हमारे समय में मूर्तिकला का अर्थ था सिर्फ ‘पोर्ट्रेचर’। उससे आमदनी भी हो जाती थी। इसलिए मैंने भी पोट्रेट्स बनाने की शुरुआत की, 1965 में : पाण्डेय सुरेंद्र
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