पत्थरकट्टी: पाषाण शिल्प, परंपरागत डिजाइन और कच्चा माल के स्रोत

1940-70 के दशक में पत्थरकट्टी के शिल्पी क्या तराश रहे थे, उनके डिजाइन क्या थे, जरूरत का कच्चा माल कहां से आता था और उपकरण क्या थे, डालते हैं उन पर एक नजर –

लोककला और साहित्य के आइने में राजा सलहेस

लोकगाथा सलहेस में मौजूद दलितों की मुखर अभिव्यक्ति तिरोहित दिखती है, अब ‘समाज’ को जागृत करने का उत्स नहीं दिखता और चित्रों में उनका निरूपण महज आलंकारिक है।

पत्थरकट्टी,1940–1970: परंपरा और परिस्थितियों के बीच फंसा पाषाण शिल्प

पत्थरकट्टी का इतिहास भले ही समृद्ध दिखता हो, 1940 के दशक तक आते-आते कलाकारों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी थी। वो किसी भी हाल में जयपुर लौट जाना चाहते थे।

बाजार और मूल्य पर आधारित थे पटना कलम के चित्र: डा. राखी कुमारी

पटना कलम के चित्र मुख्यत: बाजार की मांग और मूल्य के अनुरूप थे। वह इस बात पर निर्भर करता था कि चित्रों के विषय क्या हैं और उनका खरीदार कौन है।

लोकगाथा राजा सलहेस की सामाजिक प्रसंगिकता

लोकगाथा राजा सलहेस न केवल एक दलित-शोषित समाज की वास्तविकताओं व अपेक्षाओं की गाथा है, वह उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक टकराहटों की भी गाथा है।

नैहर, न्यौछावर और नागराज: लोकगाथा बिहुला-विषहरी की उपकथा – दो

‘बिहुला-विषहरी’ का काल संस्कृतियों के विलयन का काल था। अंग क्षेत्र में वह कितना सहज था, उसकी अभिव्यक्ति इस लोककथा में है: मीरा झा, अंगिका साहित्यकार, भागलपुर।

नाग से विवाह: लोकगाथा बिहुला-विषहरी की उपकथा – एक

‘नाग से विवाह’ लोकगाथा बिहुला-विषहरी की अनेक उपकथाओं में से एक है। इसमें नागों का जनजातीय स्वरूप और उसका प्राकृतिक स्वभाव, दोनों साथ प्रत्यक्ष होता है।

चानो देवी (1955-2009): गोदना चित्रकला की सूत्रधार

मिथिला की चित्र परंपराओं में गोदना चित्रकला एक अस्वाभाविक घटना थी। चानो ने अपनी सूझ-बूझ से उसे न केवल ‘स्वाभाविक’ बनाया, बल्कि एक नयी कलाधारा की शुरुआत भी की।

लोकगाथा हिरनी-बिरनी और पोसन सिंह : कथानक

हिरनी-बिरनी लोकगाथा में ऊंची जाति का पोसन सिंह नटिन बहनों से शादी करता है। विवाह का प्रसंग जनमना जाति व्यवस्था में विवाह पर लगे स्वजातीय सीमा बंधन को चुनौती देता है।

निर्मला देवी: मंजूषा कला को समर्पित जीवन

मंजूषा कला चक्रवर्ती देवी की वजह से चर्चा में आयी, लेकिन उसे ऊंचाई पर पहुंचाया निर्मला देवी ने। वह आज भी युवा कलाकारों को नि:शुल्क मंजूषा कला सिखाती हैं।

लोकगाथा: रेशमा – चूहड़मल (कथानक)

रेशमा चूहड़मल की लोकगाथा सामंती व्यवस्थाओं के खिलाफ प्रतिरोध की गाथा है जिसमें सामाजिक वर्जनाओं के खिलाफ विद्रोह की प्रवृत्ति अत्यंत मुखरता से मिलती है।

“समय के साथ बदलेगी मंजूषा कला, लेकिन शैलीगत छेड़छाड़ से बचें”

“जो गतिशीलता का विरोधी है, परिवर्त्तन का विरोधी है, वह मृत्यु का पक्षधर है, जड़ता का समर्थक है। परिवर्त्तन चाहे जितना हो, उसे देखते ही लगना चाहिए कि यह मंजूषा शैली ही है।”

टिकुली कला का वर्तमान स्वरूप: परंपरा या आधुनिक घटना?

