पिछड़ों के संगीत, नृत्य और नाटक साहित्य का अपना कोई इतिहास या शास्त्र नहीं है, ये हर रोज विकसित होने वाली परंपराएं हैं। उत्तर भारत में रामायण के बाद सबसे अधिक रूपों और भाषाओं में प्रचलित आल्हा-ऊदल और लोरिक-चंदा राम-कृष्ण कथाओं से कम लोकप्रिय नहीं हैं। मुल्ला दाऊद के चंदायन से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने पुनर्नवा में इस कथा को लिखा है। मगर बहुलांश लोक साहित्य मौखिक ही चला आ रहा है। शिष्ट और शास्त्रीय संस्कृति की एकरस जड़ता से मुक्ति के रूप में लोक का दस्तावेजीकरण और अध्ययन, स्वतंत्रता के बाद गंभीरता से किया गया है। जमीन और श्रम से जुड़ी पिछड़ी जातियों को शिष्ट संस्कृति के बीच प्रवेश और स्वीकृति इस ‘लोक’ के माध्यम से मिली। शास्त्र और लोक के बीच द्वन्दात्मक संबंध और नियंत्रित आवाज ही चली चाहे पहले से आती रही हो, शक्ति और ऊर्जा के स्रोत के रूप में इनकी पहचान नयी परिघटना है। हाशिये पर डाले गये सबाल्टर्न इतिहास की तरह। जिस तरहदलित और स्त्रियों का कोई इतिहास नहीं है उसी तरह सवर्ण कुलीन अर्थ में पिछड़ों की न अपनी संस्कृति है, न शास्त्र – उनके पास अपना कहने के लिए भेदास लोक है”।

लोक साहित्य एवं कलाओं के खिलाफ ब्राह्मणवादी सोच और साजिशों की कई बानगी मिलती है। देश और दक्षिण के प्रख्यात नाटककार गिरीस कर्नाड ने भी इन साजिशों पर चिंता जतायी। रंगमंच के जाने माने लेखक अजीत राय ने हंस में लिखा कि पिछले दो सौ वर्षों के ब्रिटिशकालीन भारत में रंगमंच, संगीत, नृत्य एवं ललित कलाओं के क्षेत्र में भूमंडलीकरण के असर की विस्तार से चर्चा करते हुए गिरीश कर्नाड ने कहा कि इसका सारा लाभ ब्राह्मण को चला गया। पिछले हजारों सालों से जिन दलित, आदिवासी, अति-पिछड़ी जातियों ने भारतीय संस्कृति की प्रदर्शनकारी एवं ललित कलाओं को बचाए रखा, नए दौर में वे ही इसके लाभ से वंचित कर दी गयीं। 19वीं सदी के नवजागरण के दौराण शहरी बुर्जुआ सवर्ण मध्यमवर्ग ने संस्कृति का नवब्राह्मणीकरण ही नहीं किया, अपना वर्चस्व भी स्थापित कर डाला। ब्राह्मणवाद का पोल खोलते हुए उन्होंने कहा – “महाराष्ट्र में पहली ड्रामा कंपनी 1880 में श्री किर्लोस्कर ने बनायी, उसके सारे सदस्य ब्राह्मण थे। 1880-84 के बीच भारतीय भाषाओं में कालीदास के नाटकों के सर्वाधिक अनुवाद हुए। आज भी रंगमंच पर ब्राह्णणों का ही वर्चस्व है। जिन दलित जातियों ने संस्कृति युग के बाद एक हजार साल से रंगमंच को बचाए रखा, वे बाहर कर दिये गये”।

