आचार्य कैलाश कुमार मिश्र, संस्थापक-चेयरमैन-सीईओ, ब्रेनकोठी । वरिष्ठ कला समालोचक (लोककला) एवं ख्यातिलब्ध संस्कृतिकर्मी ।
—
बनारस अथवा वाराणसी योग, भोग और मोक्ष की नगरी के रूप में हजारों वर्ष से विख्यात है। यहां एक ओर जहां मणिकर्णिका घाट पर लोग अपने प्रियजनों के मृत शरीर का अन्तिम संस्कार करने आते है, वहीं बहुत से लोग आकर काशी वास करते हुए धर्मराज के आने का इन्तजार करते हैं। ज्ञान पिपासु विद्यार्थी यहां शास्त्री का अध्ययन करने आते हैं। वाराणसी इनके अलावा अपनी कला-संस्कृति और शिल्प के लिए भी जगत-प्रसिद्ध है, विशेष रूप से रेशमी वस्त्र, पीतल और काष्ठ कला के लिए। यहां बात वस्त्र कला की, बनारसी सिल्क की।
बनारसी वस्त्र कला एक प्राचीन और गौरवशाली परंपरा है। इस गौरवशाली परंपरा के विविध आयाम है जो कलाओं से परिपूर्ण हैं। कला मानव हृदय की कोमल अनुभूति है और विविध कलाएं मानव रुचियों एवं सभ्यता को परिष्कृत करती हैं। मानव समाज अपने रहन-सहन, वेष-भूषा, आचरण और वातावरण को अधिकाधिक कलात्मक बनाए रखने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहा है। इस कसौटी पर बनारसी वस्त्र कला सामंजस्य का भव्यतम प्रतीक है। बिनकारी कला के सम्पूर्ण सुरताल और लय इसकी बुनावट में इस तरह गूंथ दिये जाते हैं जिन्हें आखें स्पष्टतः सुनती हैं। विश्व के किसी भी वस्त्र उद्योग (कला) के पास कलाकारी का वह नाद और स्वर नहीं है जिन्हें आंखें सुन पाती हों, और बनारस के बिनकारी उद्योग से जुड़े कलाकारों के पास है।
ऐतिहासिक एवं पौराणिक उल्लेख
बनारसी वस्त्र कला का हमारे प्राचीन ग्रंथों में काफ़ी उल्लेख मिलता है। वेदों में, खासकर ऋग्वेद तथा यजुर्वेद तथा अन्य ग्रंथों में भी काशी के वस्त्रों का प्रचुर उल्लेख मिलता है। इन ग्रंथों में यहां निर्मित वस्त्रों के लिए काशी, कासिक, कासीय, काशिक, कौशेय तथा वाराणसैय्यक शब्दों का प्रयोग हुआ है। वेदों में वर्णित हिरण्य वस्त्र (किमख़ाब) भी काशी के वस्त्रों के वर्णन में प्रायः अतिविशिष्ट श्रेणी के वस्त्र के रूप में किया गया है तथा इनका प्रयोग भी समस्त भारतवर्ष में होता था। वैदिक साहित्य में बिनकारी के ओतु (बाना), तंतु (सूत), तंत्र (ताना), बेमन (करघा), प्राचीनतान (आगे खिंचवाना), वाय (बुनकर) और मयूख (ढ़रकी) जैसे शब्दों का प्रयोग मिलता है। ई.पू. का महाजनपद युग, शैथू, नागों और नंदयुग के स्रोतों और जैन सूत्रों, बौद्ध पिटकों और ब्राह्मण सूत्र में काशी के वस्त्रों के विषय में संक्षिप्त वर्णन है।
पालि साहित्य में भी काशी के बने वस्त्रों के उल्लेख हैं। इन्हें काशीकुत्त्तम और कहीं-कहीं कासीय कहते थे। काशी के वस्त्र इतने प्रसिद्ध थे कि महपारिनिर्वाण-सूत्र का टीकाकार विहित कपास पर टीका करते हुए कहते हैं कि भगवान बुद्ध का मृत शरीर बनारसी वस्त्र से लपेटा गया था और वह इतना महीन और गढ़कर बुना गया था कि तेल तक नहीं सोख सकता था। इसी तरह मज्झिमनिकाय ग्रंथ में बनारसी कपड़े के बाटीक पोत का उल्लेख वाराणसैय्यक नाम से है। इस ग्रंथ का टीकाकार बनारसी वस्त्र की प्रशंसा करता है। उनके अनुसार काशी का कपास अच्छा होता था, वहां की कत्त्तिनें और बिनकर होशियार होते थे और वहां का नरम पानी (शायद गंगाजल) धुलाई के लिए बहुत अच्छा होता था। ये वस्त्र ऊपर और नीचे से मुलायम और चिकने होते थे।
