पत्थरकट्टी,1940–1970: परंपरा और परिस्थितियों के बीच फंसा पाषाण शिल्प

One of the senior most stone carvers of Pathatkatti, Gaya Shri Manohar Lal Gaur.  Photo credit: Tanay Pathak
One of the senior most stone carvers of Pathatkatti, Gaya Shri Manohar Lal Gaur. Photo credit: Tanay Pathak

सुनील कुमार I फोकार्टोपीडिया
कला लेखक एवं शोधार्थी । लोक कलाओं के अध्ययन में विशेष रुचि ।

फोकार्टोपीडिया पर प्रकाशित आलेख पाषाण शिल्पियों का विशिष्ट गांव, पत्थरकट्टी: संक्षिप्त इतिहास और सामाजिक तानाबाना में पत्थरकट्टी के संक्षिप्त इतिहास की चर्चा की गयी है कि किस प्रकार पत्थरकट्टी का इतिहास पूर्व मध्यकाल से जुड़ता प्रतीत होता है। वहां ऐसे अनेक अवशेष मिले हैं जिससे वहां मुसलमानों के आगमन के पूर्व खादानों की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। इसलिए यह विशद शोध का विषय है कि क्या 18वीं शताब्दी में पत्थरकट्टी एकाएक पाषाण शिल्प के बड़े केंद्र के रूप में उभरा या वहां प्रस्तर शिल्प की परंपरा पूर्व मध्यकाल में पाल कालखंड या उससे पूर्व भी तलाशी जा सकती है। प्रश्न यह भी उठता है कि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से पत्थरकट्टी को किस प्रकार देखा जाये, प्रस्तर आपूर्ति केंद्र के रूप में या प्रस्तर-मूर्तियों के उत्पादन केंद्र के रूप में। यह भी संभव है कि पत्थरकट्टी दोनों ही रूप में समान रूप से महत्वपूर्ण रहा हो। इस परिपेक्ष्य में यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि गया और राजगीर के आसपास का क्षेत्र नव-पाषाणकालीन एवं ताम्र-पाषाणकालीन पुरास्थलों से भरा पड़ा है, जहां बेसाल्ट पत्थरों के फलक मिलते हैं जबकि उन इलाकों में बेसाल्ट पत्थरों की उपस्थिति नहीं है। यह संभव है कि उन फलकों को तैयार करने के लिए पत्थर पत्थरकट्टी से लाए गये हों। गया के पास ही बराबर की पहाड़ियां है जहां मौर्यकालीन गुफाएं मिली हैं। उन पहाड़ियों में ग्रेनाइट की उपस्थिति है।

इनके अलावा पत्थरकट्टी पूर्व मौर्यकालीन संचार-मार्गों से भी जुड़ा था। बोधगया पुरातात्विक संग्रहालय में बतौर सहायक अधीक्षक पुरातत्वविद के रूप में जुड़े शंकर शर्मा के मुताबिक, पत्थरकट्टी धार्मिक संचार मार्ग और नगरीय या व्यापारिक संचार मार्ग, दोनों मार्गों पर अवस्थित था। प्राचीन भारत का एक धार्मिक मार्ग गया, राजगीर, नालंदा नवादा के रास्ते पार्श्वनाथ की तरफ जाता था। यह मार्ग हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के लिहाज से महत्वपूर्ण था। पत्थरकट्टी एक दूसरे मार्ग पर भी अवस्थित था जो पूर्व मौर्यकालीन शहरों को जोड़ता था। वह मार्ग पूर्व में चंपा से होते हुए राजगीर, बोधगया, पचाड़ की पहाड़ी और कैमूर के रास्ते उत्तर-पश्चिम में काशी की तरफ जाता था। यह संभव है कि इन्हीं रास्तों के जरिये पत्थरकट्टी से बेसाल्ट पत्थर पाल कालखंड के उन कार्यशालाओं में भी पहुंचाये जाते रहे हों, जहां मूर्तियां तराशी जाती थीं।