मुगल काल के विघटन के बाद भारतीय संगीत का राष्ट्रव्यापी उभार हुआ। उत्तर भारत में कोठेवालियों और दक्षिण भारत में देवदासियों ने संगीत और नृत्य को बचाया। भारत में नृत्य और संगीत हमेशा पिछड़ी दलित जातियों से जुड़ा रहा। 1920 में मद्रास संगीत अकादमी ने संगीत-नृत्य को पिछड़ी-दलित जातियों से मुक्ति (शुद्धि) का आन्दोलन चलाया और ब्राह्मण स्त्रियों को प्रोत्साहित किया गया। इसी अकादमी ने देवदासी नृत्य को नाम दिया ‘भरत-नाट्यम’। रूक्मिणि देवी ने कला-क्षेत्र की स्थापना की जिसमें शिक्षक और छात्र केवल ब्राह्मण होते थे। इस प्रकार कर्नाटक संगीत और भरतनाट्यम को ब्राह्मण कला के रूप में बदल दिया गया। आज भारतीय रंगमंच, चित्रकला, नृत्य संगीत आदि के विश्व बाजार और मुनाफे पर ब्राह्मणों का वर्चस्व स्थापित हो गया है”। (हंस, अप्रैल 2006, सं-राजेंद्र यादव, लेख- अजीत राय, पृष्ठ 77-78)

गिरीश कर्नाड समेत तमाम दलित चिंतकों की उपरोक्त बातें इस वजह से भी सही जान पड़ती है कि जिन सामाजिक आर्थिक व्यवस्थाओं के खिलाफ लोक साहित्य की रचना की गयी थी, उसके मूल तत्व अब मलीन दिखते हैं तो इसकी एक बड़ी वजह अगड़ी जातियों द्वारा दलित साहित्य के नाम पर लिखी गयी तथाकथित लोक रचनाएं हैं जिसमें लोक की मूल आत्मा से ही समझौता कर लिया गया दिखता है। इस समझौते और वर्चस्व को विचारधारा के स्तर पर चुनौती देना संभव है। यह तीन स्वरूपों में हमारे पास है। इसमें पहला तो है लोक-साहित्य और लोक-संस्कृति। दूसरा है संवेदना और प्रेम और तीसरा है चर्वाक, बुद्ध, कबीर, पलटूदास, भगता सिंह, फूले, कार्ल मार्क्स और अंबेदकर के विचार-दर्शन और सिद्धांत। लोकगाथा राजा सलहेस इसका उपादान बन सकता है क्योंकि इसमें ब्राह्मणवादी मासनिकता को चुनौती देने वाले सारे तत्वों का समावेश है।

ब्राह्मणवाद से आशय क्या है इसे अंबेदकर स्पष्ट करते हैं। उन्होंने लिखा कि ‘ब्राह्मणवाद का मतलब ब्राह्मण जाति की शक्ति, विशेषाधिकारों और लाभों से नहीं है। मेरे मुताबिक ब्राह्मणवाद का अर्थ है स्वतंत्रता, समानता और बंधुता को नकारेवाला वाद। इस अर्थ में ब्राह्मणवाद उन सभी लोगों में मौजूद है जो ऊंच नीच और श्रेष्ठता-निकृष्टता में विश्वास करते हैं और यह केवल उन सब ब्राह्मण जाति विशेष के लोगों तक सीमित नहीं है जिन्होंने इस वाद को जन्म दिया है’। (पुस्तक – अम्बेदकरवाद, ले– डॉ रमाशंकर आर्य, पृष्ठ-03)  इसके विपरीत लोक साहित्य में संवेदना और प्रेम का अथाह सागर लहराता है। इसलिए हम लोक साहित्य को संवेदना और प्रेम का साहित्य कह सकते हैं। जाहिर तौर पर इसे ब्राह्मणवादी साहित्य के खिलाफ ऊंचाई दी जा सकती है ताकि ब्राह्मणवाद को चुनौती दी जा सके।     

बहरहाल, राजा सलहेस की महागाथा संपूर्ण शूद्रों की महागाथा है और इसमें लोकगाथा की सभी विशेषताएं परिलक्षित हैं। जैसे, इसके अलिखित स्वरूप का होना, संपूर्ण कथा संवाद गेय रूप में होना, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक संवादों की अल्पता और प्रेम की पराकाष्ठा का होना, महाकाव्यात्मक स्वरूप में होना, संगीत की प्रधानता होना और मुख्य रूप से इसकी चारित्रिक विशेषताओं का वैदिकवादी परंपराओं का विपरीत होना आदि। इसके साथ-साथ राजा सलहेस की महागाथा संवेदना, अनुभूति, करोड़ों दलित मजलुमों और सर्वहारा वर्ग की वर्गीय चेतना का मानवीकरण भी है जिसमें सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और लोकमनोरंजन समेत तमाम भावों के साथ-साथ प्रेम, वियोग, वीर, करुण आदि रसों की प्रधानता देखने को मिलती है।

