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बिहुला-विषहरी का मिथक और 90 के दशक में मंजूषा कला

बिहार की मंजूषा चित्रकला पर यह आलेख वरिष्ठ चित्रकार शेखर ने 1991 में लिखा था। यह आलेख इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि यह वर्तमान मंजूषा कला को देखने की नयी दृष्टि देता है। पढ़िये –

Photo archives: Mud Murals of Purnea, Bihar

बिहार में मृत्तिका उत्कीर्णन की परंपरा खत्म होने की कगार पर है। पूर्णिया के वरिष्ठ कलाकार संजय सिंह ने तीन दशक पूर्व पूर्णिया में इस परंपरा का डॉक्यूमेंटेशन किया था। कुछ तस्वीरें –

पत्थरकट्टी: पाषाण शिल्प, परंपरागत डिजाइन और कच्चा माल के स्रोत

1940-70 के दशक में पत्थरकट्टी के शिल्पी क्या तराश रहे थे, उनके डिजाइन क्या थे, जरूरत का कच्चा माल कहां से आता था और उपकरण क्या थे, डालते हैं उन पर एक नजर –

‘लोक’ और ‘दलित’: व्युत्पत्ति, अर्थ एवं विविध प्रयोग

लोक’ और ‘दलित’ न केवल अलग-अलग शब्द हैं बल्कि उनके प्रयोगों के संदर्भ भी अलग-अलग हैं। ‘लोक’ अत्यंत ही प्राचीन शब्द है जबकि दलित शब्द अपेक्षाकृत उससे नया।

लोककला और साहित्य के आइने में राजा सलहेस

लोकगाथा सलहेस में मौजूद दलितों की मुखर अभिव्यक्ति तिरोहित दिखती है, अब ‘समाज’ को जागृत करने का उत्स नहीं दिखता और चित्रों में उनका निरूपण महज आलंकारिक है।

पत्थरकट्टी,1940–1970: परंपरा और परिस्थितियों के बीच फंसा पाषाण शिल्प

पत्थरकट्टी का इतिहास भले ही समृद्ध दिखता हो, 1940 के दशक तक आते-आते कलाकारों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी थी। वो किसी भी हाल में जयपुर लौट जाना चाहते थे।

पाषाण शिल्पियों का विशिष्ट गांव, पत्थरकट्टी: संक्षिप्त इतिहास और सामाजिक तानाबाना

बिहार में एक विशिष्ट गांव है पत्थरकट्टी, जहां बेजान पत्थरों में जान फूंकते हैं पाषाण शिल्पी। इसे अहिल्याबाई होल्कर ने बसाया था। उसके इतिहास और सामाजिक ताने-बाने पर एक नजर –

बिहार में आधुनिक कला के उत्प्रेरक: बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव

आजादी के बाद पचास के दशक में बिहार के समकालीन चित्रकला में आधुनिकता का प्रवेश और उसके विकास के उत्प्रेरक के रूप में बी.एन. श्रीवास्तव का नाम अग्रगणी है।

मृत्तिका उत्कीर्णन अलंकरण; प्रलेखन की तात्कालिक आवश्यकता – पूर्णिया विशेष

पूर्णिया के ग्रामीण क्षेत्रों में मृत्तिका उत्कीर्णन मुख्यतः महिलाओं के द्वारा किये जाते हैं जिन्हे स्थानीय लोग ‘लिखनी-पढ़नी’ या ‘चेन्ह-चाक’ कहते हैं। उनके मोटिव्स के अपने सांकेतिक अर्थ हैं।

भोजपुरी अंचल (पूर्वांचल) में कोहबर चित्र

भोजपुरी अंचल के सामाजिक जीवन के संस्कार, उसमें निहित आंतरिक जीवन दर्शन तथा आदर्श मूल्यों का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से वहां की कलाओं पर विद्यमान हैं।

लोक का जीवन संघर्ष और लोक कला

चाहे सत्ता-संस्कृति हो या बाजारवादी संस्कृति, दोनों की कोशिश लोक कला को परंपरा, धर्म व रूढ़ी की बेड़ियों में जकड़ कर एक दरबारी, रूढ़िवादी व सजावटी कला बना देने की रही है।

भोजपुरी अंचल (पूर्वांचल) के कोहबर चित्र का वैशिष्टय

कोहबर की परंपरागत थाति को पूर्वांचल के कलाकारों ने अपूर्व संवेदनशीलता एवं सृजनात्मक सामर्थ्य से अनुदित कर सहेजा है जिसे समझने के लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है।

बाजार और मूल्य पर आधारित थे पटना कलम के चित्र: डा. राखी कुमारी

पटना कलम के चित्र मुख्यत: बाजार की मांग और मूल्य के अनुरूप थे। वह इस बात पर निर्भर करता था कि चित्रों के विषय क्या हैं और उनका खरीदार कौन है।

उर्मिला देवी पासवान: लोककलाओं की परिधि के पार एक कलाकार

गोदना कला में मोटिव्स के साथ प्रयोग की प्रवृति उर्मिला देवी में चानो देवी से आती है और वह प्रवृति इतनी तेज है कि लोककलाओं की परिधि को अक्सर तोड़ती नजर आती है।

लोकगाथा सीरीज: सोरठी-बृजभार का कथानक

लोकगाथा सोरठी बृजभार संपूर्ण बिहार और अवध क्षेत्र में लोकप्रिय है। माना जाता है कि इसकी शुरुआत 1100 – 1325 ई. के बीच हुई जब नाथपंथ का प्रभाव पूरे क्षेत्र में प्रबल था।

‘पेगासस’ का मिथक और सलहेस के घोड़े: लाला पंडित

दरभंगा के छोटे से मोहल्ले के कुम्हारटोली में जन्मे लाला पंडित के बारे में यह किसी ने नहीं सोचा था कि वे घोड़ा बनाते-बनाते अपने लिये मिथकीय ‘पेगासस’ को साकार कर देंगे।

लोकगाथा राजा सलहेस की सामाजिक प्रसंगिकता

लोकगाथा राजा सलहेस न केवल एक दलित-शोषित समाज की वास्तविकताओं व अपेक्षाओं की गाथा है, वह उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक टकराहटों की भी गाथा है।

उत्तम प्रसाद पासवान की कला यात्रा और एक अनोखा ‘ब्रह्माण्ड’

गोदना कला जिन कलाकारों की वजह से चर्चा में आई, उनमें एक हैं उत्तम। उन्होंने चानो देवी से गोदना कला सीखी और ऐसा सम्मोहक ‘ब्रह्माण्ड’ रच डाला जिससे निकलना आसान नहीं है।

समाज ने ‘अवरोध’ खड़े किये, हमने उन्हें अवसर में बदल दिया: शांति देवी

अवरोध अवसर भी हो सकते हैं, मिथिला कला में शांति देवी की कला यात्रा इस बात को साबित करती है। जब-जब अवरोध सामने आए, शांति देवी उन्हें अवसर में बदलती गयीं।

प्रलेखन: बनारस की वस्त्रकला

“बनारसी वस्त्र कला सामंजस्य का भव्यतम प्रतीक है। बिनकारी कला के सम्पूर्ण सुरताल और लय इसकी बुनावट में इस तरह गूंथ दिये जाते हैं जिन्हें आखें स्पष्टतः सुनती हैं।”