
डा. कुमुद सिंह I वरिष्ठ कलाकार I विभागाध्यक्ष, ड्रॉइंग एवं पेंटिंग, साकेत पीजी कॉलेज, अयोध्या, उत्तर प्रदेश
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भारत की सांस्कृतिक विरासत की बहुआयामी कलात्मक ऊर्जा अपने विभिन्न रूपों में प्राचीन काल से वर्तमान काल तक विद्यमान है। इस सांस्कृतिक विरासत में लोककला अपने विभिन्न प्रतीकों में लोकमंगल कामना के साथ ‘सहअस्तित्व’ भाव का प्रसार करती रही है। लिहाजा, वर्तमान समय में मौजूद लोककलाओं की मूल जानकारियां और उनमें अवस्थित ‘सहअस्तित्व’ की भावना का हस्तांतरण अगली पीढ़ी को किन रूपों में हो, इस पर हमें विचार करना होगा। तब यह जरूरी होगा कि हम लोककलाओं के विविध पक्षों पर गंभीरता से विचार-विमर्श करें और उसके सामाजिक पक्ष को उजागर करते हुए उसके विकास एवं प्रसार के लिए कार्य कार्य करें।
यह कहने की बात नहीं है कि भारत सांस्कृतिक विरासतों के साथ-साथ सांस्कृतिक बहुलताओं का भी देश है, जिनके बीच सहअस्तित्व की भावना सदियों से विद्यमान रही है। लोककलाएं उसका प्रमाण हैं। लोक जीवन, लोक बोलियां, लोक साहित्य, लोक नायक, लोक मत तथा लोककलाओं जैसी विविध भावाव्यक्तियां उसी सहअस्तित्व का प्रमाण हैं। वह सहअस्तित्व बारंबार लोकसाहित्य में प्रस्तुत होता है। ‘रामचरितमानस’ में गोस्वामी तुलसीदास ‘लोक-वेद’ पद की आवृत्तियों का संयोजन करते हैं, उदाहरणार्थ:- लोक वेद सम्मत सब कहई / लोकहुं वेद विदित इतिहास अथवा लोकहुं वेद विदित कवि कहहीं सरीखे अनेक पद, अर्थात् अपनी बातों की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए तुलसीदास बारंबार ‘लोक-वेद’ का हवाला देते हैं, उसका प्रयोग प्रमाणिक स्रोत के रूप में करते हैं।
आधुनिक काल में भी लोक की विविध व्याख्याएं हैं, उससे संबंधित अनेक अवधारणाएं हैं। उनमें सबसे प्रचलित एक व्याख्या डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी की है जिनके मुताबिक ‘लोक शब्द का अर्थ जनपद अथवा ग्राम से नहीं वरन् नगरों और गांवों में फैली हुई उस समूची जनता से है जिसके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैं।’ अर्थात् ‘लोक’ जनसामान्य है, उसी के लिए प्रयुक्त है और उस लोक का समस्त ज्ञान, उसकी जीवन शैली व्यावहारिक है।
लोक है, तो लोक-जीवन है और उस लोक-जीवन के विविध आयाम हैं। उन्हीं में से एक है लोक-कला अर्थात् लोक-जीवन की रचनाधर्मिकता का मूर्त प्रकटीकरण, जिसका मूल्यांकन-विश्लेषण कर लोक स्वयं की अभिव्यक्ति निरंतर समृद्ध करता रहता है। ‘स्वयं की अभिव्यक्ति’ लोककला-कर्म में विषयों-भावों का अक्षय स्रोत है। उसमें चित्र, रंग, सुर, नाद सब शामिल हैं। इन सबों में ‘स्व’ की अभिव्यक्ति है, सहअस्तित्व का भाव है। लेकिन चित्रों में वह भाव अपनी विराटता के साथ उपस्थित होता है। चित्रों के संदर्भ में भोजदेव लिखते हैं, “चित्रहि सर्वशिल्पानां मुखं लोकस्य च प्रियम्” अर्थात् चित्र सभी शिल्पों का मुख स्वरूप है जो लोक को पसंद है। वह जड़-चेतन, प्रकृति-पुरुष, शब्द-अर्थ, रूप एवं भाव, जीव-जन्तु, जाति-वर्ग, व्यक्ति-समूह, विभिन्न कलाओं, परंपरा-आधुनिकता सभी के सहअस्तित्व की विराट चेष्टा है।