प्रेम रस की पराकाष्ठा

राजा सलहेस लोकगाथा के प्रेम रस की पराकाष्ठा विद्यमान है। सलहेस नायक हैं। उनके चरित्र में वे सारे गुण मौजूद हैं जो महानायक में होने चाहिए। वो प्रेम के महान पुजारी हैं। मोरंगराज के राजा हिमपति की चारों बेटियां- कुसुमा दौना रेशमा और फूलवंती उनसे प्रेम करती हैं। पकड़ियागढ़ की राजकुमारी चन्द्रवाती भी उनसे प्रेम करती है। हांलाकि सलहेस का विवाह राजा विराट की बेटी सती सामर होता है। सती सामर को कहीं-कहीं सती सतवंती भी कहा जाता है। ऊधर मोरंग की मलिन बहनों ने प्रण किया था कि जब-तक परबा पोखरा में जांठ नहीं गाड़ा जाता है, वो कुमारी रहेंगी और जब सलहेस जांठ गाड़ेंगे तब वे उनसे शादी करेंगी। जब परबा पोखरि में जांठ गाड़ने के लिए यज्ञ शुरू होता है तो सलहेस मोरंग पहुंचते हैं। उस समय चारों मालिन बहनें पलंग पर सो रही थीं। सलहेस उन्हें उठाने का प्रयास करते हैं, मगर उनकी नींद नहीं खुलती है। तब सलहेस कहते हैं –

सुनु-सुनु मलिनियां तोरा कहैत छी
दिलक बतिया ककरा कहबै
केकरा कहबै के पतियेतै गे
जेकरा कहबै सेहो लतियेतै गे
माता गरभ मे जखने रहियै
तखने हम इंद्रासन गेलियै
इन्दर बाबा सं सत करेलियै
तोरे सन कनिया मंगलियै ‘गे’
माता गर्भ सं बाहर अयलि
छप्पन कोटि देब के सुमरलि
बर-बर भगति मइसौथा मे कयलि 
कमला जी में डुबकी लगेलि गे
रवि-मंगल इतवारे कयलिये
सिमरिया जाय गंगा नहलिये
काशी-प्रयाग तीरथ गेलियै
दुरगा थान दुरगा पूजलियै

कपलेसर मे कपिल बाबा पूजलिये गे
तइओ नै उठैत छै मलिनियां, मोरंग नगरिया मे हो
चलिअऊं चलिअऊं मलिनियां, परबा पोखरि के घाट पर
परबा पोखरि के यज्ञ हम करबै, मोरंग नगरिया मे हो
मनक ममोलबा पूरतै, मोरंग नगरिया मे हो

सुन-सुन मलनियां तोरा कहैत छी
परेमक बतियां केकरा कहबै?
केयो नै हमर दरद हरि लैतये
तोरा खातिर हम मइसौथा छोड़लि
सती रानिया सं नाता तोड़लि
भाय सहोदर जग मे छूटलै
माय-मंदोदरि के तकदीर फूटलै
लाज-शरण हम सब छोड़ि देलि
तोरा खातिर मोरंग अयलि
राजपाट हमर बुइर गेलै
केहन हमर दुर्दिन भेलै
कनियो ममता हमरा पर करिओ
प्रीरितक रस सं उर हम भरिओ
तखने हम अब जिन्दा रहब
नहि तS मोरंग नगर मे मरब गे

मलिनिया के प्यार में पागल सलहेस के इस गीत में उनकी आत्मा से निकली संवेदना, प्यार, अनुभूति की जितनी गहराई है उतनी गहराई अन्य लोकगाथा में नहीं दिखती है। मोरंगराज की चारों बहन मलिनियां उनके विरह में जीती-मरती हैं। मालिन जाति में जन्म लेने के बाद भी वह दुसाध सलहेस से प्रेम करती हैं। यह न केवल जाति व्यवस्था के खिलाफ है बल्कि सामाजिक जड़ता से मुक्ति और समानता का संदेश भी है। यहां मलिनियां के प्रेम की संवदेना सर्वोच्च दिखती है –

