शेखर, वरिष्ठ कलाकार, भागलपुर
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लोककला समाज की प्रचलित आस्थाओं, विश्वासों, धारणाओं, मान्यताओं, जनआकांक्षाओं तथा सांस्कृतिक भावनाओं को अभिव्यंजित करती है। इतिहास इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करता है कि मोहन-जोदड़ो एवं हड़प्पा संस्कृति से लेकर समकालीन संस्कृति तक समाज में परिवर्तन के साथ लोककला में भी परिवर्तन आया है। गो कि लोककला जन-साधारण की भावनाओं एवं संस्कारों से संयुक्त होती है, इसलिए सामाजिक बदलाव के साथ अपने में विकास और बदलाव लाती है। जाहिर है इसी वजह से आज भी लोककला सुरक्षित रह पायी है। भारत का एक-एक कोना संगीत, चित्र, मूर्ति एवं स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूनों से अटा पड़ा है। जरूरत है उनकी ऊर्जा के समुचित उपयोग की। लोककला के अन्य क्षेत्र यथा – लोक संगीत लोक नृत्य आदि पर किंचित काम भी हुए हैं, किन्तु लोक चित्रकला पर लगभग नहीं के बराबर ही काम हुआ है।
सच तो यह है कि शास्त्रीय चित्रकला का आधार लोक चित्रकला ही है, फिर भी लोक चित्रकला उपेक्षित रही है। इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि शास्त्रीय चित्रकला राज्याश्रित होने के कारण एकरस होने लगी थी, किन्तु लोक चित्रकला में कल्पना और भावना की ताजगी विद्यमान रही। इतना ही नहीं, तमाम बाधाओं के बावजूद लोक चित्रकला अपनी स्वस्थ परम्परा को जीवित रखने में कामयाब रही है। दरअसल लोक चित्रकला में अभिव्यक्ति की तरलता और भावनाओं की बारीकी होती है, जबकि शास्त्रीय चित्रकला में बौद्धिकता और तकनीकी उलझाव का स्वर प्रमुख होता है। लोक कला में परम्परा का सकारात्मक विकास स्वत: स्फूर्त ढंग से होता है।
आमतौर पर लोक चित्रकला में पशु, पक्षी, मंगल-संकेत, देवी-देवताओं, पौराणिक कथाओं एवं लोक गाथाओं आदि का चित्रण किया जाता है। पूरे देश में इस तरह के लोकचित्र बिखरे पड़े हैं। महाराष्ट्र की रंगोली हो या गुजरात की कलौटी, बंगाल के ख्यात पट-चित्र हों या बिहार की मधुबनी चित्रकला, सब में लोक चित्रकला की विशेषताएं देखी जा सकती हैं। इन लोक चित्रों की रेखाओं में भावनाओं को प्रधानता दी जाती है। इनकी रेखाएं बारीक और स्पष्ट खींची जाती हैं। इनके रंगों और रेखाओं की अपनी मौलिकता होती है। पृष्ठभूमि के आधार पर ही चित्रों में रंगों का प्रयोग निर्भर करता है। इन चित्रों में सफेद, पीले, नीले एवं हरे रंगों का प्रयोग सर्वाधिक होता है जिसके कारण आकृतियां स्वाभाविक जान पड़ती हैं। इनमें अमिश्रित रंगों का भी प्रयोग किया जाता है। रंगों, रेखाओं और प्रयोगात्मक बारीकी का ऐसा ही एक नमूना है अंग जनपद (पुराना भागलपुर प्रमंडल) की प्रख्यात लोकगाथा बिहुला विषहरी पर आधारित मंजूषा चित्रकला, जिसे लोग मंजूषा शिल्प भी कहते हैं।
बिहुला विषहरी की कथा में वर्णित है कि लोगों की देवी विषहरी नाग पूजा के विरोधी चांदो सौदागर को तरह-तरह से तंगो-तबाह करने लगी थी। इसी क्रम में उसने चांदो के पुत्र बाला लखेंद्र को सुहागरात को ही एक विषधर सर्प से डंसवा दिया था। बाला की नवोढ़ा पत्नी बिहुला ने सर्पदंश के उपचारार्थ अपने पति को उपयुक्त स्थान पर ले जाने के लिए एक विशेष प्रकार का मंजूषानुमा जलयान बनवाया था। इस विशेष मंजूषा-जलयान को तत्कालीन कुशल चित्रकार लहसन माली ने कथा चित्रों से चित्रित किया था। तभी से मंजूषा-चित्रण की परंपरा चली आ रही है।