महापरिनिब्बाणसूत्त में कही-कहीं काशी के हिरण्य वस्त्र (किमख़ाब) का भी उल्लेख आता है। दिव्यावदान ग्रंथ में रेशमी वस्त्र के लिए पट्टंशुक, चीन, कौशेश् और धौत पट्ट शब्दों का व्यवहार हुआ है। धौत पखारे हुए रेशम के वस्त्रों को कहते हैं। दिव्यावदान में बनारसी वस्त्रों के लिए काशिक, काशी तथा काशिकॉसु इत्यादि शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। काशीक वस्त्र सूती भी हो सकते थे क्योंकि प्राचीनकाल में बनारस तथा इसके आसपास बहुत अच्छी कपास पैदा होती थीं और यहां की कत्तिनें बहुत महीन सूत कातती थी।
जरी का काम
जैन ग्रंथ जैवूद्वीप प्रज्ञप्ति में जण्णग (दरजी) पट्टगार (रेशमी कपड़े बुनने वाले) तथा तंतुवाय (बिनकर) को शिल्पियों की श्रेणी में रखा गया है। इसके अतिरिक्त कार्यासिक (कपास बेचने वाले), सौत्रिक (सूत बेचने वाले) तथा दौष्यिक (बजाज) का भी सामाजिक जीवन में सम्मान-पूर्ण स्थान था। जातक कथाओं से पता लगता है कि बिनकारी में सभी वर्गों के लोग लगे हुए थे। रेशमी-वस्त्र बुनने वालों को पट्टगार तथा अन्य बिनकारों को तंतुवाय कहा जाता था। कालान्तर में पट्टगार के लिए पटुवा शब्द प्रयोग होने लगा और उसके बाद पटुवा समूह जाति में बदल गया। इसके समर्थन में हमें पट्टा (रेशमी कपड़े बूनने वाला) पट्टंथुक (रेशमी वस्त्र) जैसे शब्द भी मिलते हैं। बनारसी वस्त्र कला का एक नाम पाटेश्वरी है जिसका अर्थ है बिनकरों द्वारा उत्पन्न लक्ष्मी। पटुवा जाति के लोग निरन्तर इस व्यवसाय में लगे रहे। ये लोग बिनकारी के अलावा माला एवं जेवरों की गुंथाई तथा कसीदाकारी के काम में भी प्रवीण थे। भारत में मुगलों के आगमन के बाद काफ़ी उथल-पुथल हुई तथा अनेक समूह इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो गये। पटुवा जाति का भी एक बड़ा हिस्सा इस्लाम में परिवर्तित हो गया। काशी में अभी भी कुछ पटुवा परिवार हैं। बनारसी वस्त्रों के ऊपर सुनहली और रूपहली मनमोहक कलाकारी ने मुगल बादशाहों का मन आखिरकार मोह ही लिया। उन्होंने उसे आगे बढ़ाने में काफी दिलचस्पी भी ली। बादशाहों की विशेष पसंद हो जाने के कारण इसमें मुगल शैली का भी समावेश होने लगा। विशेषकर ईरान के दक्ष कलाकारों ने इसमें विशेष रुचि लेकर यहां की कलाकारी में अपनी कला का सामंजस्य किया। मुगल शैली की बनारसी बिनकारी की लोकप्रियता का सबसे प्रमुख आधार इसकी कला है। परिवर्तन के अनगिनत दौर से गुजरने के बाद भी बनारस में बिनकरों की संख्या दिनानुदिन बढ़ती ही जा रही है।
बिनकर और बिनकारी