सुन-सुन पियबा तोरा कहैत छी
आब हमरा कहलो नहि जाइत अछि
बिनु कहने रहलो नहि जाइत अछि
केकरा कहबै? के पतियेतै?
जेकरा कहबै, सेहो लतियेतै
अरही वन में खरही कटलियै
बिन्दा वन बीट बांस कटलियै
हरौति बांस काटि कोरो चिरलियै
चाभ बांस काटि बती फारलियै
पाथर काटिकाय टाट लगैलियै
गेरूआ बेंत पांजर मे जोगेलियै
उल्टा मुरली सिरहन रखलियै
कौरिला तरकी कान लगेलियै
ले मंगटीका मांग सटलियै यौ
जहिना पूनम के चांद बरेयै हय
तहिना मलिनियां के ज्योति बरैए हय।

एक चुटकी सेनुर बिनु सामी धोखा देलियै
पियबा हो बिइमनमा
बर-बर आस लगैलियै मोरंग नगरिया मे
एको टा नै आस पियबा
हमरा के पूरलै हो
सुन-सुन पियबा तोरा करैत छी
सीलानाथ सिलबती पूजलियै
फूलहर मे गिरजा पूजलियै
जनकपुर मे जानकी पूजलियै
दुरगाधान दुरगा के पूजलियै
कपिलेसर मे कपिल बाबा पूजलियै
कलना मे कलेसर पूजलियै
अहिल्या थाना अहिल्या पूजलियै
तुलसी चौरा जल ढारलियै
रवि मंगल उपवास कयलियै
कमला-विमला सेहो नहलियै
सिमरिया मे डुबकी लगेलियै
हाथी चढ़िकाय गऊर पूजलियै हो
मरीच-खोटि जवानी जोगेलियै
काशी-प्रयाग तीरथ गेलियै
कमल-फूल चढ़ि अड़क-देलियै
इन्दर बाबा सं सत करलियै
सीरी सलहेस सन वर मंगलियै हो
तइओ नै बेइमनमा पियबा दरसन देलहो हो
केकरा लागि बढैलियै सामी नामी सिर केसिया
केकरा लागि पोसलियै सामी अल्प वयसवा हो
हमरा सन-सन छोट सभी सभ, भेलि लड़िकोरिया
हमरा कुरमुआ सामी, अगिया लगेलियै हो

राजा कुलेसर की बेटी चंद्रावती भी सलहेस से प्रेम करती है। राजा सलहेस लोकगाथा में एक स्थान पर दुर्गा प्रेम में डूबी चंद्रावती से कहती है कि बेटी, जिसके नाम पर तुमने अचरा बांधा है, जिसे पाने के लिए तुमने भक्ति की है वह सलहेस तुम्हारी फुलवाड़ी में आकर आराम कर रहा है, जाओ और उससे मिलो, उसे अपना बना लो। इस पर चंद्रावती दुर्गा से सलहेस के प्रति अपना प्रेम प्रकट करते हुए कहती है –

मैया गे दुरगा
कथी ला गे मैया, हमर मोन पतिअबैत छै
कथी निरमोहिया सामी, अतैय फुलबड़िया मे
तेकरे करनमा मैया, हमरा केर बतिबिअऊं गे
मैया गे दुरगा

दिन-राति बाटि जोहलि, पियबा बेइमनमा के
सेहो बेइमनमा पियबा कोना अयलै पकड़िया मे गे
नहि बहैए पूरबा गे मैया, नहि बहैए पछिया
बिनु बसात के मैया, अचरा हमर उड़लै गे
ताहि सं त मोन होइत, सामी अयलै फुलबड़िया मे गे
मैया गे दुरगा
सूखल बीरीछिया मे जल हम ढारबे
जुग-जुग ना मैया लेबऊं हम पकड़िया मे गे
ऐतबे छे अरजिया मैया, एतबे छे मिनितिया गे

