Photo archives: Manjusha Painting – Folk Arts of Anga Janapada
The monograph published by Senior artist Shekhar in 1998, is important to learn about Manjusha art in Chakravarti Devi’s time frame. Find the monograph;
The monograph published by Senior artist Shekhar in 1998, is important to learn about Manjusha art in Chakravarti Devi’s time frame. Find the monograph;
बिहार की मंजूषा चित्रकला पर यह आलेख वरिष्ठ चित्रकार शेखर ने 1991 में लिखा था। यह आलेख इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि यह वर्तमान मंजूषा कला को देखने की नयी दृष्टि देता है। पढ़िये –
बिहार में मृत्तिका उत्कीर्णन की परंपरा खत्म होने की कगार पर है। पूर्णिया के वरिष्ठ कलाकार संजय सिंह ने तीन दशक पूर्व पूर्णिया में इस परंपरा का डॉक्यूमेंटेशन किया था। कुछ तस्वीरें –
Mithila art is a traditional form. One acquires it from ancestors. Mothers pass on the tradition to daughters so that they can paint if they need to.
Shanti Devi, one of the most acclaimed Dalit painters from Mithila, opens the knot of discourse which nobody wishes to talk to on the open forum.
Dr. Ram Bachan Roy’s explains how Migration plays a major role in our cultural development becoming a tool of bringing cultural diversity.
“In this article I attempt to unravel a mystery. The mystery is semiotic; it is about layers of meanings; it is about how meanings come into existence…”
Dalit art evolved as a mode of resistance and protest. It tires to historically trace the origin and the seriousness of caste discrimination.
1940-70 के दशक में पत्थरकट्टी के शिल्पी क्या तराश रहे थे, उनके डिजाइन क्या थे, जरूरत का कच्चा माल कहां से आता था और उपकरण क्या थे, डालते हैं उन पर एक नजर –
लोक’ और ‘दलित’ न केवल अलग-अलग शब्द हैं बल्कि उनके प्रयोगों के संदर्भ भी अलग-अलग हैं। ‘लोक’ अत्यंत ही प्राचीन शब्द है जबकि दलित शब्द अपेक्षाकृत उससे नया।
लोकगाथा सलहेस में मौजूद दलितों की मुखर अभिव्यक्ति तिरोहित दिखती है, अब ‘समाज’ को जागृत करने का उत्स नहीं दिखता और चित्रों में उनका निरूपण महज आलंकारिक है।
पत्थरकट्टी का इतिहास भले ही समृद्ध दिखता हो, 1940 के दशक तक आते-आते कलाकारों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी थी। वो किसी भी हाल में जयपुर लौट जाना चाहते थे।
बिहार में एक विशिष्ट गांव है पत्थरकट्टी, जहां बेजान पत्थरों में जान फूंकते हैं पाषाण शिल्पी। इसे अहिल्याबाई होल्कर ने बसाया था। उसके इतिहास और सामाजिक ताने-बाने पर एक नजर –
आजादी के बाद पचास के दशक में बिहार के समकालीन चित्रकला में आधुनिकता का प्रवेश और उसके विकास के उत्प्रेरक के रूप में बी.एन. श्रीवास्तव का नाम अग्रगणी है।
Khovar and Sohrai paintings are considered auspicious symbols related to fertility and prosperity being painted on the walls.
पूर्णिया के ग्रामीण क्षेत्रों में मृत्तिका उत्कीर्णन मुख्यतः महिलाओं के द्वारा किये जाते हैं जिन्हे स्थानीय लोग ‘लिखनी-पढ़नी’ या ‘चेन्ह-चाक’ कहते हैं। उनके मोटिव्स के अपने सांकेतिक अर्थ हैं।
This article traces the historical journey of Mithila painting, that of the painting of walls, floor-spaces on the medium of paper in North Bihar.
भोजपुरी अंचल के सामाजिक जीवन के संस्कार, उसमें निहित आंतरिक जीवन दर्शन तथा आदर्श मूल्यों का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से वहां की कलाओं पर विद्यमान हैं।
चाहे सत्ता-संस्कृति हो या बाजारवादी संस्कृति, दोनों की कोशिश लोक कला को परंपरा, धर्म व रूढ़ी की बेड़ियों में जकड़ कर एक दरबारी, रूढ़िवादी व सजावटी कला बना देने की रही है।
कोहबर की परंपरागत थाति को पूर्वांचल के कलाकारों ने अपूर्व संवेदनशीलता एवं सृजनात्मक सामर्थ्य से अनुदित कर सहेजा है जिसे समझने के लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है।
This article traces the documentation of ritual wall paintings by Maithil Brahmans and Kayasthas through the collecting practices of private individuals, libraries and others.
The historiography of Maithil Paintings of 50 yrs. after independence (1947 to 1997) – a phase marked by its discovery, commercialisation and promotion as a fine art.
पटना कलम के चित्र मुख्यत: बाजार की मांग और मूल्य के अनुरूप थे। वह इस बात पर निर्भर करता था कि चित्रों के विषय क्या हैं और उनका खरीदार कौन है।
गोदना कला में मोटिव्स के साथ प्रयोग की प्रवृति उर्मिला देवी में चानो देवी से आती है और वह प्रवृति इतनी तेज है कि लोककलाओं की परिधि को अक्सर तोड़ती नजर आती है।
लोकगाथा सोरठी बृजभार संपूर्ण बिहार और अवध क्षेत्र में लोकप्रिय है। माना जाता है कि इसकी शुरुआत 1100 – 1325 ई. के बीच हुई जब नाथपंथ का प्रभाव पूरे क्षेत्र में प्रबल था।
दरभंगा के छोटे से मोहल्ले के कुम्हारटोली में जन्मे लाला पंडित के बारे में यह किसी ने नहीं सोचा था कि वे घोड़ा बनाते-बनाते अपने लिये मिथकीय ‘पेगासस’ को साकार कर देंगे।
लोकगाथा राजा सलहेस न केवल एक दलित-शोषित समाज की वास्तविकताओं व अपेक्षाओं की गाथा है, वह उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक टकराहटों की भी गाथा है।
गोदना कला जिन कलाकारों की वजह से चर्चा में आई, उनमें एक हैं उत्तम। उन्होंने चानो देवी से गोदना कला सीखी और ऐसा सम्मोहक ‘ब्रह्माण्ड’ रच डाला जिससे निकलना आसान नहीं है।
अवरोध अवसर भी हो सकते हैं, मिथिला कला में शांति देवी की कला यात्रा इस बात को साबित करती है। जब-जब अवरोध सामने आए, शांति देवी उन्हें अवसर में बदलती गयीं।
“बनारसी वस्त्र कला सामंजस्य का भव्यतम प्रतीक है। बिनकारी कला के सम्पूर्ण सुरताल और लय इसकी बुनावट में इस तरह गूंथ दिये जाते हैं जिन्हें आखें स्पष्टतः सुनती हैं।”
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