बिनकर सामान्यतया बड़े एवं संयुक्त परिवार में रहते हैं और इस कला में लोग बचपन से ही लग जाते हैं। कला की जटिलता इतनी है कि अगर बचपन से ही इस पर ध्यान न दिया जाए तो फिर इसे सीखना मुश्किल हो जाता है। इसमें परिवार के सभी लोग बच्चे-बूढ़े, जवान, औरत और मर्द लगे रहते हैं। सभी लड़के-चाहे वे स्कूल जाते हो या न जाते हों – बिनकारी दस से बारह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ कर देते है। पांच से छह वर्ष का प्रशिक्षण (जो घर में ही मिल जाता है) के बाद एक बच्चा एक कुशल बिनकर के आधे के आसपास कमाई कर लेता है और अगले दो से चार वर्ष में वह पूर्ण कारीगर बन जाता है एवं पूरी कमाई करने लगता है। महिलाएं सामान्यतया बिनने का कार्य नहीं करती हैं, परन्तु अन्य मदद जैसे धागे को सुलझाना, बोबिंग में डालना, चर्खा पर तैयार करना इत्यादि करती हैं। इसीलिए बिना औरत के बिनाई लगभग असम्भव-सा लगता है। जब एक बच्चा इस कला को सीखना प्रारंभ करता है तो सामान्यतया वह बुटी काढ़ने का या ढ़रकी को फेकने का कार्य करता है। इसीलिए उसे बुटी कढ़वा या ढ़रकी फेकवा भी कहा जाता है। जब एक बिनकर अपनी कला में समग्रता के साथ पारंगत हो जाता है तब उसे गीरहस्ता (प्रमुख बिनकर) कहकर पुकारा जाता है।
बिनकारी में प्रयुक्त माप और उपकरण
माप:-
बनारसी में बिनकारी गज के हिसाब से होती है, जिसमें –
16 गीरह का एक गज होता है,
4 अंगुली का एक गीरह होती है,
1 गीरह में सवा दो ईंच होता है,
17 गीरह की एक फन्नी होती है। फन्नी की साइज पर पनहा निर्भर करता है। पहना वास्तव में साड़ी की चौड़ाई या अर्ज को कहते हैं। भरुई की फन्नी परम्परागत फन्नी है जो अब लुप्तप्राय है।
उपकरण:-
साठा: यह भरुई की फन्नी का आधार होता है जो लकड़ी से बना होता है।
सीक: सीक नरकट से बना होता है। नरकट को सीक की तरह बनाकर चौड़ाई में डाला जाता है। भरुई के फन्ने के सीक की चौड़ाई लगभग 3 ईंच होती है।
वेवर: भरुई के फन्नी के दोनों छोर पर लोहे की सींके (आकृति एवं आकार समान) लगी होती हैं, जिन्हें वेवर कहा जाता है।
गेवा: सींक को पारम्परिक तथा प्रचलित भाषा में गेवा कहा जाता है। साड़ी के पनहे के दोनों हिस्सों को ठोस तथा मजबूती देने के लिए लोहे का गेवा दिया जाता है। गेवा दो प्रकार का होता है –
सींक का गेवा और लोहे का गेवा
हत्था: फन्नी के फ्रेम को हत्था कहा जाता है, अर्थात् फन्नी हत्थे में लगी होती है। हत्था लकड़ी का बना होता है।
तरौधी: हत्थे के नीचे के भाग को तरौधी कहा जाता है। हत्थे और तरौधी के अन्दर वाले भाग में एक नाली खुदी होती है जिसमें फन्नी बैठी होती है।
खड्डी: खड्डी जमीन में गड़ी होती है, जिस पर हत्था खड़ा होता है। अर्थात् हत्था खड्डी के ऊपर खड़ा होता है। खड्डी लकड़ी की बनी होती है जो दो खूंटे पर खड़ी होती है। इसमें खड्डीदार सीकी बनी होती है, जिसके बेस पर लकड़ी का माला लगा होता है।
गेठुआ: इसे गेठवा, गेतवा, गेठुआ या गेतवा भी कहा जाता है। यह लकड़ी की कांटी और नायलोन के धागे से बना जाला होता है। कई वर्ष पूर्व जब नायलोन का प्रचार-प्रसार नहीं हुआ था, तब वाराणसी के बिनकर सूती धागों का ही गेठुआ बनाया करते थे। हालांकि आजकल सूती गेठुआ कही भी व्यवहार में नहीं लाया जाता है।
