
डा. राखी कुमारी, असिस्टेंट प्रोफेसर, ग्राफिक्स, कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स, पटना विश्वविद्यालय, पटना।
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भगवान बुद्ध एवं भगवान महावीर की जन्मस्थली बिहार में कला की समृद्ध परम्परा रही है, चाहे वह लोक हो या आधुनिक कला। सभ्यता की पहली किरण भी यहीं से प्रस्फुटित हुई है। यही कारण है कि बिहार दुनिया के मानचित्र पर एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बिहार की राजधानी पटना एक ऐतिहासिक शहर है। पटना कई नामों से जाना जाता रहा है, यथा – पाटलिपुत्र, पाटलि, पाटलिग्राम, कुसुमपुर, पुल्पपुर, पुष्पावती, श्रीनगर आदि।
इतिहास गवाह है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने शासनकाल में पाटलिपुत्र में एक भव्य राजप्रसाद बनवाया था जो स्थापत्य कला का उत्कृष्ठ नमूना था। मेगस्थनीज (यूनानी राजदूत) के अनुसार यह नगर चतुर्भुजाकार था जिसकी लम्बाई नौ मील और चैड़ाई डेढ़ मील थी। नगर के उद्यान और भवन अत्यधिक कलात्मक थे। एक यवन पर्यटक ने लिखा है, ‘‘यहां का राज-प्रसाद सूसा और एक बतना में बने पारसी सम्राटों के महल से अधिक सुन्दर था‘‘।
मध्यकाल में बिहार की कला-संस्कृति पर मुगलों का प्रभाव देखने को मिलता है। सन् 1586 में पटना पहुंचे पहले अंग्रेज यात्री राल्फ पिच लिखते हैं, ‘यह एक व्यावसायिक नगर है जो गंगा नदी के किनारे स्थित है और यहां के दैनिक जीवन में कला के साथ शिल्पों का भी प्रयोग देखने को मिलता है।
सत्रहवीं शताब्दी में बिहार ईस्ट इण्डिया कम्पनी, डच, चीनी, पुर्तगालियों के लिए भी प्रमुख व्यावसायिक केंद्र था और पटना उसका मुख्यालय। पटना में एक व्यापारी थे, जिनका नाम हीरानन्द साहा था। कई देशों के साथ उनका व्यापार था। लोग उन्हें जगत सेठ के नाम से भी जानते थे। जगत सेठ का कला से विशेष लगाव था। इनके दरबारी चित्रकार भी थे जो इनके दरबार, गलियारे, बैठकखाने आदि को सजाते थे। यहां के नवाब और जमींदार भी कला प्रेमी थी। वे चित्रकारों से अपने पूर्वजों, अपना और अपने प्रियजनों के चित्र बनवाते थे। अन्य विषयों पर भी यहां चित्रांकन की परम्परा थी। ब्रिटिश अधिकारी भी अपनी वीरता, लडाई, युद्ध के चित्र बनवाना पसन्द करते थे। धीरे-धीरे यहां की कला पर कम्पनी शैली का प्रभाव पड़ने लगा।
औरंगजेब के शासनकाल में कला की उपेक्षा की गयी। राजाश्रय के अभाव में चित्रकार यत्र-तत्र प्रस्थान कर अपने जीविकोपार्जन का जुगाड़ करने लगे। सन् 1790 में चित्रकारों का एक दल जीवकोपार्जन के उद्देश्य से मुर्शीदाबाद से बिहार पहुंचा। वे यहां के जमींदार घराने टेकारी, आरा, बेतिया, पूर्णियां, गया, डुमराव, जसीडीह, दरभंगा से जुड़ गये। उनका एक बड़ा दल पटना सिटी में बस गया। उनमें से ज्यादातर चित्रकार वैष्णव कायस्थ थे। ये चित्रकला में पारंगत तो थे ही, परिश्रमी और कुशाग्र बुद्धि के भी थे। अधिकतर चित्रकारों ने अंग्रेजों की संगत में रहकर अंग्रेजी बोलना और लिखना भी सीख लिया था। इन कलाकारों ने जिस शैली को जन्म दिया उसे पटना कलम के नाम से जाना जाने लगा। पटना कलम को कंपनी शैली भी कहते हैं क्योंकि इन चित्रों को कम्पनी अधिकारियों के द्वारा बनवाये जाते थे।