मंजूषा चित्रकला अंग जनपद की लोककला का जीता जागता नमूना है। कालक्रम में बिहुला की मंजूषा ने जो रूप ले लिया है, वह है कागज, शोला, सनई एवं विभिन्न देशी रंगों से तैयार मंजूषा। इसकी बनावट मंदिरनुमा होती है जिसमें आठ पाये होते हैं और इसका गुंबद कोणिक होता है। पायों के बीच बने वर्गाकार कमरे में एक दरवाजा भी होता है। पायों के बीच बने वर्गाकार कमरे में एक दरवाजा होता है। मंजूषा के शीर्ष, आधार तथा स्तंभों पर फन काढ़े सर्प बने होते हैं और दीवारों तथा गुम्बद पर बिहुला-विषहरी की कथा चित्रित की जाती है। मंजूषा आकर्षक बने, इसके लिए कागज एवं शोला से बने फूल चिपकाये जाते हैं। मंजूषा चित्रकला में बिहुला-विषहरी से संबंधित आस्था और विश्वास की स्पष्ट तथा प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति की गयी है। चूंकि सहस्त्रों वर्षों से इस जनपद में बैद्यनाथ धाम के प्रति अगाध श्रद्धा है और खुद चांदो सौदागर शिवभक्त था, इसलिए मंजूषा में शिवलिंग और उसके दायें-बायें सर्पाकृति बनायी जाती है। सूर्य और चन्द्र जैसे प्रतीकों का प्रयोग प्राय: आकाश को दिखाने से लिए किया जाता है। चांदों के भाल पर चंद्र आकृति का तिलक है। अत: चंद्र प्रतीक का प्रयोग चांदों के चित्रों में अवश्य किया जाता है। बिहुला के गीतों के अनुसार सूर्य, पूरब और पश्चिम दिशा भी निर्दिष्ट करता है।
अन्य लोक चित्रशैली की तरह मंजूषा चित्रशैली में भी मुखाकृति एकचश्मी और बायीं दिशा की ओर रहती है। इस सैली के चित्रों में कपाल और कान का अभाव रहता है। पुरुष आकृतियों में मूंछ और शिखा अवश्य बनायी जाती है और स्त्री आकृति में जूड़ा। इनकी आंखें बड़ी-बड़ी होती हैं। गर्दन की लंबाई अंगों के अनुपात में अधिक होती है। स्त्रियों की लम्बी सुराहीदार गर्दन की कोमलता और लोच दिखाने के लिए गले पर समानान्तर वलय बनाये जाते हैं। छाती की उभार को दिखाने के लिए दो वृतों का प्रयोग किया जाता है, इनमें स्त्री और पुरुष की भिन्नता दिखाने की चेष्टा प्राय: नहीं की जाती है। हां, कहीं-कहीं स्त्री की कंचुकीपनता दिखाने के लिए वृत्तों के अंदर बिन्दु का प्रयोग मिलता है। तलवे को दिखाने के लिए हरे रंग के स्पर्श से काम चला लिया जाता है और हथेली की अंगुलियां तूलिकाघात से बनायी जाती हैं। जिस तरह चांदों के चित्रण में सर्वत्र चंद्र बनाया जाता है, उसी प्रकार चांदों के पुत्र बाला को सर्वत्र सर्प के डंसते हुए दर्शाया जाता है। संभवत: कलाकार इस बात के लिए सचेत है कि चांद और सर्प के प्रतीक से चांदो और बाला के चित्रों की भिन्नता बनी है। सचमुच कितनी सशक्त है कलाकार की अभिव्यक्ति, सांप के मुंह से बाला की देह तक एक काली रेखा खींचकर विष फैलने जैसे प्रभाव को दिखा देता है। वस्त्र अलंकरण आदि में पात्रानुकूलता का ध्यान रखा जाता है। सोनिका प्रतिष्ठित चांदो सौदागर की पत्नी है और मनसा नागों की देवी, इसलिए उनके लहंगे जड़ाऊ बनाये जाते हैं जबकि सामान्य पात्रों के वस्त्रादि साधारण होते हैं। इनके अतिरिक्त स्त्री पात्रों को प्राय: पति के साथ चित्रित किया जाता है।
