मंजूषा कला को लोककला जगत की चर्चा के केंद्र में लाने में ख्यातिलब्ध चित्रकार चक्रवर्ती देवी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। चक्रवर्ती देवी ने भागलपुर में जिन महिला चित्रकारों के साथ काम किया, उनमें मोहद्दीनगर की निर्मला देवी का नाम सबसे ऊपर आता है।
निर्मला देवी का जन्म 1 जनवरी 1951 को चंपानगर के कुम्हार परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम छेदी पंडित और मां का नाम छोहारा देवी था। छेदी पंडित अपने समय के चर्चित कुम्हार थे और अपने समाज में उनकी काफी इज्जत थी क्योंकि चंपानगर के प्रसिद्ध विषहरी स्थान (मंदिर) में नागपंचमी की पूजा हेतु बड़ी बाड़ी उनके ही घर से जाती थी। मां छोहारा देवी उस बाड़ी पर रंगरोगन का काम करती थीं और उन्हें परंपरागत चित्रों से अलंकृत करती थीं जिनमें सर्प, चंपा आदि के चित्र और बिहुला-विषहरी लोकगाथा के दृश्य होते थे।
मां के सानिध्य में ही निर्मला ने भी बाड़ी पर चित्र बनाना शुरू किया। धीरे-धीरे वह शादी-ब्याह के लिए बनने वाले मिट्टी के घड़ों, हाथी और झांप पर चित्र बनाने लगीं। निर्मला अपने घर की दीवारों को भी चित्र-पटल की तरह प्रयोग करतीं, उस पर चित्र बनातीं और उन्हें होली के रंगों से रंगतीं। 1961 में महज दस वर्ष की आयु में उनका विवाह मोहद्दीनगर के नारायण पंडित से हुआ।
साठ का दशक बिहार में दुर्भिक्ष का दशक था। भागलपुर भी उस दुर्भिक्ष के प्रभाव क्षेत्र में था। नाथनगर के कुम्हार परिवारों की स्थिति नाजुक थी, लेकिन तब भी वे बाड़ियों पर बिहुला-विषहरी के चित्र बना रहे थे। दुर्भाग्य से उन पर किसी भाष्कर कुलकर्णी या पुपुल जयकर की नजर नहीं पड़ी, जबकि 1940 के आसपास डब्ल्यू.जी. आर्चर ने मंजूषा चित्रों को ‘मैथिल’ चित्रों की तरह खोज निकाला था। तत्कालीन सरकार ने भी भागलपुर के कुम्हार परिवारों की कोई खास सुध नहीं ली।
इन्हीं परिस्थितियों में निर्मला देवी ने पहली बार कागज खरीदकर उन पर चित्र बनाये। चित्र कैसे थे और उन चित्रों के विषय-वस्तु क्या थे, यह पूछे जाने पर निर्मला देवी कहती हैं कि “हमने वही चित्र बनाये जो बाड़ी और झांप पर बनाते थे। हमें विषहरी माई के अलावा किसी अन्य कथा की जानकारी नहीं थी। मेरे भाई और पिताजी उस कथा को गाया करते थे। तब मैंने कागज पर एक-एक हाथ लंबे दो सांप बनाये थे, उनके बीच हाथी बनाया और दूसरी आकृतियां बनायीं, फिर उनमें बांस के ब्रश से रंग भरे”।
80 के दशक के मध्य में जब बिहार सरकार ने इस कला पर ध्यान देना शुरू किया, तब निर्मला देवी, चक्रवर्ती देवी के साथ स्थानीय महिलाओं को यह कला सिखाने लगी थीं। निर्मला देवी कहती हैं कि “भागलपुर का समाज उस समय तक अपनी कला के प्रति बहुत सजग नहीं था। कुछ लोगों ने आकृतियों पर सवाल उठाये, जैसे कान नहीं है, आंखें अजीब दिखती हैं, चंपा के फूल, सांप और महादेव के चित्रों में क्या खास है”। इस सवालों से इतर अनेक महिलाएं चक्रवर्ती देवी और निर्मला देवी से चित्र बनाना सीख रही थीं। निर्मला देवी ने अपने बेटों और बेटी को भी यह कला सिखाई।
नब्बे के दशक की शुरुआत में निर्मला देवी पहली बार भागलपुर से पटना चित्र बनाने के लिए आयीं और लौटकर फिर लंबे समय तक कला सृजन में जुटी रहीं। धीरे-धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ी। 2009 में उन्हें विक्रमशिला महोत्सव में ललित कला अकादमी द्वारा आयोजित कार्यशाला में ‘अंग गौरव गाथा’ विषय पर चित्र बनाने का मौका मिला। 2011 में उन्हें डिजाइन डेवलपमेंट सेंटर, कलकत्ता की तरफ से एक कार्यशाला में आमंत्रित किया गया। 2012 निर्मला देवी ने पटना में कला संस्कृति एवं युवा विभाग, बिहार सरकार और ललित कला अकादमी, पटना के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित राष्ट्रीय महिला कला शिविर में मंजूषा चित्र बनाए। अगले ही वर्ष उन्हें पटना में आयोजित सौ कलाकारों की एक अन्य कार्यशाला में भी चित्र बनाने का मौका मिला।
मंजूषा कला के विकास और विस्तार में निर्मला देवी का महत्वपूर्ण योगदान है। इसके लिए उन्हें 2007 में नाबार्ड की तरफ से सम्मानित किया गया। 2013 में भागलपुर जिला प्रशासन ने उन्हें नारी शक्ति सम्मान से सम्मानित किया और 2013-14 में निर्मला देवी बिहार कला पुरस्कार के तहत सीता देवी वरिष्ठ लोककला सम्मान से सम्मानित की गयीं।
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