पौंसार: पौंसार कारखाने में पैर के पास लगा होता है। सामान्यतः बेलबूटे पर चार पौंसार होते हैं जिसमें दो दम्मा का पौसार तथा दो मशीन का पौसार होता है। मशीन के पौसार को जब दबाया जाता है तब यह नाका उठाता है, जबकि दम के पौंसार दबाने से यह तानी उठाता है।
सिरकी: यह बांस का बना होता है, तथा इसका उपयोग ज़री तथा कढ़ाई बनाने के लिए किया जाता है।
नौलक्खा (बोझा): पौसार दबाने पर नाका या तानी ऊपर की ओर उठता है जिससे कपड़े की बिनाई तथा कढ़ाई की प्रक्रिया चलती रहती है। नाका या तानी ऊपर की ओर उठने के बाद यह जरूरी है कि वह फिर अपने पूर्व स्थान पर यथावत आ जाए और कहीं फंसे भी नहीं। इसके लिए कारखाने में एक वजन दोनों तरफ दो-दो कर डाल दिया जाता है, जिसे नौलक्खा या बोझा कहते हैं। पहले नौलक्खा कुम्हार की मिट्टी को पकाकर सुन्दर आकृति में बनाता था। हालांकि आजकल इसके बदले ईंटा या बालू के बोझ का भी प्रयोग किया जाता है।
पटबेल: आंचल की दोनों पट्टी को पटबेल कहा जाता है।
लप्पा: लप्पा करघे के सबसे ऊपरी भाग को कहते हैं। लप्पा बांस या लकड़ी के चार टुकड़े से बनाया जाता है। बांस या लकड़ी के टुकड़े को आरी-तिरछी रखकर उस पर रखा जाता है। यहां के लोग जैक्वार्ड को अपनी भाषा में मशीन कहते हैं। लप्पा लकड़ी या बांस के टुकड़े को ही कहते हैं।
मशीन का डन्डा: यह जैक्वर्ड मशीन का डंडा होता है। मशीन का डंडा लकड़ी से बना होता है। हरेक डंडे में दो छेद किया जाता है जिन्हें दो लकड़ियों के बीच नट तथा बोल्ट से कस दिया जाता है।
मांकड़ी: मांकड़ी लप्पे के ऊपर होता है। यह डंडानुमा आकृति का होता है। मांकड़ी से वय की गठुआ उठता है।
चिड़ैया (चिड़ई का डंडा): जिस डंडे से जकार्ड मशीन के स्लाइड को उठाया जाता है उसे चिड़ैया या फिर चिड़ई का डण्डा कहा जाता है। चिड़ैया नीचे की ओर मशीन पर हमेशा झुका हो इस ख्याल से लोहे के प्लेट से इसे बांध दिया जाता है। मशीन के डण्डे का पिछला हिस्सा एक डोरी द्वारा नीचे कारखाने में एक लीवर द्वारा कसा होता है जिसको पैर से दबाने से मशीन अपना कार्य शुरु कर देता है।
वस्त्र बनने से पूर्व की प्रक्रिया
किमखाब कढ़ाई: बनारस में रेशम के धागे सर्वाधिक कर्नाटक राज्य के बंगलौर शहर से आता है। बाजार के दुकानदारों, गीरस्ता (भीहस्ता) तथा बुनकरों से सम्पर्क के दौरान यह पता चला कि बनारसी साड़ी में प्रयुक्त होनेवाले 75 से 80 प्रतिशत रेशमी धागे कर्नाटक से ही आते हैं। हालांकि जम्मू और कश्मीर, पश्चिम बंगाल (मालदा), बिहार (चाईबासा तथा संथाल परगना) इत्यादि जगहों से भी थोड़ी बहुत मात्रा में कच्चा रेशमी धागा मंगाया जाता है।
इक्के-दुक्के नामी-गरामी गीरस्ता तथा कोठीदार मनमाफिक आर्डर के बेशकीमती तथा नफीसी बनारसी साड़ी बनाने के लिए चीन, जापान, कोरिया इत्यादि देशों से भी रेशम के धागे को आयात करते हैं। चूंकि आयात की प्रक्रिया जटिल है तथा यह काफी मंहगा भी पड़ता है, अतः सामान्य गीरस्ता तथा कोठीदार एवं बिनकर इन आयातित रेशमी धागों से साड़ी नहीं बनाता।