पत्थरकट्टी को उस कालखंड से जोड़ पाना पुरातात्विक अन्वेषणों और उसके मानकों की कसौटी पर परखने से ही संभव है, लेकिन इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि पाल कालखंड में बड़ी संख्या में बनने वाली बेसाल्ट प्रस्तर की मूर्तियों के लिए प्रस्तर उनकी कार्यशालाओं में पत्थरकट्टी से पहुंचाये गये हों। कुरी सराय, कुर्कीहार आदि के क्षेत्रों में भी बेसाल्ट प्रस्तर की मूर्तियों का निर्माण किया जा रहा था जबकि उन इलाकों में बेसाल्ट पत्थरों की उपस्थिति नहीं है। शंकर शर्मा इस संभावना से इनकार नहीं करते हैं कि पत्थरकट्टी तब न केवल प्रस्तर मूर्तियों का उत्पादन केंद्र रहा होगा बल्कि वहां से बेसाल्ट पत्थरों की आपूर्ति कुरी सराय, कुर्किहार एवं अन्य स्थानों पर की जाती रही होगी, जहां कार्यशालाएं थीं। इस क्षेत्र में दो ही स्थानों पर बेसाल्ट पत्थरों की उपस्थिति है, पत्थरकट्टी और राजमहल की पहाड़ियां। इसकी एक और वजह थी, नालंदा, जो तब ज्ञान-विज्ञान का महत्वपूर्ण केंद्र होने के साथ-साथ कला-संस्कृति का भी महत्वपूर्ण केंद्र था और जहां अनेक कार्यशालाएं एवं ढलाईखाने थे।

नालंदा के पास ही में नवादा पड़ता है जहां अपसढ़ में गुप्तकालीन रामायण का एक पैनल मिला है जो चूना पत्थर का बना है। हालांकि, नवादा के अनेक गावों में ऐतिहासिक महत्व की मूर्तियां बिखरी हुई हैं जो ग्रेनाइट और बेसाल्ट पत्थरों से बनी हैं। राजगीर के पहाड़ पर भी बेसाल्ट पत्थर की मूर्तियां मिली हैं। इनमें से किसी भी स्थान पर बेसाल्ट पत्थर की उपस्थिति नहीं है। इसलिए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उपरोक्त सभी स्थानों पर पत्थरकट्टी से बेसाल्ट पत्थर और उसकी मूर्तियां पहुंचायी गयी होंगी और पत्थरकट्टी तब बेसाल्ट पत्थर की मूर्तियों के उत्पादन का एक बड़ा केंद्र रहा होगा। गौरतलब है कि कुरी सराय और कुर्कीहार में डेबिटाज नहीं के बराबर मिलते हैं जबकि पत्थरकट्टी में वह भारी मात्रा में मिलते हैं। डेबिटाज वे बेकार पत्थर होते हैं जो मूर्तियों को गढ़ने के क्रम में बेकार बच जाते हैं। साथ-ही-साथ यह भी बताते चलें कि गया के कुरी सराय, विष्णुपुर, नालंदा में तेलिया बाबा स्थान और जगदीशपुर के पास रुक्मिनी स्थान में भूमिस्पर्श मुद्रा में बुद्ध की आठ फीट की प्रतिमा मिली है जिसे बेसाल्ट के एकाश्मक पत्थर को तराशकर बनाया गया है। बहरहाल, शोध का विषय यह भी है कि इतने विशाल प्रस्तर या प्रस्तर की मूर्तियां पत्थरकट्टी से अन्य स्थानों तक पहुंचायी कैसे गयी होंगी।