पटना कलम के चित्रों के खरीददार दो प्रकार के थे, एक पटना के धनाढ्य रईस तथा दूसरे थे विदेशी व्यापारी। रईसों की पसन्द व्यक्ति चित्र और फूलों तथा पक्षियों के चित्रों की थी। विदेशी खरीददारों की पसन्द भारतीय संस्कृति तीज-त्योहार, वेश-भूषा, परम्परा रीति-रिवाज तथा कुटीर उद्योग-धंधा से अधिक थी। इसका कारण यह भी था कि वे यहा की गरीबी, व्यावसायिक दुर्दशा को दिखाकर भारत पर ब्रिटिश शासन और प्रभुत्व के महत्व को उजागर करना। अतः चित्रकार बाजार की मांग के अनुरूप चित्रों का निर्माण करते थे और मुख्य खरीददार के रूप में विदेशी व्यापारी, अफसर तथा लेखकों का समूह सामने आ रहा था।
पटना कलम के चित्रकार अपनी तूलिका बनाने में काफी परिश्रम करते थे। वे गिलहरी की पूंछ अथवा ऊंट, सूअर, हिरण आदि के बालों को काटकर उबालते थे। फिर उसे कबूतर या चील के पंखों में बाँधकर तूलिका बनाते थे। पटना कलम के कलाकार रंग स्वयं बनाते थे और इसे बनाने में काफी वक्त लगता था। यही वजह है कि एक-एक चित्र बनाने में छह महीने तक का समय लग जाता था। वे सफेद रंग काशगरी मिट्टी और सीप को जलाकर, पीला रंगा रामरस से, लाल रंग लाह, सिन्दूर, सिंगरफा और गेरू से, नीला रंगा नीला और लाजु पत्थर से और कालिख से काला रंग बनाते थे। आज भी उन रंगों की ताजगी हम चित्रों में देख सकते हैं।
पटना कलम के चित्रकार रेखांकन के लिए चितेरों की मदद नहीं लेते थे। वे तूलिका से कागज पर सीधे चित्र बनाते थे। चित्रों में तूलिका के ‘स्ट्रोक्स‘ से हम कलाकारों को पहचान सकते हैं। चित्रों में सोने का प्रयोग भी किया जाता था। चित्रकार रंग में गोंद का प्रयोग करते थे, जिससे चित्रों का आकर्षण बढ़ जाता था।
पटना कलम के चित्रों का वर्गीकरण
विषय-वस्तु के आधार पर पटना कलम के चित्रों को छह भाग में बांटा जा सकता है:-
(1) दैनिक जीवन, उद्योग-धंधों (व्यवसाय) पर आधारित चित्र। जैसे- धोबी, कसाई, कुली, कहार, नौकरानी, पीलवान, मेहतर, दरबान, डाकिया आदि
(2) मांगलिक पर्व, त्योहार और उत्सवों के चित्र। जैसे- पालकी, डोली, दीवाली, होली, दाह संस्कार, नृत्य-संगीत आदि
(3) मुखाकृति (शबीह) चित्रण
(4) वस्तु-चित्रण, दृश्य चित्र और स्थापत्य कला के चित्र
(5) पशु-पक्षी और
(6) अलंकारिक, सुलेख कला
पटना कलम के चित्रकारों ने कागज, अभ्रक और हाथी दांत को चित्रों का माध्यम बनाया। अभ्रक पर प्रायः जनजीवन के ही चित्र देखने को मिले हैं और हाथी दांत पर अधिकतर प्रोट्रेट ही बनाये गये थे। उस समय पर्दा प्रथा थी। अतः संभ्रांत और कुलीन स्त्रियों के चित्र देखने को नहीं मिलते। स्त्रियों के जो चित्र मिले हैं, वे संभवतः नृत्यांगनाओं और रूप जीवाओं के चित्र हैं जिन्हें रईस वर्ग अपने वैभव के प्रतीक के रूप में रखते थे।
पटना कलम के चित्र बाजार और मूल्य पर आधारित थे। इसलिए चित्रों में अनावश्यक प्रयोग नहीं मिलता है। यहां तक कि फूलों और पक्षियों के चित्रण में भी अधिक आवश्यकता होने पर मात्र एक टहनी बना दी जाती थी। स्पष्ट है कि मुगलकालीन चित्रों के प्राण, यानी बैकग्राउण्ड, लैंडस्केप, वे पटना कलम के चित्रों में गायब दिखती हैं। पटना कलम के चित्रों को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि मुगलकालीन शाही चित्रों की विरासत लिए इन चित्रकारों ने कितनी तत्परता से मध्यकालीन रूढ़ियों को तोड़ दिया। कहां दरबारी शानो-शौकत, शिकार-युद्ध, राग-रागिनी, बारहमासा का चित्रण हो रहा था और कहां ये चित्रकार पटना आकर सामान्य जन-जीवन का चित्रण करने लगे।
पटना कलम के चित्रों ने भारतीय कला को एक नई दिशा दी और स्वतंत्र चित्रकला की शुरुआत हुई। चित्रकला को राजकीय संरक्षण के दासत्व से मुक्ति मिली। फलस्वरूप स्वतंत्र चित्रकारिता ने स्वदेशी और राष्ट्रीयता की भावना को न केवल पोषित किया, बल्कि स्वतंत्र भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई।