पुराने बिनकरों, गीरस्तों तथा कोठीदारों से विस्तृत बातचीत के दौरान यह तथ्य उभर कर हमारे सामने आया कि आजादी के पूर्व बनारस में अधिकांश कच्चे रेशमी धागे कश्मीर, चीन, जापान, कोरिया तथा बंगलादेश (ढाका) एवं पश्चिम बंगाल से मंगाये जाते थे।
कतान: यहां रेशम में ‘मलवरी’ रेशम का प्रयोग किया जाता है। मलवरी रेशम 2 प्लाई टवीस्टेड यार्न होता है जिसे बनारसी या यों कहें कि बिनकारी की भाषा में ‘कतान’ कहा जाता है। कतान एक किलो के लच्छा या गुण्डी में रहता है। इसे साबून और पानी डालकर भट्टी में डि-गमड (गोंद तथा चिपचिपाहट रहित) किया जाता है और अन्ततः ब्लीच किया जाता है। डिगम्ड बहुत ही उच्च ताप पर किया जाता है। डिगमींग तथा ब्लीचिंग की प्रक्रिया पूर्ण हो जाने पर कतान के गुच्छे को रंगरेज को रंगने के लिए दिया जाता है। रेशमी धागों को रंगना भी एक जटिल प्रक्रिया है साथ-ही-साथ यह महंगी भी है।
डिगमींग का काम भी सारे लोग नहीं करते हैं। कुछ खास परिवार इस कला में पारंगत होते हैं। डिगमींग के बाद सूत के लच्छे के वजन में लगभग 250 ग्राम तक की कमी आ जाती है। एक किलो का लच्छा घटकर 750 ग्राम तक हो जाता है। रंगने की प्रक्रिया भी सभी बिनकर स्वयं नहीं करते हैं। हालांकि ज्यादेतर गीरस्ता स्वयं ही लच्छे को रंगकर फिर बिनकर को बिनने के लिए देते हैं। अगर बिनकर स्वतंत्र है तो वह फिर स्वयं या किसी डायर से गुच्छे को इच्छित रंग में रंगवा लेता है।
रंगाई की प्रक्रिया समाप्त हो जाने पर गुच्छे को बोबिन बाइन्डर से सुलझाया जाता है (या फिर यों कहें कि बोबिन में लपेटा जाता है)। उसके बाद ताना बनाया जाता है। एक ताने की लम्बाई सामान्यतया 25 मीटर की होती है, जिससे चार साड़ी आसानी से बनाया जा सके। ताना बनाने का काम बिनकर स्वयं करता है, किन्तु अगर ताने में विभिन्न रंगों के धागे का प्रयोग करना हो (किसी ख़ास डिजाइन के लिए), तो पुराने ताने में नए रंगीन ताने को डालने का काम बिनकर स्वयं नहीं करता है, बल्कि जो इसके विशेषज्ञ होते हैं, उनकी सहायता ली जाती है।
ताना बनाकर फिर उसके एक-एक ताग को सुलझाकर लपेटन में लपेट लिया जाता है। ताना बन जाने पर फिर उसे हथकरघे पर बैठा दिया जाता है। साथ ही साथ इच्छित डिजाईन जिसे कपड़े पर उतारना है, नक्शेबन्द से बनवाया जाता है। नक्शेबन्द के डिजाइन जो ग्राफ पेपर पर बना होता है, के आधार पर डिजाइन की पट्टी कुट पर जेक्वार्ड कार्ड पंचर द्वारा छेद किया जाता है। अन्त में जक्वार्ड से जाला को ठीक से सजाया जाता है। हरेक ताने को जाले से टांक दिया जाता है। उसके बाद बिनने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
मोटिफ