मध्यकाल की शुरुआत में जब मुसलमानों का प्रभाव इस क्षेत्र में बढ़ा, तब देवी-देवताओं की मूर्तियों का निर्माण बंद करा दिया गया हो, इसकी पूरी संभावना है, जिसके बाद पाषाण शिल्पी स्थानीय खपत की लिहाज से प्रस्तर-पत्रों का निर्माण जारी रखे हुए थे। इसी वजह से पत्थर के खादान कभी बंद नहीं हुए। इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि 18वीं सदी में जब गौड़ ब्राह्मण शिल्पी जयपुर से वहां पहुंचे, तब बेसाल्ट पत्थरों की खादानें वहां मौजूद थीं और उन्हीं खादानों से पत्थर निकालकर उनके पूर्वजों ने विषणुपद मंदिर का पुनर्निमाण किया और स्थानिक खपत के लिए प्रस्तर-पात्र बनाने की परंपरा को जारी रखी। तब प्रस्तर का काम करने वाले शिल्पियों को संगतराश कहा जाता था। यह शब्द आज भी प्रचिलत है और मुस्लिम शासनकाल में पाषाण शिल्पियों के लिये प्रयोग किया जाने वाला यह एक बहुप्रचलित शब्द था। पत्थरकट्टी के ख्यातिलब्ध शिल्पी रवींद्रनाथ गौड़ अपने संकलन के पत्थर के अनेक पात्र दिखाते हैं जिन्हें उनके परिवार ने पीढ़ियों से संभालकर रखा है। इन धारणाओं, मान्यताओं और उपलब्ध साक्ष्यों से पत्थरकट्टी के इतिहास को वर्तमान से जोड़ने में मदद मिलती है।  

गया के अतरी क्षेत्र में अवस्थित पत्थरकट्टी गांव को बसाने का श्रेय इंन्दौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर को जाता है। 1763 से 1794 के बीच अहिल्याबाई होल्कर ने अनेक हिन्दू मंदिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार कराया जिनमें बनारस का काशी-विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर और गया का प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर प्रमुख हैं। विष्णुपद मंदिर के पुनर्निमाण के लिए अहिल्याबाई होल्कर के कहने पर करीब 1300 गौड़ ब्राह्मण शिल्पी जयपुर से गया आए और पत्थरकट्टी में बसे। मंदिर र्निमाण के बाद कुछ शिल्पी वापस जयपुर लौट गये और कुछ पत्थरकट्टी में ही स्थायी रूप से बस गये। अहिल्याबाई होल्कर के गुजरने के बाद पत्थरकट्टी के पाषाण शिल्पियों को अटारी महाराज एवं उनके समक्षक अन्य राजाओं, जमींदारों का संरक्षण मिला और यह संरक्षण बीसवी सदी के पूर्वार्ध तक जारी रहा।

पत्थरकट्टी के पाषाण शिल्पी तब न केवल पत्थर की छोटी-छोटी मूर्तियां बना रहे थे, प्रस्तर-पात्र भी बना रहे थे। जैसे – कप-प्लेट, गिलास, कटोरे, थालियां आदि। धार्मिक मूर्तियों में विष्णु, शिव और पंचदेव की मूर्तियां प्रमुख थीं। इनकी खपत स्थानीय बाजार के साथ-साथ पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और राजस्थान में थी। 1930 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन तेज होने और 1939 में विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद किंचित कारणों से मूर्तियों एवं प्रस्तर-पात्रों का बाजार तेजी से गिरा जिससे 1940 के दशक के अंत तक उनकी स्थिति अत्यंत नाजुक हो गयी। इस स्थिति का फायदा उन व्यापारियों ने उठाया जो उनसे मूर्तियां एवं पात्रों को खरीदकर बेचा करते थे। गया के खुदरा विक्रेता शिल्पकारों को उनकी लागत मूल्य से भी कम मूल्य पर सामान बेचने के लिए विवश करने लगे थे। नतीजतन, पत्थरकट्टी के शिल्पियों ने एक-एक करके मूर्तियां गढ़ना बंद कर दिया। 1947-48 में गया के बाजार में प्रस्तर के सिर्फ दो उत्पाद उपलब्ध थे। एक, खरल-मूसल जिसका उपयोग जड़ी-बूटियों को पीसने या कूटने के काम में किया जाता था और दूसरा, शिवलिंग की छोटी-बड़ी मूर्तियां। अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों से बेहाल शिल्पकारों ने तब स्थानीय प्रशासन से गुहार लगायी कि उन्हें कुछ रुपयों की मदद दी जाये ताकि वे जयपुर लौट सकें, जहां से अहिल्याबाई होल्कर उन्हें लेकर आयी थीं।