प्रेम रस का एक और उदाहरण देखिये। सलहेस मलिनियां से शादी नहीं करते हैं तो उनके प्रेम में वो पागल हो जाती है। इस बीच सलहेस के छोटे भाई मोतीराम की शादी बंगाल के तीसीपुर के राजा की बेटी से तय होती है। मोतीराम की शादी के लिए सलहेस अपने भाई बंधु संग जब तीसीपुर जा रहे होते हैं तब इसकी जानकारी मलिनिया को मिलती है। मलिनिया थलही नदी के घाट पर सलहेस से मिलती है। तब मलिनिया सलहेस से कहती है-

उल्टा साड़ी मोरंग मे पेन्हलियै
लट-लट में मोती गूंथलियै
ललका टिकली लिलार मे सटलियै अओ
नाक में सोने के बुलकी पेन्हलियै
डांर डरकसना सेहो लगेलियै
अओ बारह अशर्फी के माला पेन्हलियै
बाजू बीजोटा सेहो लगलियै
गंगा-जमुनी हंसुलि पेन्हलियै अओ
करा पर के छरा लगैलियै
चानी के अनुपम पायल बजेलिय
अंखिया मे पीरितक सूरमा लगेलियै अओ
चंदन गाछक पऊआ बनेलियै
कांचे सूत सं पलंग भरलियै
पोसल जवानी सामी ला जोगेलियै अओ
फूले बिछौना गे, फूले अछौना
फूले के सेजवा सामी ला निरमेलियै
मेदनी फूल मे गांजा लेटलियै
सोने के चिलम, गे सोने के गिट्ठी
पुरना गोइठां मे आगि सलगेलियै
रेशम के साफी भिजकए रखलियै
सामी लेल पीरितक गांजा लेटलियै
सात दिन गे सात राति के
एक राति सामी लेल निरमेलियै
ऐतेय निरमोहिया दरसन देतै गे
तइओ नहि दरसनमा सामी, हमरा केर देलियै हो
मनक ममोलबा हमरा, मने हरि गेलै हो
एको रती ममता सामी, करिओ अभगलि पर हो
हमरा सन सतबरती रानी, कतऊं नहि पेयबा हो
चुनरी के दाग सामी धोबी घाट छोड़बै हो
दिलक दगिया सामी, कोना क छोड़बे हो
एकरो हलतिया बतबिअऊं, थलही नदी के धार पर हो
एतबे छै अरजिया सामी, एतबे छै मिनितिया हो

वियोग रस

लोकगाथा राजा सलहेस में वियोग के कई प्रसंग है जो मंचन के समय दर्शकों को भावविभोर कर देते हैं। उनमें से एक प्रसंग है मोतीराम और सती कुसमी के विवाह से जुड़ा हुआ। विवाह के पश्चात् मोतीराम सती कुसमी के साथ महिसौथा लौट रहे थे। तब आधे रास्ते में उन्हे शिकार खेलने का मन किया। उन्होंने कुसमी से कहा, ‘हे सती, आप बुधेसर के साथ महिसौथा जाएं, हम शिकार खेलकर चार दिन में महिसौथा लौटेंगे’। मोतीराम की बात सुनकर नवविवाहिता कुसमी के अरमान तड़प उठते हैं। वह मन-ही-मन कहती है कि मोतीराम के बिना वह महिसौथा में कैसे रहेगी। वियोग की उस वेदना की तीव्रता का वर्णन इस प्रकार है –      