पटना कलम के प्रमुख कलाकार
1. सेवक राम (सन् 1770-1830) – सेवक राम पटना कलम के प्रथम कलाकार माने जाते हैं। ये बनारस के राजा के दरबारी चित्रकार थे, परन्तु आश्रयदाता और अपने पूर्वजों की मृत्यु के बाद पटना आकर बस गये। ये तूलिका से रेखांकन करते थे, जिसे मुगल शैली में स्याह कलम कहा जाता था। इनके प्रमुख चित्र हैं – सामान बेचता लाला, दर्जी, मछली बेचने वाला, फल बेचने वाला आदि। सेवक राम फरमाइशी शबीह भी बनाते थे।
2. हुलास लाल (सन् 1785-1875) – मुगल चित्रकार मंसूर की तरह हुलास लाल भी पशु-पक्षियों के चित्रण में माहिर कलाकार थे। इनके चित्रों में मुगल और कंपनी शैली का मेल स्पष्ट नजर आता है। (चित्र रचना प्रक्रिया मुगल शैली की तरह और प्रकाश-छाया का चित्रण कंपनी शैली के समान) इनके चित्रों में सेवक राम जी का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। इनके प्रमुख चित्र हैं – एक मैना, अकेली चिड़िया फूल की डाली पर, दो चिड़िया एक डाल पर, तोता आदि।
3. जयराम दास (1795-1880) – जयराम दास ‘‘स्याह कलम” के माहिर चित्रकार थे, जो मात्र काली रेखाओं से चित्रांकन करते थे। इन्हें माइका पर भी चित्रकारी में महारत हासिल थी। इनके बने चित्रों का प्रयोग मोहर्रम पर ताजिया सजाने में होता था।
4. फकीरचन्द लाल (सन् 1790-1865) – पटना के लोदी कटरा इलाके में फकीरचन्द लाल की एक विख्यात कार्यशाला थी जहा लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस और मुर्शीदाबाद से कला के छात्र शिक्षा लेने आते थे। ये स्याह-कलम के चित्र बनाते थे जो रेखा प्रधान थे। शबीह चित्रण और व्यवसाय के चित्र भी ये बखूबी बनाते थे। इनके चित्र इंडियन आफिस लाइब्रेरी, लंदन में संग्रहित हैं।
इसके अतिरिक्त शिवलाल साहिब (सन् 1817-1887), महिला कलाकार दक्षो बीबी एवं सोना बीबी, शिवदयाल लाल (सन् 1850-1887), बहादुर लाल (सन् 1890-1942), ईश्वरी प्रसाद वर्मा (सन् 1870-1950) आदि पटना कलम के कलाकार थे।
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References:
1. बिहार इतिहास एवं संस्कृति – प्रमोदानन्द दास/कुमार अमरेन्द्र लुसेन्टस प्रकाशन, पृष्ठ सं. 269-270.
2. पटना कलम – श्याम शर्मा, डाॅ. सुधाकर शर्मा, सचिव, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पृष्ठ सं. 65, 68, 70, 72.
3. सौ साल में बिहार – श्याम शर्मा, शिक्षा विभाग, बिहार, पृष्ठ सं. 3 एवं 4.
4. बिहार की समकालीन कला – विनय कुमार, कला संस्कृति एवं युवा विभाग, बिहार सरकार, पृष्ठ सं. 11.
5. कला – सैद्धांतिक खण्ड-2 लक्ष्मी नारायण नायक, प्रकाशक श्रीमती भादू देवी, पृष्ठ सं. 169.
6. बंगाल शैली की चित्रकला – डाॅ. नैन भटनागर, डाॅ. जगदीश चंद्रिकेश्ज्ञ अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ सं. 2.
7. पटना कलम का सफरनामा – शीला मोहन प्रसाद, शैलेन्द्र कुमार सिन्हा, मुद्रक शिवा कम्प्यूटर, बेकापुर, मुंगेर, पृष्ठ सं. 2, 3.
8. चित्र परंपरा और बिहार – श्याम शर्मा, मुद्रक एवं प्रकाशक – वातायन मीडिया एण्ड पब्लिकेशन्स प्रा. लि., पृष्ठ सं. 67.
9. भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास – डॉ. रीता प्रताप (वैश्य) राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृष्ठ सं. 306.
Other links:
Patna Kalam: Its Glory and Saga
Patna Kalam: Patna School of Painting
ईश्वरी प्रसाद वर्मा: ‘पटना कलम’ के आखिरी चित्रकार
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