गौड़ ब्रह्मण पाषाण शिल्पियों के पलायन का यह तीसरा दौर था। 17वीं सदी के मध्य में मुस्लिम शासकों से प्रताड़ित होकर उन्होंने बंगाल से जयपुर पलायन किया था। 18वीं सदी के उत्तरार्ध में अहिल्याबाई होल्कर के कहने पर वे जयपुर से गया आये थे और अब उन्हें फिर जयपुर लौटने के लिए विवश थे। शिल्पियों की गुहार से चिंतित तत्कालीन जिलाधिकारी जे.सी. माधुर (15.08.1947 – 09.04.1949) ने उन्हें पुनर्वास और पाषाण शिल्प उद्योग को खड़ा करने में मदद देने का भरोसा दिलाया और फौरी मदद के तौर पर शिल्पियों को 32 बोरी गेहूं दिये, जिसकी चर्चा 1961 की जनगणना रिपोर्ट में भी की गयी है।

जे.सी. माथुर ने जाने-माने कलाकार और उद्योग विभाग (हस्तशिल्प), बिहार सरकार के उप-निदेशक उपेंद्र महारथी से तकनीकी सलाह और सहयोग की मांग की और दोनों ने पत्थरकट्टी में डेरा जमाकर शिल्पियों की परेशानियों को सुना और उनकी समस्याओं के निवारण की योजना बनायी जिसमें डिजाइन और तकनीकी मदद पहुंचाने, पत्थर उपलब्ध कराने और तैयार शिल्प के विपणन में मदद भी शामिल था। स्थानीय प्रशासन ने उन योजनाओं पर अमल किया जिससे शिल्पियों को राहत मिली। दूसरा महत्वपूर्ण प्रयास 1952 में हुआ, जब भगवानदास गौड़ के नेतृत्व में पाषाण शिल्पियों ने ‘पाषाण कलाकार सहयोग समिति’ बनायी। भगवानदास गौड़ इस समिति के पहले अध्यक्ष बने। सहयोग समिति बनने से पाषाण शिल्पियों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ क्योंकि समिति को अपने बनाये शिल्प का मूल्य तय करने का अधिकार था। इससे लगभग सात वर्ष तक समिति से जुड़े कलाकारों को अच्छा मुनाफा हुआ। समिति ने गया के पंचमहल इलाके में अपनी एक दुकान भी बनायी थी। इस बीच शिल्पियों के बच्चों को प्रस्तर-पात्र एवं मूर्तियां बनाने के लिए उद्योग विभाग ने स्थानीय डाकबंगला में ‘ट्यूशन क्लास’ शुरू किया। ओडिशा के प्रसिद्ध मूर्तिकार ई. डंकन को ट्यूशन क्लास का पहला प्रशिक्षक नियुक्त किया गया। उन्होंने न केवल परंपरागत तरीके से बन रही मूर्तियों में नये डिजाइन शामिल किये, बल्कि नये उत्पादों को बनाने के लिए भी कलाकारों को प्रोरित किया। यथा – ऐश-ट्रे, पेपर-वेट, कप, फूलदान आदि। उनके नेतृत्व में बुद्ध, लक्ष्मी, सूर्य, सरस्वती और भगवान शिव की मूर्तियां बनीं और उन्होंने प्राचीन मूर्तियों की प्रतिमूर्तियां बनाने के लिए कलाकारों को प्रोत्साहित किया। इस समेकित कोशिश का परिणाम यह हुआ कि पत्थरकट्टी के पाषाण शिल्प की मांग कलकत्ता, देवघर, अलीगढ़, बनारस, लखनऊ, हरिद्वार से लेकर मद्रास तक होने लगी।