पियबा हो बेइमनमा             
कोन अपराध कारने हमरा के तिआगलि पियबा हो
बर-बर आस लगेलियै, तीसीपुर बंगाल मे
बारहे बरिस सामी इन्दरासन कें पूजलियैऑ
चौहदे बरिस सामी गंगा नहलियै हो
दसे बरिस सामी तुलसी मे पानि देलियै
बर-बर भगति कइलै तीसीपुर बंगाल मे
कनिओ ने दरेग भेलो-कुसमी सतबरती पर
जइओ-जइओ जइओ सामी चंदन बन शिकरबाके
हमरा सं हाथ दोकय, दुनिया मे रहिया
मेहदी के रंग, मलिनो नहि भेलै
बिहऊंति के साड़ी बेइमनमा, डांरे मे रहलै
कोन सुरतिया लयकय, मइसौथा मे जेयबै
मैया मंदोदरि के कोना मुंह देखबै
परान हम तेजबै सामी, मइसौथा नगरिया मे
तिरिया के बध लगतौ, जाहि दिन ऐहि दुनिया मे
करजुगे मे सामी, नान नहि केयो लैते
जैइओ-जैइओ जैइओ पियबा, चंदन बन शिकरवा के
हमरा सं हाथ धोइहा, मइसौथा नगरिया मे
ऐतबे छै अरजिया सामी, ऐतबे छै मिनितियां हो SSS

वीर रस की प्रधानता

इसी तरह राजा सलहेस गाथा वीर रस के अनेक प्रसंगों से भरा हुआ है। सलहेस कई युद्द लड़ते हैं और कई प्रसंगों में उनकी वीरता का गुणगान है। कुछ प्रसंगों में वीरता को उभारा गया है। जैसे जब सती सामर से विवाह पश्चात सलहेस महिसौथा प्रस्थान करते हैं तो दिन ढलने के बाद बाराती संग सलहेस एक नदी तट पर डेरा डालते हैं। तब मलिनियां जादू के दम पर सलहेस को सुग्गा बनाकर अपने साथ ले जाती हैं। भगवती यह समाचार जिस प्रकार मोतीराम को देती है उसमें वीर रस की स्पष्ट झलक मिलती है।  

बेटा रे दलरूआ
जुलुम जाइदिन भेलै बेटा, प्रलय जाइदिन भेलै
विपतिक मोटरिया अयलै, मइसौथा नगरिया मे हो
भैया के हरन कयलको, मोरंग वाली मलिनियां
बर-बर जादूगरिनी लगैत छै, मरंग वाली मलिनियां
सात अचरा जादू मारिकय, बराती केर मयैलकै
सुग्गा बनाकय रखलकै मोतीराम, सीरी सलहेस के
बरहर सती धरबा जाहिदिन बहैत छे जंगलवा मे
ताहि कछेर पर मोतीराम, पीपर केर बीरिछिया छे
ओहि बीरिछिया पर भैया, सत नाम जपैए छो
बाज पंछी बनिकए जैयऊं, पीपर केर बीरिछिया पर
सोनमा के पिजंरबा लयकय, भगबै जंगलवा सं
तइओ नहि निदरा टूटैत, मोरंगवाली मलिनियां केर
सात अचरा निदिया छीटैत छी, मोरंगवाली मलिनियां प
एतबे छे अरजिया मोतीराम, एतबे छे मिनितया हो SSS

राजा सलहेस लोकगाथा भाव प्रधान है यह करना सर्वथा उचित है। इस लोकगाथा में कई तरह के भाव मिलते हैं जिसमें सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और लोकमनोरंजक भाव की प्रधानता है और यही लोक साहित्य या अनार्य साहित्य का मर्म भी है। चूंकि यह शूद्रों का साहित्य है, मजदूरों, किसानों, हरबाहों, चरबाहों, घसबाहों और भैसबाहों अर्थात् मेहनतकश लोगों के दुख-दर्द, उल्लास, वेदना, संवेदना और उनकी संस्कृति का लोक साहित्य है, इसी वजह से समय-समय पर यह हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकारों और कवियों को अपनी ओर आकर्षित भी करता रहा है।

हिन्दी के प्रख्यात कवि बाबा नागार्जुन ने इस लोकगाथा के प्रसंग में लिखा कि “हिन्दी प्रदेश का संपूर्ण काव्य जगत राजा सलहेस का ऋणी है जिस गाथा में साहित्य के सारे रस समाहित हैं”। इस बारे में राहुल सांस्कृत्यान ने लिखा कि “राजा सलहेस की लोकगाथा संपूर्ण भारतीय साहित्य का शिरोमणि है जिसकी चमक कभी नहीं मिट सकती है। समय के साथ इसकी ख्याति बढ़ती जाएगी”।

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