पटना: दीदारगंज की भव्य चामरधारिणी यक्षी

Didarganj Yakshi, 3d model by Dokunod
Didarganj Yakshi, 3d model by Dokunod

इतिहास में खोज और अन्वेषण संयोगों से भरपूर हैं तथा प्रसिद्ध चौरी वाहक मूर्ति निश्चित रूप से ऐसे भाग्यशालियों में से एक है। एक फ़ीट साढ़े सात इंच की चौकी पर बैठी चुनार के बलुआ पत्थरों से बनी पांच फ़ीट दो इंच लंबी यह मूर्ति दर्पण की तरह अविश्वसनीय रूप से चमकदार है। इसकी खोज उसी वर्ष यानी 1917 ई. में हुई जिस वर्ष पटना संग्रहालय की स्थापना हुई। यह मूर्ति कैसे मिली, इस पर अलग अलग मत है। पटना संग्रहालय प्रकाशन इस बात पर प्रकाश डालता है कि पटना के तत्कालीन कमिश्नर माननीय ई.एच.एस. वाल्स के पत्र में ग़ुलाम रसूल नाम के एक व्यक्ति को इसकी खोज का श्रेय दिया गया है, जिसने दीदारगंज के नज़दीक नदी तट पर फ़ैले कीचड़ में चिपके हुए इस मूर्ति को देखा। रसूल ने तब उस मूर्ति को निकालने के लिए उस स्थान को खोदना शुरू किया।

मगर, हममें से ज़्यादातर लोग अलग तरह से ज़्यादा रोमांचित करने वाली कहानी में विश्वास करना चाहेंगे, जिस कहानी के बारे में आम तौर पर अधिकतर बातें की जाती है तथा इसका संबंध पुलिस निरीक्षक द्वारा 20 अक्टूबर 1917 को दर्ज की गई गुप्त रिपोर्ट से जोड़ा जाता है। यह कहानी कुछ इस तरह है कि पुराने पटना शहर के दीदारगंज में गंगा के किनारे, एक धोबी धरती से चिपके हुए एक पत्थर के टुकड़े पर कपड़े धो रहा था। एक दिन, उसके नजदीक ही एक सांप घूम रहा था, ग्रामीणों ने उसका पीछा किया, वह सांप धोबी के पत्थर के स्लैब के नीचे की छेद में छुप गया। जब ग्रामीणों ने उसे निकालने के लिए मिट्टी को खोदना शुरू किया, तो उन्होंने पाया कि जिस स्लैब के नीचे वो खुदाई कर रहे थे, वह असल में किसी शानदार मूर्ति का भाग था, और इसी मूर्ति को हम आज दीदारगंज यक्षी कहते हैं। यह कहानी व्यंजनापूर्ण है, जो हमें इतिहास की प्रकृति की ही याद दिलाती है कि किस तरह हम लापरवाही से इसके कुछ भाग, जो दृश्य है, का इस्तेमाल करते हैं, सही मायने में ऐसा बाक़ी बातों को जाने बिना ही किया जाता है, जो छुपी हुई है। यह पूरी तरह संयोग ही है कि यक्षी की मूर्ति उसी साल अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है, जिस वर्ष पटना संग्रहालय अस्तित्व में आता है। अबतक यह मूर्ति पटना संग्रहालय की सबसे आकर्षक मूर्ति है। बिहार संग्रहालय की ऐतिहासिक कला दीर्घा के दूसरे तल पर इस सबसे प्रतिष्ठित कलाकृति को दिखायेगा।

यक्षी प्राचीन भारत के स्त्री सौंदर्य वाले आदर्श मानकों का प्रतीक गढ़ती है। उसकी आकृति पूर्ण वक्षप्रतिमा, पतली कमर तथा व्यापक नितंब के साथ कामुक है। ग्रीवा त्रिवाली-कमर पर मांशलता के बलन के रूप में सुंदरता की अधिक असामान्य लेकिन निर्धारित मानदंड के रूप में शामिल है। शायद, इस मूर्ति के बारे में जो सबसे अनोखी बात है, एक स्पष्ट रूप से आकर्षक विशेषताएं समाहित कर लिये जाने के बाद, वह है-एक सुंदर तरीक़े से उसकी बेहतरीन अभिव्यक्ति, जिसकी भाव-भंगिमा हमें मोह लेती है। यक्षी विनम्रता की मांग करती हुई सीधे खड़े होने के बजाय आगे की ओर थोड़ी झुकी हुई है। उसके होंठों की मुस्कान पकड़ में नहीं आने वाली, फिर भी हमेशा यादों में क़ायम रहने वाली बेहद प्यारी मुस्कुराहट है। उसके दाहिने पैर का डिजाइन थोड़ा झुका हुआ है, मानो ऐसा उसके हाथ से पकड़ी गई हल्की सी कूची तथा चौरी पर उसकी पकड़ की दृढ़ता के कारण हो, जो उसकी सूक्ष्मता में अभिव्यक्ति की विनम्रता को दिखाता है। यह एक गोल आकृति वाली मूर्ति है, जिसका मतलब है कि इसे किसी भी कोण से देखा-निहारा जा सकता है।

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इसकी खोज के बाद, इतिहासकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती इसकी तिथि के निर्धारण को लेकर थी। इसकी कलाकृति, इस्तेमाल किये गए पत्थर, शिल्प शैली को लेकर इसे किस युग में रखा जाए? पोलिश की उच्च चमक और यक्षी के अलौकिक गुणों से, भरहुत में पाये जाने वाले बौद्ध स्तूप की रेलिंग समतुल्य इस मूर्ति के बारे में आर.पी.चंद्रा का निष्कर्ष है कि यह अशोककालीन कला शाखा के विदेशी उस्तादों में से मगध कलाकारों द्वारा शास्त्रीय सीख के परिणाम को दर्शाती है। जे.एन. बनर्जी मौर्यकाल के रूप में चमक के साथ इस प्रकार की गोल आकृति वाली सभी मूर्तियों को वर्गीकृत करते हैं तथा इसे पहली सदी के आस-पास या इससे पहले की ठहराते हैं। निहार रंजन रे इसे यक्षिणी कहना पसंद करते हैं, क्योंकि वो ऐसा मानते हैं कि इसकी शैली दूसरी शताब्दी के पहले की मथुरा यक्षियों से संबंधित हो सकती है। यद्यपि, इसका शाही आचरण मौर्य कालीन एक ही पत्थर से बनी आकृतियों से मिलता जुलता है। इस तरह मतों के विस्तार क्षेत्र को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह मूर्ति शायद मौर्यकाल के आस-पास की है।

वर्षों तक धरती में दफ़्न होने के कारण इसे नुकसान भी पहुंचा। बायीं बांह नहीं है तथा यक्षी की नाक खपची है। इस टूट-फूट के बावजूद लंबे समय के गुज़र जाने के बाद भी यह मूर्ति रोमांच और जादू पैदा करती है तथा यह मूर्ति इस बात की आकर्षक उदाहरण है कि हज़ारों साल पहले बिहार की शिल्पकला कितनी उन्नत थी।

Source: भव्य दीदारगंज यक्षी, बिहार म्यूजियम

References:
जयप्रकाश नारायण सिंह तथा अरविन्द महाजन द्वारा लिखित पुस्तक द दीदारगंज चौरी बीयरर फ़ीमेल फ़ीगर। पटना संग्रहालय प्रकाशन – 2012

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