1959-60 तक सहकारी समिति अच्छे से चली और फिर आपसी मतभेदों का शिकार होती चली गयी। समिति के नियम के मुताबिक, शिल्पियों को अपने उत्पाद वाजिब दर पर समिति को देने थे। समिति उनका विपणन करती और मुनाफे का बंटवारा होता था। पचास के दशक के अंत में समिति के प्रभावशाली सदस्यों ने इसमें घालमेल किया। उन्होंने अपने बनाये उत्पादों को महंगी दर पर सीधे खुदरा व्यापारियों को बेचना शुरू किया जिससे समिति में दरार पड़ गयी। इसी समय ‘हंसदेव पाषाण कलाकार फंड’ बना। फंड निकट परिवारों के चंदे से बना था जिसका मकसद उन शिल्पियों को वर्किंग कैपिटल मुहैया कराना था जो पाषाण कलाकार सहकारी समिति के सहयोग के बगैर गया के व्यापारियों को अपना सामान बेचना चाहते थे। इससे शिल्पियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ी। फंड को गया के खुदरा व्यापारियों ने भी बढ़ावा दिया ताकि समिति के महत्व को घटाया सके। उन्होंने फंड से जुड़े शिल्पियों को भेदभावपूर्ण तरीके से ऋण दिये और उनके उत्पादों को अपनी खर्च पर पत्थरकट्टी से मंगाना शुरू किया। इससे शिल्पी माल ढुलाई के खर्च से भी मुक्त हो गये। इसका परिणाम हुआ कि शिल्पी फंड की तरफ ज्यादा आकर्षित हुए और 1961 में सहयोग समिति ने दम दोड़ दिया। इसके बाद खुदरा व्यापारी धीरे-धीरे मनमानी पर उतर आये और शिल्पकार धीरे-धीरे पूर्व की बदहाल स्थिति में आने लगे।

1961 में पत्थरकट्टी के 1226 पाषाण शिल्पियों में 141 गौड़ ब्राह्मण शिल्पी थे जो 27 परिवारों के सदस्य थे। उनमें 69 पुरुष और 72 महिलाएं थीं। मुख्य रूप से पुरुष शिल्प को गढ़ने का काम करते थे और महिलाएं कुछ हद तक पॉलिश के काम में उनकी मदद किया करती थीं। सभी 27 परिवारों के अपने घर थे। घर का दरवाजे आमतौर पर गांव के बीचो-बीच गुजरते रास्ते की तरफ खुलते थे। हर घर में सड़क की तरफ एक दालान होता था जो सड़क की तरफ खुला रहता था। दालान की मध्य दीवार पर घर के भीतर जाने का प्रवेश द्वारा होता था। ये दालान ही शिल्पकारों का कार्यशाला था।  इनके अलावा तब 51 कार्यशालाएं ऐसी भी थीं जहां अलग-अलग परिवारों के पुरुष शिल्पी एक साथ बैठकर काम करते थे, हालांकि ऐसी कार्यशालाओं में अमूमन निकट संबंधी शिल्पी होते थे। तब जिन शिल्पियों की कार्यशालाएं महत्वपूर्ण मानी जाती थीं, उनमें धन्नालाल गौड़, तुलसीराम गौड़, शिवरथ गौड़, भगवान दास दौड़ शामिल हैं। आमतौर पर इन शिल्पियों के कार्यशालाओं में प्रस्तर-पात्र बना करते थे। कार्यशालाओं में प्रयुक्त उपकरणों पर सान चढ़ाने के लिए तब गांव में सिर्फ तीन भट्ठियां थीं जो तुलसीराम, छोटू राम और हरिप्रसाद गौड़ की कार्यशाला में थी। इन भट्ठियों का इस्तेमाल सामूहिक रूप से होता था।

गोविंदलाल गौड़, रामनिवास गौड़ और रामनारायण गौड़ 1960-70 के दशक में उन ख्यातिलब्ध शिल्पियों में थे जिन्हें ग्रेनाइट की मूर्तियों को गढ़ने में विशेषज्ञता हासिल थी। आमतौर पर शिव-पार्वती, सरस्वती, नटराज, गणेश, बुद्ध, पंचदेवता आदि की मूर्तियां मुख्य रूप से इनके द्वारा ही गढ़ी जाती थीं। पंचदेवता की मूर्ति आमतौर पर एक ग्रेनाइट की एक पैनल पर बनायी जाती थी और कई बार उन्हें अलग-अलग भी बनाया जाता था, जिसमें महादेव (शिवलिंग स्वरूप), पार्वती, गणेश, कृर्तमूर्त या कार्तिकेय और नंदी को साकार किया जाता था। गोविंदलाल गौड़ को तब नटराज की एक मूर्ति बनाने के लिए राज्य पुरस्कार के सम्मानित किया गया था। इनके ठीक बाद की पीढ़ी में नंदलाल गौड़, माधवलाल गौड़, रामनाथ गौड़, मोतीलाल गौड़, छोटूलाल गौड़ और हीरालाल गौड़ जैसे शिल्पकार शामिल हैं। इन कलाकारों में अब सिर्फ नंदलाल गौड़ जीवित हैं और जयपुर में रहते हैं।