मधुबनी लोकचित्रों में रेखाओं को घनीभूत कर केश राशि उकेरी जाती है, किन्तु मंजूषा चित्रों में सिर्फ रंग का प्रयोग कर केश राशि के संपूर्ण प्रभाव को दिखाया जाता है। भले ही एकचश्मी चित्र के जूड़े हों या शिखा या दुचश्मी चेहरे के खुले बाल। मूंजषा चित्रशैली में चरित्र की जीवंतता पर हमेशा ख्याल रखा जाता है। नागों की देवी विषहरी को हमेशा सर्पों के साथ, नेतुला धोबिन को पाट और जल के साथ, टुण्डी राक्षसी को आदमी खाते हुए तथा कुछ को हाथ में लटकाये हुए दिखाया जाता है। मंजूषा चित्र शैली में जिन प्रतीकों का प्रयोग हुआ है, उनमें प्रमुख हैं चांद, सूरज, मछली, चन्दन, बांस-बिट्ठा, बगीचा, लहरिया आदि। ‘चांद’ शिवभक्ति का, ‘सूरज’ दिशा का, ‘मछली’ जल का, ‘चंदन’ पवित्रता का, ‘बांस-बिट्ठा’ वंश का, ‘बगीचा’ वंशवृद्धि का तथा ‘लहरिया’ जीवन की प्रवाहमानता का सूचक है।
प्रतीक प्रभाव और चरित्र की जीवंतता के साथ-साथ रंगों के संयोजन में भी बहुत समृद्ध है चंपा की मंजूषा चित्रकला। इसमें सहज उपलब्ध चार रंगों का प्रयोग होता है। ये रंग हैं गुलाबी, हरा, पीला और काला। किन्तु कहीं-कहीं कागज के मौलिक रंग का भी सार्थक और संतुलित उपयोग किया जाता है। पृष्ठभूमि में सदा गुलाबी रंग का प्रयोग होता है। ऐसा इसलिए भी किया जाता है ताकि आकृतियां समुचित उभर सकें और शेष रंगों के संतुलित उपयोग की संभावना सुरक्षित रहे। जहां तक इन रंगों के प्रयोग का सवाल है, हमें लगता है कि हृदय को आह्लादित करने वाली हरियाली से हरे रंग के उपयोग की प्रेरणा मिली होगी। पीले रंग का उपयोग तो पारंपरिक मूर्तिकला से ही आया है क्योंकि चेहरे और शरीर के लिए मूर्तिकार पीले रंग का इस्तेमाल करते हैं। दोनों ही रंग नेत्रप्रिय और कांतिमय हैं। इसलिए वस्त्र अलंकरण आदि भी इनका उपयोग होता है। पीत रंग की स्वर्ण आभा अलंकरण के लिए भी उपयुक्त भी है। पृष्ठभूमि के लिए गुलाबी रंग तथा आकृतियों के लिए वैषम्य रंग का प्रयोग तो किया ही जाता है, आकृतियों को काले रंग की रेखाओं से भी घेरे दिया जाता है। बल्कि कहीं-कहीं काले रंग की रेखाओं के बाद कागज के मौलिक रंग को भी आने दिया जाता है।
कथा में चर्चा आती है कि बाला-बिहुला के लिए बने विशेष गृह ‘लोहा बांस घर’ की सुरक्षा का भार गरूड़, नेवला, बिलाड़, हाथी, पिलवान, मुगल और पठान को दिया गया था। इसलिए इनके चित्र भी मंजूषा की दीवारों पर बनाये जाते हैं। चूंकि बाला के प्रिय खिलौने भी विशेष मंजूषा में रखे गये थे, इसलिए उनके चित्र भी आधुनिक मंजूषा में अंकित किये जाते हैं। सर्प और खिलौने (पशु-पक्षि आदि) के चित्रण में अतिरिक्त रेखाओं के प्रयोग द्वारा त्रिआयामी प्रभाव को दिखाने की सफल चेष्टा की गयी है। खिलौने की प्रवृत्ति स्थिर चित्र (स्टिल) की है जबकि सर्पों के चित्रों में गतिमयता स्पष्टत: परिलक्षित होती है। सर्प के टेक्सचर को रंग, रेखा और बिन्दुओं से उकेरा गया है। सर्प की लंबाई को दिखाने के लिए ज्यामितीय पचड़े में न पड़कर कलाकार ने उसके संपूर्ण प्रभाव बोध की चिंता की है। कथा के अनुसार जब बिहुला बाला के उपचार के लिए मंजूषा रूपी जलयान में रखकर निकल पड़ी थी तो उसने रास्ते के भोजन के लिए उसमें छह महीने की रसद भी रखवायी थी। यही वजह है कि मंजूषा में आम और भुट्टा आदि भी बनाये जाते हैं। लोक विश्वास के अनुसार माता शीतला रोग व्याधि और विघ्न को नाश करने वाली एवं समृद्धि और स्वास्थ्य की रक्षा करने वाली है। शायद यही कारण है कि मंजूषा में इन्हें भी चित्रित किया जाता है। इनके चित्रण में रंगों और आकृति का संश्लिष्ट संयोजन रहता है। त्रिभुज से मंदिर, वृत में ऊपर से एक रेखा खींचकर उसके निचले सिरे पर घुंडी बनाकर घंटा तथा दांयीं-बांयी ओर रेखाएं फैलाकर ध्वज की आकृति बनायी जाती है। मंदिर के अंदर देवी शीतला एवं उनके वाहन गर्दभ को चित्रित किया जाता है।