इन दिनों अपने इतिहास एवं परंपरा के अभिन्न रूप में जुड़ी विभिन्न महत्वपूर्ण अवधारणाओं की क्षति, आलोचना करना, प्रगतिशील विचारक बनने का एक सहज और लगभग स्वीकृत रास्ता बन गया है। ऐसे में आवश्यकता है कि हम अपनी विशाल लोककला परंपरा के महत्वपूर्ण बिंदुओं को व्याख्यायित एवं प्रसारित करें।
पहला: किसी भी कलाकृति के दो पक्ष होते हैं। कला पक्ष और भाव पक्ष। कला पक्ष में कृति सृजन के साथ ही सहअस्तित्व की भावना सामूहिकता में समाहित रहता है, जहां व्यक्ति एक इकाई के रूप में रहते हुए सभी को महत्व देता है। उदाहरणार्थ: कोहबर, विवाह के अवसर पर सृजित एक लोक-चित्र है, जिसका रेखांकन घर की कोई एक महिला करती है किंतु उसमें रंग भरने का कार्य घर की सभी महिलाएं मिलकर करती हैं। इसी तरह गोवर्धन पूजा में गोबर लाकर किसी एक घर के दरवाजे पर रखा जाता है। तत्पश्चात् गांव की सभी स्त्रियां/बालिकाएं उसके प्रतीकों एवं कलाकृतियों का सामुच्य बनाती हैं। उनमें भी सहअस्तित्व का भाव प्रदर्शित होता है जिससे उनके बीच न केवल आपसी तालमेल बनता है बल्कि प्रेम-भाव भी बढ़ता है। यह सहअस्तित्व भाव की विराटता ही है कि आमतौर पर लोककलाकृतियों में किसी कलाकार का नाम अंकित नहीं होता, उसमें ‘मैं’ का भाव ‘हम’ में सामाहित हो जाता है।
दूसरा: लोकचित्र अंकन के साथ-साथ लोकगीत गायन की परंपरा हमारे समाज में रही है। कागज पर उतरने से पूर्व लोकचित्रण विविध रूप में प्रत्यक्ष थे, भू-चित्रण, भित्ति चित्रण, चौक-पुरन आदि। लोकगीत, लोकगाथाओं एवं लोकनाट्यों आदि का प्रभाव उन चित्रण पर मिलता है। यथा: आल्हा-ऊदल, सोरठी-बिरजाभार की नौटंकी आदि के किरदार चित्रों में उपस्थित होते हैं। बहुदा यह भी देखने को मिलता है कि अलग-अलग कालखंड के किरदार एक साथ चित्रों में उपस्थित हों।
तीसरा: वर्ग-जाति का सहअस्तित्व। समाज में प्रचलित जातीय-वर्गीय भाव, सहअस्तित्व भाव से लोककलाओं में स्थान पाते रही हैं, चित्रों के साथ व्यावहारिक जीवन में भी। जैसे: कोहबर के सृजन की शुरुआत कहीं कहीं नाउन या पंडिताइन के हाथों शुरू होती है। उसी तरह व्यावहारिक जीवन में कहीं-कहीं यह परंपरा मिलती है कि विवाह हेतु धोबिन की मांग से सिंदूर काढ़ा जाये क्योंकि ऐसी मान्यता है कि उससे वधु का सुहाग अक्षय रहता है।
समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए यह एक दूसरे के प्रति सम्मान की भी अभिव्यक्ति है और यह भाव लोककलाओं में स्पष्ट रूप से दिखता है। इसी सदंर्भ में एक उदाहरण विवाह के समय अक्सर दिखाई पड़ता है, जिसमें कुम्हार जब कलश लेकर विवाह वाले घर में आता है तब घर की स्त्रियां कुम्हार और कलश का परिछन कर लोकगीत गाती हैं:-
कोहबर देखूं बड़ा सुन्नर रे बाबा, अरे बलू ननदी के लिखल
कोहबर बड़ा सुन्नर, मउरी त देखी बड़ी सुन्नर ए बाबा।
अरे बाबा ना जानूं मलिया के मोल, मउरी बड़ा सुन्नर
कलशा त देखूं बड़ी सुन्नर रे बाबा, ओ बाबा ना जानू कोहरा के गढ़ल।
आरे कलशा बड़ा सुन्नर, कोहबर बड़ा सुन्नर
पिढ़वाई त देखूं बड़ा सुन्नर ए बाबा, आरे बाबा ना जानू बढ़ई के मोल।
पिढ़वाई बड़ा सुन्नर, मउरिया बड़ा सुन्नर, कोहबर बड़ा सुंदर।।