पत्थरकट्टी के लिए 1970 का दशक महत्वपूर्ण है। 1972 में नवादा के गठन के बाद उसके पहले जिलाधिकारी नरेंद्र पाल सिंह ने पत्थरकट्टी के पाषाण शिल्प को एक बड़े उद्योग के रूप में देखा और उसके विकसित करने की कोशिश की। इसी समय पहली बार गांव में भारतीय स्टेट बैंक की शाखा खोली गयी ताकि पाषाण शिल्पियों को आसानी से ऋण मिल सके। नरेंद्र पाल सिंह के स्थानांतरण और 1981 में उपेंद्र महारथी के असामायिक निधन से पत्थरकट्टी के पाषाण शिल्प को धक्का लगा। यह वही दौर था जब बिहार में नक्सली गतिविधियां तेज थीं और पत्थरकट्टी उससे अछूता नहीं था। दबंगों ने भी बची-खुची खादानों पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया था जिससे शिल्पियों की स्थिति लगातार खराब होती चली गयी। वर्तमान पीढ़ी के वरिष्ठ कलाकारों ने सत्तर के बाद के दशक को जीया है और उनके मुताबिक पत्थरकट्टी में पाषाण शिल्पियों के लिए स्थिति कभी अच्छी बन ही नहीं पायी। लिहाजा, एक-एक कर गौड़ शिल्पी पलायन करते चले गये। एमएसएमई डिजाइन क्लिनिक स्कीम, 2013 के तहत उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान द्वारा जमा की गयी नीड एसेसमेंट सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, पत्थरकट्टी में सिर्फ चार गौड़ ब्राह्मण पाषाण शिल्पी परिवार बचे थे और जहां तक हमारी जानकारी है, अब परिवारों की संख्या सिमटकर सिर्फ तीन रह गयी है।

Quotes:

पथरकट्टी पर व्यापक शोध की आवश्यकता है। पाल कालीन मूर्तियों के लिए यहीं का पत्थर इस्तेमाल हुआ। हालांकि पाल कालीन मूर्तियां कसौटी पत्थर की नहीं, बल्कि फायलट पत्थर से बनी है। मैंने पाल कालीन मूर्तियों के पत्थर का पेट्रलॉजिकल जांच कराई है। इसके लिए पत्थर दो खदानों से निकाले गए थे। एक, जमालपुर के समीप मतादिह खदान और दूसरा, पथरकट्टी खदान। तब लगभग 50 सैंपल की जांच कराई गई थी जिसमें पता चला कि मूर्तियां फायलट पत्थर की बनी हैं।

अरविंद महाजन, उप-सचिव, संग्रहालय निदेशालय, बिहार सरकार.

References:

Personal interview with Ravindranath Gaur, Sunil Kumar, 2018, Patharkatti, Gaya.
Need Assessment Survey Report, MSME Design Clinic Scheme, 2013, Upendra Maharathi Shilp Anusandhan Sansthan, Patna.
Census of India, 1961, Volume IV, Bihar, Craft Survey Report: Stoneware Craft of Patharkatti Village (District Gaya)
Shankar Sharma, Assistant Superintending Archaeologist, Bodh Gaya Archaeological Museum

Other links

Photo Documentation: Patharkatti, Village of Stone Carvers, Gaya, Bihar
पाषाण शिल्पियों का विशिष्ट गांव, पत्थरकट्टी: संक्षिप्त इतिहास और सामाजिक तानाबाना
पत्थरकट्टी: पाषाण शिल्प, परंपरागत डिजाइन और कच्चा माल के स्रोत

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