मंजूषा शिल्पी आकृतियों और वस्तुओं के चित्रण तक ही सीमित नहीं हैं। वे साज-सजावट के प्रति भी काफी जागरूक रहे हैं। तभी तो प्राय: हर चित्र में हम पाते हैं बॉर्डर और मेहराब। आड़ी-तिरछी रखी पत्तियों को भी विभिन्न रंगों में रंगकर बनाया जाता है बॉर्डर, तो कई तिरछी रेखाओं और उनके बीच हरे पट्टे और लहरिये से बनाया जाता हे मेहराब। बॉर्डर को अंगिका में ‘मोखा डिजाइन’ भी कहते हैं। वास्तव में मोखा डिजाइन और मेहराब सिर्फ इन चित्रों की सुन्दरता ही नहीं है बल्कि इस चित्रकला की पहचान हैं। इतना ही नहीं, लहरिया भी इस लोकचित्र की खास चित्रकारी है जो कलाकार की कल्पनाशीलता और प्रतीकात्मकता का परिचायक है। लहरिया मंजूषा के लगभग हर चित्र में प्रयुक्त होती है और खास बात यह है कि लहर में गत्यावरोध है जो नदी की विभिन्न उपधाराओं से होकर बिहुला की ‘यात्रा विशेष’ तथा उनके जीवन में गतिरोध को संकेत करता है।
चित्रकारी के अतिरिक्त मंजूषा कलाकृति का एक और नमूना है ‘वारि मंजूषा’। मूल कथा के अनुसार बाला के सर्पदंश के उपचार के लिए जब बिहुला निकली तो अपने साथ आनुष्ठानिक उपयोग हेतु वारि मंजूषा भी ले गयी थी जिसमें घृत, मधु, तेल, अक्षत आदि डालकर उसका मुंह मयूर पंख से ढंक दिया गया था। किन्तु आधुनिक वारि मंजूषा एक प्रकार का कलश है जिस पर फन काढ़े चार सर्प बने होते हैं और एक सर्प ढक्कन पर भी होता है। कलश और सर्प मिट्टी के बने होते हैं जिसे रंगों से अलंकृत किया जाता है।
बिहुला-विषहरी के मिथ ने एक ओर जहां कमजोर और पिछड़े वर्गों को सामाजिक मान दिलाया है दूसरी ओर चित्रकला को एक नया आयाम भी प्रदान किया है। दरअसल लोककथा में मानव की सृजनात्मकता, संवेदनशीलता और उसकी इच्छा-आकांक्षाओं की स्वत:स्फूर्त अभिव्यक्ति होती है। किन्तु, पूंजीवादी सत्ता लोक कला की जीवनी शक्ति को लील रही है। उपभोक्ता संस्कृति में उत्तरोत्तर विकास की संभावनाएं कुंद तो हुई ही हैं उसकी रुचियों और प्रवृत्तियों में भी गुणात्मक फर्क आया है। मौजूदा स्थिति में लोककलाओं के विकास की बात तो दूर उनके अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है। वह दिन दूर नहीं जब मंजूषा शिल्प समाप्त हो जाएगा क्योंकि मंजूषा शिल्प परम्परा को सुरक्षित रखने वाले चम्पानगर के मालाकार शिल्पकारों की स्थिति सत्ता एवं प्रशासन की कला विमुखता और बढ़ते औद्योगीकरण की वजह से बद-से-बदतर होती जा रही है। घोर आर्थिक तंगी के बाद भी मंजूषा शिल्प को जिलाये रखना कहां तक संभव हो सकेगा, यह तो भविष्य ही बतलाएगा।
चम्पानगर में मात्र सात मालाकार परिवार हैं। शादी-ब्याह एवं पर्व-त्योहार समारोह आदि के अतिरिक्त ये परिवार मंजूषा बनाने एवं चित्रण का कार्य करते हैं। उनमें से एक हैं चम्पानगर की छप्पन वर्षीया श्रीमती चक्रवर्ती देवी जो मंजूषा शिल्प के प्रति आगाध निष्ठा रखती हैं। वह बातों-ही-बातों में बताती हैं – हमने इस शिल्प को अपनी पिछली पीढ़ी से सीखा, किन्तु हमें इस बात की चिंता है कि अब इस शिल्प को जारी रखने वाला कोई नजर नहीं आता। इतना कहकर उनकी आखें शून्य में खो जाती हैं।
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शेखर इन दिनों रांची में रहते हैं और अपनी कला साधना में जुटे हैं।
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References:
मूल शीर्षक: बिहार की मंजूषा चित्रकला, कलादृष्टि, शिल्प कला परिषद् बुलेटिन, वर्ष-2, संख्या-1, जनवरी-जून 1991 में प्रकाशित