बूटी – बूटी छोटे-छोटे तस्वीरों की आकृति लिए हुए होता है। इसके अलग-अलग पैटर्न को दो या तीन रंगो के धागे की सहायता से बनाये जाते हैं। यह बनारसी साड़ी के लिए प्रमुख आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण आकृतियों में से एक है। इससे साड़ी की जमीन या मुख्य भाग को सुसज्जित किया जाता है। पहले रंग को ‘हुनर का रंग ‘ कहा जाता है, जो सामान्यतया गोल्ड या सिल्वर धागे को एक एक्सट्रा भरनी से बनाया जाता है। हालांकि, आजकल इसके लिए रेशमी धागों का भी प्रयोग किया जाता है जिसे मीना कहा जाता है। सामान्यतया मीने का रंग हुनर के रंग का होने चाहिए। बूटी निमन प्रकार का बनाया जाता है:-
कैरी बूटी (आम के आकृति की बूटी)
लतीफा बूटी (प्रकृति के सौन्दर्य से प्रभावित)
असर्फी बूटी
रुद्राक्ष बूटी
चने के पते की बूटी
‘गंगा जमुना’ या ‘सोना-रूपा’ बूटी
बूटा: जब बूटी के आकृति को बड़ा कर दिया जाता है, तो उसे बूटा कहा जाता है। छोटे हरे पेड़-पौधे जिसके साथ छोटी-छोटी पत्तियां तथा फूल लगे हों, इसी आकृति को बूटे से उभारा जाता है। गोल्ड, सिल्वर या रेशमी धागे या इनके मिश्रण से बूटा काढ़ा जाता है। रंगों का चयन डिजाइन तथा आवश्यकता के अनुसार किया जाता है। बूटा साड़ी के बॉर्डर, पल्लव तथा आंचल में काढ़ा जाता है जबकि ब्रोकेड के आंगन में इसे काढ़ा जाता है। कभी-कभी साड़ी के किनारे में एक खास तरह के बूटे को काढ़ा जाता है, जिसे यहां के लोग अपनी भाषा में कोनिया कहते हैं। बूटा आमतौर पर निम्न प्रकार का होता है:-
कैरी बूटा
‘लतीफा’ बूटा
‘शिकारगाह’ बूटा
‘गंगा जमुना’ बूटा
‘पान’ बूटा
कोनिया: जब एक ख़ास आकृति के बूटे को बनारसी वस्त्रों के कोने में काढ़ा जाता है, तो उसे कोनिया कहते हैं। आकृति को इस तरह से बनाया जाता है जिससे वे कोने के आकार में आसानी से आ सकें तथा बूटे से वस्त्र और अच्छी तरह से अलंकृत हो सके। जिन वस्त्रों में स्वर्ण तथा चांदी धागों का प्रयोग किया जाता है, उन्हीं में कोनिया को बनाया (काढ़ा) जाता है। आमतौर पर कोनिया काढ़ने के लिए रेशमी धागों का प्रयोग नहीं किया जाता है, क्योंकि उससे फूल-पत्तियों का डिजाइन सही ढ़ग से नहीं उभर पाता। कोनिया निम्न प्रकार का बनाया जाता है:-
शिकारगाह कोनिया
कैरी कोनिया
कलंगा कोनिया
पान-पत्ती कोनियां
बेल: यह आरी या धारीदार फूल-पत्तियों को ज्यामितीय ढंग से सजाए गए डिजाइन होते हैं। इन्हें क्षैतिज, आड़ें या टेड़े-मेड़े तरीके से बताया जाता है, जिससे एक भाग को दूसरे भाग से अलग किया जा सके। कभी-कभी बूटियों को इस तरह से सजाया जाता है कि वे पट्टी का रूप ले लें। भिन्न-भिन्न जगहों पर अलग-अलग तरीके के बेल बनाए जाते हैं। बेल को निम्न प्रकार का बनाया जाता है:-
पटबेल
आरी-बेल
एकहारी बेल
दोहरी बेल
लहरिया बेल
गुबेल
जाल और जंगला
जाल: जैसे नाम से ही स्पष्ट होता है जाल के आकृति लिए हुए होते हैं। जाल एक प्रकार का पैटर्न है, जिसमें बूटी को साड़ी में सजाया जाता है।
जंगला: यह शब्द संभवत: जंगल से बना है। जंगला आकृति प्राकृतिक तत्वों से काफ़ी प्रभावित है। जंगला कतान और ताना का प्लेन वस्त्र होता है जिसमें समस्त फूल, पत्ते, जानवर, पक्षी इत्यादि बने होते हैं। जंगला जाल से काफ़ी मिलता जुलता होता है। बनारसी वस्त्र में प्रयुक्त होने वाले जंगले:-
फूलदार जाल
अंगुर की बेल का जाल
मीनादार जाल
सीधी पत्ती का जाल
