पत्थरकट्टी: पाषाण शिल्प, परंपरागत डिजाइन और कच्चा माल के स्रोत
1940-70 के दशक में पत्थरकट्टी के शिल्पी क्या तराश रहे थे, उनके डिजाइन क्या थे, जरूरत का कच्चा माल कहां से आता था और उपकरण क्या थे, डालते हैं उन पर एक नजर –
1940-70 के दशक में पत्थरकट्टी के शिल्पी क्या तराश रहे थे, उनके डिजाइन क्या थे, जरूरत का कच्चा माल कहां से आता था और उपकरण क्या थे, डालते हैं उन पर एक नजर –
पत्थरकट्टी का इतिहास भले ही समृद्ध दिखता हो, 1940 के दशक तक आते-आते कलाकारों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी थी। वो किसी भी हाल में जयपुर लौट जाना चाहते थे।
पूर्णिया के ग्रामीण क्षेत्रों में मृत्तिका उत्कीर्णन मुख्यतः महिलाओं के द्वारा किये जाते हैं जिन्हे स्थानीय लोग ‘लिखनी-पढ़नी’ या ‘चेन्ह-चाक’ कहते हैं। उनके मोटिव्स के अपने सांकेतिक अर्थ हैं।
This article traces the documentation of ritual wall paintings by Maithil Brahmans and Kayasthas through the collecting practices of private individuals, libraries and others.
“बनारसी वस्त्र कला सामंजस्य का भव्यतम प्रतीक है। बिनकारी कला के सम्पूर्ण सुरताल और लय इसकी बुनावट में इस तरह गूंथ दिये जाते हैं जिन्हें आखें स्पष्टतः सुनती हैं।”
देश-विदेश में मशहूर वाराणसी की ताम्र-कला से जुड़े कलाकारों की लगभग 75 से 80 फीसदी आबादी काशीपुरा मुहल्ले की तंग गलियों में रहती है जिनकी रोजाना आय करीब 100 रु. है।
डॉ. ग्रियर्सन ने 1881 में इंट्रोडक्शन टू द मैथिली लिटरेचर ऑफ नॉर्थ बिहार, क्रिस्टोमैथी एंड वोकैबुलरी पुस्तक लिखी, जिसमें पहली बार राजा सलहेस की चर्चा मिलती है।
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