यह तो लोककला सृजन के बाह्य तत्व की चर्चा हुई। अब चर्चा प्रतीकों की। अमरीकी दार्शनिक सुजैन लैंगर लिखती हैं, “कला मानवीय भावनाओं के प्रतीक आकारों की रचना है।” प्रतीक मूल रूप से भाव से जुड़े हैं अर्थात भाव भरे आकार या चिन्ह। लोककला का अपना भाव-लोक है। इसका आनंद उसके प्रतीकों में निहित है। प्रतीकों की समझ के साथ-साथ उसका भाव भी खुलता जाता है। लोककला प्रतीकों के माध्यम से सामर्थ्य का विस्तृत विन्यास बनती है, अमूर्त शक्तियों का एहसास कराती हैं। यह प्रतीक अस्तित्व के विभिन्न बिंदुओं को दर्शाने में सक्षम हैं।
चौथा: लोककला में स्त्री-पुरुष का सहअस्तित्व युगल रूप में समान सम्मान और महत्व लिये साकार होते हैं। जैसे: मीन-युगल, पक्षी-युगल, सर्प-युगल इत्यादि। परिवार व समाज की निरंतरता को बनाये रखने में दंपति की जो भूमिका है, वह इन युगलों में परिलक्षित होती है। चित्रों में ‘युगल’ सुख-समृद्धि के साथ-साथ दोनों के समन्वयात्मक जीवन से भी परिचय कराते हैं। जैसे: कोहबर में युगल-चित्र, नामों का युग्म, नाग पंचमी में युगल चित्र आदि। यहां यह गौर करने वाली बात है कि कोहबर में वधु का नाम पहले अंकित होता है जो दोनों के समान महत्व सहअस्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हैं।
पांचवां: लोककला में प्रकृति, जिसमें मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, सभी शामिल हैं, समान भाव से अवतरित होते हैं। सहअस्तित्व का प्रकटीकरण उससे स्पष्ट कहीं नहीं है। लोककलाकार उस सहअस्तित्व भाव को अपनी विशिष्ट स्मृतियों और कल्पनाशीलता से मूर्त कर उन्हें अपनी कला में स्थान देता है। पर्यावरण के प्रति हम आज सजग हुए हैं। लोककलाओं में आरंभ से ही उसके प्रति सम्मान रहा है। उसमें वर-वधु के साथ जीव-जंतु, पेड़-पौधे, फूल-पत्ती, देवी-देवता समान भाव से अंकित होते रहे हैं, जो हमारे जीवन में उनकी महत्ता को दर्शाते हैं। इस तरह कोहबर चित्र प्रकृति के समक्ष हमारा एक निमंत्रण-पत्र भी है कि आप सभी हमारे विवाह समारोह में आमंत्रित हैं, आप पधारें और हमें अनुग्रहित करें। इसी भाव को डॉ. विद्या बिन्दु सिंह इस तरह व्यक्त करती हैं कि लोकचित्रों में जीवन एक विराट फल है, जिसमें चर-अचर समस्त प्रकृति का तादात्म्य भाव व्यक्त होता है।
परम्परा तथा आधुनिकता का सहअस्तित्व लोकचित्रों में वर्जित नहीं है। समूची लोककला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अनुकरण के द्वारा हस्तांतरित होती है। अनुकरण नकल नहीं है। अनुकरण में भी कलाकार कुछ नया कर जाता है। अनुकरण सौ फीसद संभव नहीं है। यहां तक कि जब हम मशीन से फोटो कॉपी करते हैं या किसी की आवाज को टेप करते हैं, तब भी वह फोटो कॉपी प्रमाणित प्रतिलिपि होती है, सत्य प्रतिलिपि नहीं अथवा टेप किए गये आवाज में भी कुछ परिवर्तन होता है, वह व्यक्ति विशेष की आवाज से भिन्न होता है। उसी तरह से परंपारगत लोककला है, समय के साथ-साथ उसमें आधुनिकता के तत्व का आना स्वाभाविक है और यही लोककलाओं की खूबसूरती भी है, वह परंपरा के साथ-साथ आधुनिकता के सहअस्तित्व को भी स्वीकार करती है।

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