लट्टरिया पत्ती का जाल
जरी जाल।
झालर: बॉर्डर के तुरंत बाद जहां कपड़े का मुख्य भाग, जिसे अंगना कहा जाता है, की शुरुआत होती है वहां एक ख़ास डिजाइन वस्त्र को और अधिक अलंकृत करने के लिए बनाया जाता है। इसे झालर कहते हैं। यह बॉर्डर की डिजाइन के रंग तथा उसके मटीरियल में मिलता होता है। आमतौर पर बनाए जाने वाले झालर हैं:-
चिरैतन झालर
तीन पत्तियां झालर
सलाइदार
लटरिया पैटर्न
चरखाना
दो थप्पा
फुलवारी
पत्तीदार
कला को जीवित रखने की विवशता
पहले शुद्ध सोने तथा चांदी से जरी बनाया जाता था। अतः जब साड़ी पहनने लायक नहीं भी रहती थी तो उसे जलाकर अच्छी मात्रा में सोना या चांदी इकट्ठा कर लिया जाता था। यकायक 1977 में चांदी के भाव बहुत चढ़ गये। चढ़े भाव में चांदी से जरी बनाना बड़ा ही महंगा साबित होने लगा। इसका नतीजा यह निकला कि साड़ी की कीमत काफी बढ़ गयी और लोग साड़ी खरीदने से कतराने लगे। ऐसा लगने लगा मानो अब बनारसी बिनकारी लगभग समाप्त ही हो जाएगी।
यह भी एक संयोग ही था कि लगभग उसी समय गुजरात के शहर सूरत में नकली जरी का निर्माण प्रारंभ हो गया था। नकली जरी देखने में बिलकुल असली जरी के जैसी ही थी, परन्तु इसकी कीमत असली जड़ी के दसवें हिस्से से भी कम पड़ती थी। कुछ बिनकरों ने इस नकली जरी का प्रयोग किया और वह प्रयोग सफल रहा। धीरे-धीरे असली जरी का स्थान नकली जरी ने ले लिया। इससे साड़ी की मांग पुनः बाजार में जोर पकड़ ली। बुनकर बिरादरी फिर अपनी ढ़रकी और पौसार की आवाज में मस्त होकर बिनकरी के पेशे में तल्लीन हो गयी। वे नकली जरी के कार्य में इतना खो गए कि धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि असली जरी का नामो- निशान मिट जाएगा।
इसी बीच 1988-989 में कुछ लोगों (भारतीय रईस वर्ग) तथा विदेशियों ने बनारसी साड़ी तथा वस्त्र में असली जरी लगवाने की इच्छा व्यक्त की। इसलिए वह काम भी धीमा-धीमा जारी रहा। वर्तमान में कुछ बिनकर पहले से दिए गए ऑर्डर के वस्त्रों तथा साड़ियों में ही असली जरी लगाते हैं। हालांकि, असली जरी का प्रयोग बहुत ही कम होता है, फिर भी परम्परा जीवित है।
—
Other links:
वाराणसी की ताम्रकला: डॉ. कैलाश कुमार मिश्र
—
Disclaimer: Write-up partially edited. The opinions expressed within this article or in any link are the personal opinions of the author. The facts and opinions appearing in the article do not reflect the views of Folkartopedia and Folkartopedia does not assume any responsibility or liability for the same.
Folkartopedia welcomes your support, suggestions and feedback.
If you find any factual mistake, please report to us with a genuine correction. Thank you.
Tags: Banarasi Silk, Narendra Modi Varanasi, Varanasi industry, Varanasi Silk, Varanasi weavers, काशी नरेंद्र मोदी, बनारस नरेंद्र मोदी, बनारसी जरी, बनारसी बिनकारी, बनारसी रेशम, बनारसी रेशम उद्योग, बनारसी सिल्क, बिनकारी, बिसमिल्ला काशी