टिकुली कला का मौजूदा चलन करीब चार दशक पुरानी घटना है जिसमें जगदंबा देवी की चित्र शैली टिकुली कला की प्रामाणिक शैली मान ली गयी और अब वह बाजार का हिस्सा है।

लोकगाथा: बोहुरा गोढ़नी उर्फ नेटुआ दयाल सिंह

बोहुरा गोढ़नी शर्त रखती है कि वह बेटी अमरौती की शादी विश्वंभर के बेटे नेटुआ दयाल सिंह से तभी करेगी जब भीमल सिंह कमला नदी की धार को बखरी बाजार तक आने देंगे।

राधामोहन प्रसाद (1907-1996): बिहार में समकालीन कला के सूत्रधार

राधामोहन प्रसाद को बिहार में समकालीन कला का पुरोधा माना जा सकता है। वे बिहार के लिए टर्निंग प्वाइंट थे। न केवल कला सजृन में बल्कि कला शिक्षण में भी।

मंजूषा कला: अंग महाजनपद की लोककला

मंजूषा कला की खोज 1941 में आई.सी.एस. अधिकारी डब्ल्यू. जी. आर्चर ने की थी। उन्होंने अंग के माली परिवारों द्वारा बनाये मंजूषा चित्रों को लंदन के इंडिया हाउस में प्रस्तुत किया था।

टिकुली कला (शिल्प) से एक परिचय

बिहार के प्रत्येक सांस्कृतिक क्षेत्र में टिकुली (बिन्दी) लगाने का महिलाओं में प्रचलन है। टिकुली प्राय: सधवा महिलाएं ही अधिक प्रयोग करती हैं। सोलह श्रृंगार में बिन्दी लगाना सर्वोपरि है।

ईश्वरी प्रसाद वर्मा: ‘पटना कलम’ के आखिरी चित्रकार

ईश्वरी प्रसाद वर्मा हांथी दांत, अबरक की परतों, सिल्क और कागज पर चित्राकंन में माहिर कलाकार थे। उन्होंने यूरोपीय कला के आधार पर बड़े तैल चित्रों का भी निर्माण किया था।

मिथिला चित्रकार यशोदा देवी: 1944 – 2007

यशोदा देवी एक ऐसी जीवट मिथिला कलाकार थीं जिन्होंने अपने अंतिम दिनों में चित्र बनाने के लिए माध्यमों का असीमित विस्तार कर लिया। वह अपने सम्मुख हर वस्तु पर रेखांकन करती थीं।

लोकगाथा दीना-भद्री का कथानक: भाग-2

दीना-भद्री लोकगाथा मुसहर समाज के जीवन की गुत्थम-गुत्थी, जय-पराजय एवं उससे संचित अनुभवों की आवाजाही के बीच पनपते सपनों एवं आकांक्षाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति है।

लोकगाथा दीना-भद्री का कथानक: भाग-1

दीना-भद्री लोकगाथा में दलित समुदाय के शोषण और उत्पीड़न की घटनाओं का केन्द्रीकरण है, उनके जीवन के अन्तर्विरोधों और संघर्षों का मानवीकरण है – हसन इमाम, संस्कृतिकर्मी, बिहार

मूर्तिकला में समसामयिक लोकभावों के केंद्रक: रजत घोष

बिहार के चर्चित मूर्तिकार रजत घोष अपनी कलाकृतियों के माध्यम से एक अलग ही पहचान रखते हैं। उनकी कलाकृतियों पर लोककला का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।

कोबर / कोहबर चित्रण: निरूपण एवं उसके प्रतीकार्थ

कोबर लिखिया या चित्रण वस्तुत: अनेक प्रतीक-चिन्हों का अदभुत संयोजन है। उनके अपने उद्देश्य हैं, अपनी विशेषताएं हैं, अपने सिद्धांत हैं जो विज्ञान की अवधारणाओं पर आधारित हैं।

बिहार के पहले आधुनिक मूर्तिकार: पाण्डेय सुरेंद्र

हमारे समय में मूर्तिकला का अर्थ था सिर्फ ‘पोर्ट्रेचर’। उससे आमदनी भी हो जाती थी। इसलिए मैंने भी पोट्रेट्स बनाने की शुरुआत की, 1965 में : पाण्डेय सुरेंद्र

बिहार: हाशिये पर सलहेस लोककलाकार

लोकगाथा राजा सलहेस ने बिहार में एक संस्कृति को जन्म दिया जो समतामूलक समाज की मांग करता है। यह साधनसंपन्न सवर्ण समाज के लिए पचा पाना आसान नहीं है।

लोकगाथा राजा सलहेस की साहित्यिक विवेचना

राजा सलहेस की महागाथा संपूर्ण शूद्रों की महागाथा है जिसमें लोकगाथा की सभी विशेषताएं परिलक्षित हैं। इसमें दलितों और सर्वहारा वर्ग की वर्गीय चेतना का मानवीकरण मिलता है।