भारतीय किसान संस्कृति का एक अजीब एवं महत्वपूर्ण पक्ष है – भित्ति चित्र एवं मृत्तिका उत्कीर्णन कला, जो सदियों से गांवों के घरों की दीवारों पर बनते चले आ रहे हैं। यह बहुमूल्य परंपरा आज भी एक जीवंत कलाकृति के रूप में भारत के विभिन्न प्रांतों में हो रहा है। इसका एक प्रमुख क्षेत्र भारत का उत्तर पूर्वी प्रान्त बिहार भी है। बिहार का नाम आते ही भारत की सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और ज्ञान चिंतन सामने उपस्थित हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे शौर्य, नीति, धर्म, कला, विवेक, मर्यादा, संस्कृति, स्थापत्य, आदि सबों का केंद्र यहीं था। भारत के इतिहास में बिहार का यथेष्ट गौरव है। क्या धार्मिक क्या आध्यात्मिक क्या राजनीतिक और क्या कला एवं संस्कृति सभी दृष्टि से यह काफी पहले से समुन्नत है। यह बिहार के ऐतिहासिक सांस्कृतिक वैभव और धरोहर की बातें हैं।
इससे इतर बिहार की संस्कृति का एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है, जिसका भारत तो क्या, बिहार के इतिहास लेखन में भी समुचित रूप से उल्लेख नहीं है। हर तरह की संस्कृति, साहित्य, रीति-रिवाज़ तथा शास्त्रीय कलाओं का इतिहास लिखा जा चुका है और इससे सारा जग परिचित है, किन्तु अभिजात्यता तथा अपनी संस्कृति को भूल बाहरी संस्कृति के आकर्षण के कारण यहां की ग्रामीण संस्कृति का एक मूल्यवान अंश अछूता ही रह गया है। यह बिहार की सभी महत्वपूर्ण कला एवं संस्कृति का उद्गम स्थल है। वह है यहां की ‘कुटीर सज्जा’। ऐसी बात नहीं हैं कि इसका उल्लेख बिलकुल ही नहीं हुआ है। लेकिन, अभी तक वह उल्लेख उनके महत्वों तथा गुणों की तुलना में नगण्य ही कहा जा सकता है।
कृषि प्रधान राज्य होने के कारण बिहार में गांवों की संख्या ज्यादा है। हालांकि, यहां के गांव किसी और प्रांतों के गांवों से ज्यादा अलग तो नहीं हैं परन्तु कुछ हद तक भौगोलिक स्थिति, धार्मिक तथा सामाजिक संस्कार और आर्थिक तथा राजनीतिक कारणों से थोड़ा अलग तो हैं ही। हर एक गांव की सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था एक-दूसरे से भिन्न है जिसकी वजह है अलग-अलग जाति के लोगों का अलग-अलग क्षेत्र विशेष में वास करना। उनके खान-पान, रीति-रिवाज में भी अंतर है। इसी प्रकार उनके हस्तशिल्प एवं कलाकर्मों में भी विभिन्नता है।
बहरहाल, मैं यहां बिहार के एक सीमावर्ती क्षेत्र पूर्णिया के गांवों की कुटीर सज्जा पर चर्चा करना चाहूंगा। यूं तो गांवों में घरों को सजाने के लिए विभिन्न तरह के माध्यमों का व्यवहार किया जाता है किन्तु मैंने जिस विषय का चयन किया है, वह है मिट्टी के घरों की सजावट के लिए बनायी गयीं मिट्टी की उत्कीर्ण कलाकृतियां, यानी मृत्तिका उत्कीर्णन। पूर्णिया के ग्रामीण क्षेत्रों में मृत्तिका उत्कीर्णन मुख्यतः महिलाओं के द्वारा किये जाते हैं जिन्हे स्थानीय लोग ‘लिखनी-पढ़नी’ या ‘चेन्ह-चाक’ कहते हैं। परम्परागत चमत्कृत मोटिव, जिनके कुछ सांकेतिक अर्थ भी होते हैं, उन्हें दीवारों पर उकेरे जाते हैं। यह विरल प्रतिभा प्रायः सभी संप्रदाय के ग्रामीण शिल्पियों में जन्मजात रूप से है।
पूर्णिया नेपाल तथा बंगाल से सटा एक सीमावर्ती जिला है। यह इस जिले के पुराने नाम ‘पुरैनिया’ का अपभ्रंश रूप है। अब यदि हम इसके गांवों की तरफ नज़र डाले तो यहां के गांवों का ढांचा क्रमश: परिवर्तित होता रहा है। पहले अक्सर सभी जातियों के लोग एक साथ एक ही गांव में रहते थे। धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि तथा आर्थिक सम्पन्नता के साथ-साथ जाति के आधार पर गांव अलग होते गए। फलतः अब एक गांव में एक ही जाति के लोगों की संख्या ज्यादा होती है। अन्य जाति के लोग उनके अधीन आश्रय लेने या जीवन निर्वाह के लिए आस-पास बस जाते हैं या फिर अपनी सुविधा के लिए बसा लिए जाते हैं। इस तरह से एक मुख्य गांव के आस-पास कई छोटे-छोटे गांव बसे हुए हैं। इन गांवों का बुनियादी ढांचा आर्थिक तथा जाति के आधार पर टिका है न कि सांस्कृतिक आधार पर।
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About The Author:
संजय सिंह
वरिष्ठ कलाकार एवं शोधार्थी, मैथिली में ऑनर्स, शांति निकेतन से कला शिक्षा, पूर्णिया के मृत्तिका उत्कीर्णन पर शोध, देश विदेश की गैलरियों एवं निजी संग्रहों में चित्र।
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First published: 07 August 2020
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